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ठंडी राख

>> Monday, December 29, 2008

ज़िन्दगी बस धुँआ सी बन गई है
शोले भी राख में बदल गए हैं
साँसे भी रह - रह कर चल रही हैं
धड़कन ही कहती है कि हम जी रहे हैं ।

जीने के लिए भी तो
कोई चिंगारी होनी चाहिए
चिंगारी ढूँढने के लिए
राख को ही कुरेदना चाहिए।

ज़रा सा छेड़ोगे गर हमे तो
गुबारों की तो कोई कमी नही है
हम हैं यहाँ की आम जनता
जिसे व्यवस्था से कोई सरोकार नही है।

सोचने के लिए वक्त की कमी है
हर ढंग में रच -बस से गए हैं
काम निकालना है बस कैसे भी
इस रंग में ही सब रंग से गए हैं ।

चिंगारी भी कोई भड़कती नही है
सब राख का ढेर से हो गए हैं
इसको कुरेदो या पानी में बहा दो
सब यहाँ मुर्दे से हो गए हैं ।

गर आती है जान किसी मुर्दे में
तो उसे फिर से मार दिया जाता है
शोला बनने से पहले ही चिंगारी को
ठंडी राख में बदल दिया जाता है.

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राहें


तड़प के रह जाता है

मन मेरा

जब कोई मुझसे

मेरा पता पूछता है ।

सोचती हूँ कि

कह दूँ -

अपने दिल के आईने में

झाँक कर देख लो ।


पर हर शख्स के

दिल में आईने

नही होते

जो मैं ख़ुद को भी

तलाश सकूँ वहाँ पर।


पूछने वाले

अक्सर पूछ लेते हैं

और मैं हमेशा

हंस कर कह देती हूँ कि

इसकी ज़रूरत क्या है?


क्यों कि मैं जानती हूँ कि

मुझे आज भी शायद

ज़िन्दगी की राहों पर

ठीक से चलना नही आता

और राहें भी शायद

मुझ तक पहुँच नही पाती हैं।

इसीलिए किसी का भी

मुझ तक पहुंचना

नामुमकिन सा होता है.

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नीला आसमान

>> Wednesday, December 24, 2008





मैं -


आसमान हूँ ,


एक ऐसा आसमान


जहाँ बहुत से


बादल आ कर


इकट्ठे हो गए हैं


छा गई है बदली


और


आसमान का रंग


काला पड़ गया है।



ये बदली हैं


तनाव की , चिंता की


उकताहट और चिडचिडाहट की


बस इंतज़ार है कि


एक गर्जना हो


उन्माद की


और -


ये सारे बादल


छंट जाएँ



जब बरस जायेंगे


ये सब तो


तुम पाओगे


एक स्वच्छ , चमकता हुआ


नीला आसमान.

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सच क्षितिज का........

>> Sunday, December 21, 2008


द्वंद्व में घिरा मन
कब महसूस कर पाता है
किसी के एहसासों को ?
और वो एहसास
जो भीगे - भीगे से हों
मन सराबोर हो
मुहब्बत के पैमाने से
लब पर मुस्कराहट के साथ
लगता है कि -
प्यार के अफ़साने
लरज रहे हों।
नही समझ पाता ये मन -
कुछ नही समझ पाता ,
ख़ुद के एहसास भी
खो से जाते हैं
सारे के सारे अल्फाज़
जैसे रूठ से जाते हैं
कैसे लिखूं
अपने दिल की बात ?
न मेरे पास
आज नज़्म है , न शब्द
और न ही लफ्ज़
खाली - खाली आंखों से
दूर तक देखते हुए
बस क्षितिज दिखता है ।
जिसका सच केवल ये है कि
उसका कोई आस्तित्व नही होता ।

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अन्तिम और प्रथम कील - 2





मेरी इच्छाएं,

उम्मीद , भावनाएं

और अनुभव

सब शांत थे ताबूत में।

पर सोच थी ,

कि -

वक्त - बेवक्त

सर उठा लेती थी

और मजबूर कर देती थी

ये सोचने के लिए

कि आख़िर सब

क़ैद क्यों हैं ?

कब तक

निश्छल से पड़े रहेंगे

ये सब ?


आत्ममंथन करते करते

अचानक आभास हुआ

कि ये तो

पलायन है ज़िन्दगी से ------

ज़िन्दगी में सारे तोहफे

तुम्हें अच्छे मिलें

ये ज़रूरी तो नही....

तोहफा चाहे जैसा हो

बिना मांगे मिलता है।

इसलिए श्रद्धा से

स्वीकार करना चाहिए ।


बस इस सोच ने

मजबूर कर दिया मुझे

उस कील को निकालने के लिए

जो अंत में ठोकी थी मैंने

और बन गई वो

उखाडी हुई पहली कील .....




आखीरी और पहली कील ..... / भाग -- 1


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आखिरी और पहली कील

>> Thursday, December 18, 2008


मैंने ---

अपनी सारी भावनाओं ,

सोच , इच्छा ,

उम्मीद और अनुभवों को

कैद कर दिया है

एक ताबूत में ,

और

ठोक दी है उसमें

एक अन्तिम कील भी ।


अब तुम चाहो तो

दफ़न कर सकते हो

ज़मीन के अन्दर

और न भी करो तो

कोई फर्क नही पड़ता ।


अब इनका बाहर आना

नामुमकिन है ,

बस ---

मुमकिन होगा तब ही

जब मैं ख़ुद

उखाड़ दूँ

इस ताबूत की

पहली कील को ।



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वक्त



मैंने -

छोड़ दिया है

ख़ुद को

वक्त के

बेरहम हाथों में ।

चाहती हूँ देखना कि

कितनी बेरहमी करता है

ये वक्त मेरे साथ?

कभी तो थकेगा

वक्त भी ?

उस समय मैं पूछूंगी

वक्त से ---

कि क्या तुम वही वक्त हो????

लेकिन मुझे मालूम है

कि इस प्रश्न का उत्तर

उसके पास नही होगा ।

क्यों --?

क्यों कि शायद

वक्त कभी नही थकता .

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विश्वास का उजास

>> Wednesday, December 17, 2008


रात कुछ गहरा सी गई है
शहर भी सारा सो सा रहा है
अचानक आता है -
कोई मंजर आंखों के सामने
ऐसा लगता है कि -
कहीं कुछ हो तो रहा है।


सडकों के सन्नाटे में ये
हादसे क्यूँ कर हो रहे हैं ?
प्रगति के साथ - साथ ये
इंसानियत के जनाजे
क्यूँ निकल रहे हैं ?


मनुजता को ही त्याग कर तुम
क्या कभी मनुज भी रह पाओगे?
जाना है कौन सी राह पर ?
क्या मंजिल को भी ढूंढ पाओगे?


भटक गए हैं जो कदम हर राह पर
उन्हें तो तुमको ही ख़ुद रोकना पड़ेगा
रूको और सोचो ज़रा देर -
सही मार्ग तुमको ही चुनना पड़ेगा।


कोई नही है यहाँ उंगली थामने वाला
क्यों कि हाथ तो तुम ख़ुद के काट चुके हो
ठहरो ! और देखो इस चौराहे से
सही राह क्या तुम पहचान चुके हो ?


गर राह सही होगी तो सच में
सोया शहर भी एक दिन जाग जायेगा
गहरी हो रात चाहे जितनी भी
मन में विश्वास का उजास फ़ैल पायेगा.



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दिल की बात

>> Sunday, December 14, 2008


दीवारों से मैंने अपना
कलाम कह दिया है ,
मैंने सुना है कि
दीवारों के कान होते हैं।
कलाम भी क्या ?
बस यूँ ही
दिल की बात है
हवाएं भी आज - कल कुछ
भीगी - भीगी सी लग रही हैं।
सोच को तो जैसे
पंख लग गए हैं
आसमान के चाँद से
कुछ गुफ्तगू हो रही है।
चाँदनी मुस्कुरा के
कह गई है कानों में
ख्यालों की दूब पर
शबनम बिखरी हुई है।
मोती जो शबनम के मैंने
समेटे अपनी झोली में
धागे में पिरो जैसे
वो एक कविता सी बन गई है।
इस कविता को भी मैं अब
किसको और क्यूँ कर सुनाऊँ
इसिलए मैंने वो सब
दीवारों से कह दिया है।
चाहा - अनचाहा सारा
जज्ब कर लेंगी वो शायद
मैंने तो यूँ कह कर बस
अपना मन हल्का कर लिया है.

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कश्मकश

>> Saturday, December 13, 2008



यूँ ही चले थे दो कदम तुम्हारे साथ

मंजिल तमाम उम्र हमें ढूँढती रह गई है।


सोचो में तुम , ख्वाहिशों में तुम , ख़्वाबों में तुम

ज़िन्दगी की हर राह जैसे उलझ सी गई है।


उलझन ही होती तो शायद सुलझा भी लेते ,

हर चाह ज़िन्दगी की मध्यम पड़ गई है ।


यूँ तो आसमान के चाँद को सबने चाहा है पाना

पर उस तक की दूरी एक हकीकत बन गई है।


सागर के साहिल पे खड़ी सोचती हूँ अक्सर

लहरों का आना - जाना ही ज़िन्दगी बन गई है।


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जा रहे हो कौन पथ पर.....??????

>> Tuesday, December 9, 2008


ज्ञान चक्षु खोल कर
विज्ञान का विस्तार कर
जा रहे हो कौन पथ पर
देखो ज़रा तुम सोच कर।

कौन राह के पथिक हो
कौन सी मंजिल है
सही डगर के बिना
मंजिल भी भटक गई है।

अस्त्र - शस्त्र निर्माण कर
स्वयं का ही संहार कर
क्या चाहते हो मानव ?
इस सृष्टि का विनाश कर ।

विज्ञान इतना बढ़ गया
विनाश की ओर चल दिया
धरा से भी ऊपर उठ
ग्रह की ओर चल दिया ।

हे मनुज ! रोको कदम
स्नेह से भर लो ये मन
लौट आओ उस पथ से
हो रहा जहाँ मनुष्यता का पतन।

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सीमायें

>> Wednesday, November 26, 2008



रिश्तों की गांठें खोल दो
और
आजाद हो जाओ सारे रिश्तों से
फिर देखो
ज़िन्दगी कितनी
सुकून भरी हो जाती है
एक तरफ़
न तुम किसी के होंगे
और न कोई तुम्हारा
दूसरी तरफ़
तुम सबके होंगे
और सारा जग तुम्हारा
फिर तुम उम्मीदों को
सीमाओं में नही बाँधोगे
और दूसरे की कमियां गिनाने की
सीमा नहीं लांघोगे .

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दस्तक

>> Tuesday, November 25, 2008


कड़वाहटें मन में जो इतनी हैं

कि गुलों की खुशबू भी नही सुहाती है

कैसे इन काँटों को निकालूँ मैं

कि हर अंगुली मेरी लहुलुहान हुई जाती है

एहसास का ही जज्बा न हो जहाँ

वहां उम्मीद ही क्यों लगायी जाती है

उम्मीद ही नाराजगी का रूप धर कर

दिल के दरवाजों को बंद कर जाती है।

इन बंद दरवाजों को खोलने की कोशिशें

सब यूँ ही व्यर्थ चली जाती हैं

सारी उम्मीदें और चाहतें जैसे

एक खोल में सिमट कर रह जाती हैं ।

फिर चाहे तुम दस्तक देते रहो बार - बार

दिल के कान बहरे ही रह जाते हैं

अपनापन कहीं बीच में रहता नही

अपने लिए ही सब जीते चले जाते हैं.

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अकेलापन

>> Thursday, November 13, 2008


जब मैं इस संसार में न रहूँ तब मेरे हमसफ़र की शायद ऐसी सोच हो...............
जब ज़िन्दगी थकने लगती है
और मन टूटने लगता है
तब मुझे तुम्हारी नजदीकी
बहुत याद आती है ।
बसीं थीं तुम मेरी साँसों में
पर उन साँसों को मैंने
शायद कभी पहचाना नही
तुम्हारे अपनेपन को भी
मैंने कभी अपना माना नही
आज नितांत एकांत में
जब तेरी याद मुझे आती है
मैं ढूंढता रह जाता हूँ
तू मुझे बहुत सताती है ।
उम्र के इस पड़ाव पर
बहुत मुश्किल होता है
अकेले वक्त बिताना
हर खुशी हो चाहे घर में
पर नही मिलता मेरे मन को
कोई भी ठिकाना ।
आज मन ढूंढता है तेरा सानिध्य
पर नही पा सकता ये जानता हूँ
बीते पलों में भी चाहूँ कुछ ढूंढ़ना
पर नही मिलेगा ये मानता हूँ.

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नई अनुभूति


ख़्वाबों में अक्सर
देखा है मैंने ख़ुद को
किसी ऊँची
पहाडी की चोटी पर खड़ा
जब भी झांकती हूँ
नीचे की ओर
तो डर के साथ
एक सिहरन भी होती है
डर-
शायद गिर जाने का
और सिहरन-
शायद एक नई अनुभूति की ।

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ख्वाहिश मौत की

>> Wednesday, November 12, 2008

यूँ तो हर आँख
यहाँ बहुत रोती है
हर बात हद से गुज़र जाए
तो बुरी होती है
ज़िन्दगी को हर पल
मापना ज़रूरी है
वरना ये ज़िन्दगी
हर भार से भारी होती है।
हमने मार डाला है आज
अपने हाथों से सारे ज़ज्बातों को
क्यों कि ज़ज्बातों से भारी
फ़र्ज़ की ज़िम्मेदारी होती है
यूँ ही फ़र्ज़ निबाहते हुए
रीत जायेगी ये ज़िन्दगी
जिंदा रहने के लिए
ये साँस भी ज़रूरी होती है
साँसों का ये दौर
यूँ ही चले भी तो क्या है
मौत की ख्वाहिश होते हुए भी
जिंदा रहना भी एक मजबूरी होती है.

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एहसास

>> Wednesday, November 5, 2008

वक्त बहुत बेरहम हो चला है
ख्वाहिशें भी पूरी होती नही हैं
दर्द को भी बढ़ना है यूँ ही
खुशी भी कोई मिलती नही है।
चाहतें भी बिखर सी गयीं हैं
समेटने के लिए दामन कहाँ से लाऊँ?
सूनापन है इन आंखों में छाया
कोई रोशनी भी मैं कहाँ से पाऊँ ?
मेरी तन्हाइयों की बात न छेडो तुम
यादें तक तनहा हो चली हैं
इन अंधेरों में किसको पुकारूं में
परछाई भी मेरा साथ छोड़ चली है ।
हाथ बढाती हूँ पकड़ने को दामन
तो कहीं कुछ खो सा जाता है
सहारा भी चाहूँ किसी का तो
खाली हाथ लौट कर आ जाता है।
सूना -सूना सा आंखों का काजल
कह रहा है अपनी ही कहानी सी
सुनने की भी ताब नही है
लगती है सब जानी - पहचानी सी ।
आँखें बंद कर आज देखती हूँ
अपना साया भी साथ नही है
सोचो तो कैसा मुकद्दर है
दर्द का भी कोई एहसास नही है .

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इंतज़ार

>> Friday, October 31, 2008

न जाने कितनी बार
मेरे हिस्से ज़हर आया है
जब -जब भी ज़िन्दगी ने
मंथन किया
मैंने विष ही पाया है।
इतना गरल पा कर भी
मन मेरा शिव नही बन पाया
क्यों कि ये ज़हर
मेरे कंठ में नही रुक पाया है।
उगल दिया मैंने सब
बिना ज़मीं देखे हुए
बंजर हो गई वो धरती
जहाँ प्रेम की पौध
उगा करती थी
जल गए वो दरख्त
जिनकी टहनी मिला करती थी
सूख गए वो अरमान
जो इन पेडों पर रहा करते थे
मर गए वो एहसास
जो इन पर
झूले झूला करते थे ।
आज बस रह गया है तो
एक राख का अम्बार है
इसे उड़ने के लिए हवा के
हल्के से झोंके का इंतज़ार है.

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मजबूरी

>> Monday, October 20, 2008

ज़िन्दगी के हर दौर में हम



ज़िन्दगी का अर्थ ढूढते रहे



औ ज़िन्दगी का सफर



यूँ ही पूरा हो गया ।



जो मिला इस सफर में



वो भी तो कुछ कम न था



कुछ गम थे , कुछ शक



कुछ तल्खियाँ औ तन्हाईयाँ

और जो प्यार मिला तो

वो भी अधूरा रह गया ।

ख्वाब में गर मैंने

मंजिल पाने की चाहत की

इस चाहत के दरमियाँ ही

ख्वाब खंडित हो गया ।

और अब न ख्वाब है

न चाहतें , न ही मंजिल

न अधूरा प्यार ही

शायद इसी लिए अब

यह ज़िन्दगी जीना आसान हो गया ।

गर इसी को जीना कहते हैं

तो हम भी जी रहे हैं

पल- पल मर - मर कर हम

यूँ ही साँस ले रहे हैं

और हर साँस के साथ

विष का धुंआ उगल रहे हैं

क्यों की -

ज़हर उतारने के लिए

ज़हर का होना ज़रूरी है

ऐसे ही -

ख़ुद को विषाक्त बना लेना

मेरी मजबूरी है.

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तृष्णाएँ

>> Saturday, October 18, 2008

ज़िन्दगी एक धोखा है
फिर भी लोग विश्वास करते हैं
कि हम जीते हैं
और न जाने
कब तक जीते रहेंगे
इस जीने की उम्मीद पर ही
तृष्णाएँ जन्म लेती हैं
और हावी हो जाती हैं
मनुष्य की ज़िन्दगी पर ,
उन तृष्णाओं की तृप्ति में ही
मनुष्य लगा देता है सारा जीवन ,
पर क्या सही अर्थों में
उसे तृप्ति मिलती है ?
निरंतर प्रयासों के बाद भी
मानव तृषित रहता है
और फिर -
स्वयं को धोखा देता है
यह विश्वास करके कि
वह प्रसन्न है , संपन्न है
उसमे अपनी इच्छाओं को
पूरा कराने का दम है ,
उसके लिए मात्र
एक ज़िन्दगी कम है।


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झंझावात

>> Wednesday, October 15, 2008

दूर तक नज़र
ढूढ़ती है कि
कोई नेह का बादल
अपना छोटा सा टुकड़ा
कहीं छोड़ गया हो
और वो बरस कर
मुझे भिगो दे .

पर-
मंद समीर भी
उड़ा ले जाता है
हर टुकड़े को
अपने साथ .

और आ जाता है
मेरी ज़िंदगी में
कुछ ऐसा झंझावात
कि भीगने को
तरसते मन को
जैसे रेतीली हवाओं ने
घेर लिया हो
चारों ओर से .

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विरासत

>> Saturday, October 4, 2008

ज़िन्दगी के हर मोड़ पर
मुझे मात मिली
तुम एक और मात दे दोगे
तो कोई बात नही ।
दिल का सागर भरा है
गम की लहरों से
तुम एक और लहर मिला दोगे
तो कोई बात नही।
धूल का गुबार ही
मेरी किस्मत में लिखा है
खुशियों के पीछे तुम भी
उसमें एक ज़र्रा मिला दोगे
तो कोई बात नही।
प्यासा दिल पानी की चाह में
न जाने कहाँ कहाँ भटक गया
तुम भी पानी दे कर छीन लोगे
तो कोई बात नही ।
हालत के हाथों मैं अक्सर
हो जाती हूँ मजबूर
तुम और मजबूर बना दोगे
तो कोई बात नही .
मेरी ज़िन्दगी की किरणों में
कहीं कोई चमक बाकी थी
तुम उसको भी छीन लोगे
तो कोई बात नही ।
इस उजाड़ , वीरान सी ज़िन्दगी से
क्या शिकवा ?
तुम नेह का बादल हटा दोगे
तो कोई बात नही।
बस बात है तो केवल इतनी कि
गर हो मेरी ज़िन्दगी में
कोई चाहत , तम्मनाएं औ खुशी
वो सब तुझे मेरी विरासत में मिलें
ज़िन्दगी की इस कठोर धरती पर
तेरे लिए खुशी का हर फूल खिले .

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बंदिशें

>> Friday, October 3, 2008

बंदिशें ज़िन्दगी में

हर पल कुछ यूँ

हावी हो जाती हैं

चाहता है कुछ मन

पर ख्वाहिशें

पूरी नही हो पाती हैं ।

यूँ तो हम सब

ज़िन्दगी जी ही लिया करते हैं

सुख के पल भी ज़िन्दगी में

अनायास ही पा लिया करते हैं ।

हंस लेते हैं महज़ हम

इत्तफाक से कभी कभी

खुश हो लेते हैं यह सोच

कि ज़िन्दगी में कोई कमी तो नही ।
पर गायब हो जाती है मुस्कान
ये सोच कि -
हम कौन सा पल
अपने लिए जिए ?
अब तक तो मात्र
सबके लिए फ़र्ज़ पूरे किए।
कौन सा लम्हा है हमारा
जिसे हम सिर्फ़ अपना कह सकें
और उस लम्हे को अपनी
धरोहर बना सकें ।
ढूंढे से भी नही मिलता वो एक पल
जो हमने अपने लिए जिया हो
बंदिशों के रहते
किसी पल को भी अपना कहा हो।
रीत जाती है ज़िन्दगी
बस यूँ ही चलते - चलते
बीत जाती है ज़िन्दगी
बंदिशों में ढलते - ढलते .

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मेरा मन

>> Thursday, October 2, 2008

धूप में झुलसती हुई
ज़िन्दगी की
पथरीली सड़क पर
मेरा मन
नंगे पाँव चला जा रहा था।

कब राह में
ठोकर लगी ?
गर्म धूल के समान
तपते विचार
कब मन को झुलसा गए ?
कब आक्रोश के भास्कर ने
मन के भावों को
भस्म किया ?
कुछ अहसास नही ।

बस ये मन है कि
ज़िन्दगी की हर
सरल - कठिन , टेढी - मेढ़ी
स्वछन्द या कि
काँटों से भरी राह पर
चलता गया ।
कभी प्रसन्न वदन
खुशियाँ लुटायीं
तो कभी ग़मगीन हो
लहू - लुहान हो गया .

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इम्तहान

>> Wednesday, October 1, 2008

ज़िंदगी में इम्तहान तो
हर घड़ी चला करते हैं
कुछ स्वयं आ जाते हैं सामने
तो कुछ हम खुद चुन लिया करते हैं
और जो बचते हैं वो
हम पर थोप दिए जाते हैं ।
और मान लिया जाता है कि
ज़िंदगी के इम्तिहान में
हमें सफल होना है ।

यूँ ज़िंदगी से
जद्द-ओ -जहद करते हुए
हर इंसान
कदम दर कदम
आगे बढ़ता है
हर लम्हा कुछ
नया खोजते हुए
कुछ नया चाहते हुए
अपनी ख्वाहिशों को
अपनों पर लुटाते हुए ।
क्या पता ऐसा करना
उसकी मजबूरी होती है या ज़रूरत ?
या फिर अपनों के प्रति
श्रद्धा या क़ुर्बानी
पर प्यार भरी डगर पर
चलते - चलते वो इंसान
अचानक ख़त्म कर देता है
अपनी कहानी॥
और फिर -
एक नाकाम सी कोशिश में
सब कुछ भूलने का प्रयास करते हुए
स्वयं उलझ कर रह जाता है ।

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चले गये तुम क्यों बापू

>> Sunday, September 28, 2008

चले गये तुम क्यों बापू
ऐसे उँचे आदर्श छोड़ कर
इन आदर्शों की चिता जली है
आदर्शवाद का खोल ओढ़ कर ।

तुमने सपने में भारत की
करी कल्पना कैसी थे
ये जो भारत की हालत है
क्या कुछ - कुछ ऐसी ही थी ?

तुमने आंदोलन - हड़तालों से
विश्व में क्रांति मचा दी थी
इस क्रांति के द्वारा ही
भारत को आज़ादी दिला दी थी।

जब स्वतंत्र हुआ था भारत
जनता कितनी उत्साहित थी
घर - घर दीप जले खुशी के
तेरी जय- जयकार हुई थी ।

अब सुन लो बापू तुम
तेरे भारत की कैसी हालत है
तेरे उन आदर्शों की
कैसे चिता जल रही है ?

हड़ताल शब्द को ही ले लो
कितना अर्थ बदल गया है?
पग -पग पर हड़तालों से
तेरा आस्तित्व मिट चला है ।

अब आओ तुमको मैं
कोई दफ़्तर दिखला दूँ
तेरा कितना आस्तित्व है
इसका तुझको अहसास करा दूँ।

इस दफ़्तर में देखो
तेरी तस्वीर लगी हुई है
बड़ी श्रद्धा से शायद
फूलों की माला चढ़ी हुई है।

उसके नीचे भी देखो
तेरे उपदेशों को लिखा है
रिश्वत लेना महापाप है
यह स्वर्णिम अक्षर में लिखा है ।

तेरे इस उपदेश को
कितनों ने अपनाया है ?
मैने तो हर शख्स को यहाँ
रिश्वत लेते पाया है।

कुछ और दिखाऊँ भारत की झाँकी ?
या बस आत्मा तेरी काँप रही है ?
भारत माँ तेरे जैसे बापू को
आद्र स्वर में पुकार रही है ।

अब प्रश्न किया मैने जनता से
क्या अहसास हुआ तुमको कुछ
ढोल पीटते हैं बढ़ - चढ़ सब
पर हम स्वयं में हैं कितने तुच्छ ।

ओ ! जनता के नेताओं
तुम क्यों नही कुछ बोलते हो ?
क्या गाँधी टोपी से ही केवल
ऊँचे आदर्शों को तोलते हो ।

मत धोखे में रखो खुद को
ये झूठा आवरण हटा दो
गाँधी के आदर्शों को फिर
भारत की धरती पर ला दो .

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नारी ... एक शमा

>> Friday, September 26, 2008

मैं ,
शमा - दान की
अधजली शमा हूँ ।
जब अँधेरा होता है तो
जला ली जाती हूँ मैं
और उजेरा होते ही
एक फूँक से
बुझा दी जाती हूँ मैं
ओ ! रोशनी के दीवानों
क्या पाते हो ऐसे तुम
क्यों नही जलने देते पूरा
क्षण - क्षण
जला - बुझा कर तुम
मत यूँ बुझाओ मुझको
ज्यादा दर्द होता है
कि पिघलता हुआ मोम
ज्यादा गर्म होता है ।
पिघलने दो उसे
यूँ बुझा कर ठंडा न करो
जलते हुए मिलने वाले
उस सुख को न हरो
चाहती हूँ मैं कि
मुझे एक बार जला दो
कि उस आग को
भड़कने के लिए
बस थोडी सी हवा दो
मैं एक बार पूरी तरह
जलना चाहती हूँ
अपनी ज़िन्दगी इसी तरह
पूरी करना चाहती हूँ ।
मैं ,
हलकी सी फूँक का
बस एक तमाशा हूँ ।
मैं शमा - दान की
अधजली शमा हूँ.

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आख़िर में

>> Thursday, September 25, 2008

आज मेरे अल्फाज़ मुझसे
रूठ से गए हैं
आज मेरे अहसास
जैसे घुट से गए हैं
यूँ लगता है मुझे ऐसा
कि आज मेरी सोच के
सारे के सारे ताने - बाने
टूट से गए हैं ।
भावों को भी कोई लहर
मिलती नही है
ख़्वाबों का भी जैसे
कोई आसमान नही है
तारों की भी चाहत
ख़त्म हो चुकी है
चाँद भी हाथ से
फिसल सा चुका है
चाहती हूँ कि कुछ तो
कह पाऊँ ख़ुद से ही मैं
पर शब्द हैं कि सब
बिखरे से पड़े हैं
सहेजती हूँ इन बिखरे मोतियों को
कि पिरो कर ही कोई माला बना दूँ
आंखों में पानी उतर आता है
कि सुईं भी पिरो नही पाती हूँ ।
ग़मगीन सी भला हूँ क्यों मैं ?
ज़िन्दगी तो यूँ ही चलती जाती है
सोच की आंधी जब होती है तेज
तो हवा का हर रुख वो बदल पाती है
छोड़ दिया है मैंने वक्त के हाथों
इस कश्ती को ज़िन्दगी के सागर में
अब इसकी किस्मत में चाहे थपेडे हों
या सुकूं मिले साहिल पे आकर आख़िर में .

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सोच के उफान

>> Tuesday, September 23, 2008

सोच ,
सर्फ़ के झाग की तरह
कुछ देर
फेनिल झागों के समान उभरी
और ख़त्म हो गई
दूध में उफान की तरह
विचार उफनते हैं
और कुछ समय बाद
ठंडे हो जाते हैं
उन झागों की तरह
जो स्वयं नीचे बैठ गए हों ।
और फ़िर -
वही बेरौनक सी ज़िन्दगी
कैसे , कब और कहाँ शुरू हुई
एहसास नही रहता
कल आज और कल
बीतते जाते हैं
पर उनका हिसाब नही रहता
इस बेहिसाबी दुनिया में
तुम बीता कल ढूँढते हो
पर यहाँ तो अब
आज का हिसाब नही मिलता
वक्त नही है
अब सोचने का
कल का क्या सोचें
कर्म किए जाओ
फ़िर -
वक्त कहीं का कहीं पहुंचे.

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सुर्खी एक दिन की ....

>> Monday, September 22, 2008

सोच की आंधी
कुछ इस तरह चली है
की सारे जज़्बात
जैसे उड़ से गए हैं ।
मन के किसी कोने से
एक विश्वास झांकता है
कि कभी तो भय मुक्त हो
हम विचरण कर सकेंगे
आज के हालात ने
इंसान को पत्थर बना दिया है
कहीं किसी के मन में कोई
संवेदना बाकी नही है ।
ज्यों अखबार की ख़बरों को
पी जाते हैं चाय के साथ
बम के धमाकों को भी
पानी समझ के पी गए हैं ।
अब ऐसी ख़बरों से कोई
चौंकता नही है
ज्यों होती हैं ज़िन्दगी में
आम सी दुर्घटनाएं
इनको भी ऐसे ही आम
घटना कहने लगे हैं
एक दिन ख़बरों में चर्चा
सुर्खी बन कर छा जाती है
और फिर सब यूँ ही
जी लेते हैं ज़िन्दगी
जैसे कि हादसों को सब
भूल ही चुके हैं
याद रखते हैं इन घटनाओं को
बस वो ही लोग
जिनके घर के लोग
इन हादसों में मर चुके हैं ।
कोई तो कह दे उन
हत्त्यारों से जा कर
हम सब अब सिर पर
कफ़न बाँध चुके हैं.

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बेटी .......प्यारी सी धुन

>> Sunday, September 21, 2008


न जाने क्यों आज भी
हमारे समाज में
हर घर परिवार में
पुत्र की चाहत का
इज़हार किया जाता है ।
गर बेटी हो जाए
तो माँ का तिरस्कार किया जाता है ।

कितनी मजबूर होती होगी
वो माँ
जो अपने गर्भ में
पलने वाले बच्चे को
मात्र इस लिए काल के
क्रूर हाथों के हवाले कर दे
कि वो बेटी है ।

नष्ट कर देते हैं
बेटी की  संरचना को
भूल जाते हैं सच्चाई कि
यही बेटियाँ सृष्टि रचती हैं ।
शायद ऐसे लोग बेटी की
अहमियत नही जानते हैं
बेटा लाख लायक हो
पर बेटियाँ
मन में बसती हैं
उनके रहने से
न जाने कितनी
कल्पनाएँ रचती हैं ।
बेटियाँ माँ का
ह्रदय होती हैं , सुकून होती हैं
उसके जीवन के गीतों की
प्यारी सी धुन होती हैं.

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ज़िम्मेदारी

अक्सर मैं सोचती हूँ कि
दुनिया में कितने रंग हैं
अपने गम से बाहर निकलो तो
दुनिया में कितने गम हैं ।

कभी कभी बचपन बीतता भी नही
कि आदमी बुजुर्ग हो जाता है
और कभी कभी कोई बुजुर्ग
बच्चे से बड़ा नहीं बन पाता है

ज़िन्दगी-
बहुत कुछ सिखाती है
ज़रूरत
इंसान को कभी कभी
जल्दी ही उम्र दराज़ कर जाती है ।

बचपन में ही ओढ़ लेते हैं
बड़ी - बड़ी जिम्मेदारियों का बोझ
मासूम से कंधे झुक जाते हैं
समझ नहीं पाते दुनियादारी की सोच ।

उनके ख़ुद के रास्ते सब बंद हो जाते हैं
मेहनत के बदले चंद सिक्के ही मिल पाते हैं
जोड़ - तोड़ कर जैसे - तैसे परिवार चलाते हैं
किसी तरह वो ये ज़िन्दगी गुजारते हैं ।

एक मासूम सा किशोर
अचानक बड़ा हो जाता है
सबको खुशी देता है
जिनसे उसका नाता है ।

पर जब वक्त गुज़र जाता है
उम्र सच में ही ढलने लगती है
थक चुका होता है ज़िन्दगी से
तो नफे - नुक्सान की गणना होने लगती है

पाता है कि छला गया है वो
नाते - रिश्ते सब कहाँ चले गए हैं ?
गम के अंधेरों से जूझता रहा है हर पल
जो नक्शे - कदम बनाए थे वो कहाँ धुल गए हैं ?

वो नाते , वो रिश्ते
छोड़ जाते हैं सब साथ
जिनके लिए उसने अपना
लहू पसीना किया था
आज नितांत अकेला
पाता है ख़ुद को
वो कहाँ हैं सब
जिनके लिए वो जिया था ।
इल्तिजा है बस मेरी
इतनी ही खुदा से
यूँ मासूमों का
इम्तिहान न लिया कर
जो चाहते हैं सच ही
ख़ुद कुछ कर गुज़रना
उनको कुछ अपनी भी
ताकत दिया कर .

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एक अभिव्यक्ति ये भी

>> Saturday, September 20, 2008

मैं और तुम
और ज़िन्दगी का सफर
चल पड़े थे
एक ही राह पर ।

पर तुम बहुत व्यावहारिक थे
और मैं हमेशा
ख़्वाबों में रहने वाली ।
कभी हम दोनों की सोच
मिल नही पायी
इसीलिए शायद मैं
कभी अपने दिल की बात
कह नही पायी ,
कोशिश भी की गर
कभी कुछ कहने की
तो तुम तक मेरी बात
पहुँच नही पायी ।

मैं निराश हो गई
हताश हो गई
और फिर मैं अपनी बात
कागजों से कहने लगी ।

मेरे अल्फाज़ अब
तुम तक नही पहुँचते हैं
बस ये मेरी डायरी के
पन्नों पर उतरते हैं
सच कहूं तो मैं
ये डायरियां भी
तुम्हारे लिए ही लिखती हूँ
कि जब न रहूँ मैं
तो शायद तुम इनको पढ़ लो
और जो तुम मुझे
अब नही समझ पाये
कम से कम मेरे बाद ही
मुझे समझ लो ।
जानती हूँ कि उस समय
तुम्हें अकेलापन बहुत खलेगा
लेकिन सच मानो कि
मेरी डायरी के ज़रिये
तुम्हें मेरा साथ हमेशा मिलेगा ।

बस एक बार कह देना कि
ज़िन्दगी में तुमने मुझे पहचाना नहीं
फिर मुझे तुमसे कभी
कैसा भी कोई शिकवा - गिला नहीं ।

चलो आज यहीं बात ख़त्म करती हूँ
ये सिलसिला तो तब तक चलेगा
जब तक कि मैं नही मरती हूँ ।
मुझे लगता है कि तुम मुझे
मेरे जाने के बाद ही जान पाओगे,
और शायद तब ही तुम
मुझे अपने करीब पाओगे ।
इंतज़ार है मुझे उस करीब आने का
बेसब्र हूँ तुम्हें समग्रता से पाने का
सोच जैसे बस यहीं आ कर सहम सी गई है
और लेखनी भी यहीं आ कर थम सी गई है.

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दोराहे

ज़िन्दगी की राहों में
हर कदम पर दोराहे मिले
चुनना मुश्किल होता है
की कौन सा रास्ता सही है ।

एक राह चुन कर जब
कदम गर बढ़ा दिया
दूसरी राह को फिर
भूल जाना सही है ।

कुछ कदम के फासले पर
हर बार ठिठक जाती हूँ
कि कौन सी राह मुझे
मंजिल तक ले जायेगी ।

मंजिल भी है तो कौन सी
जिसका कुछ पता ही नही है
राह पर चलते चलते
सोचती हूँ ये अक्सर
कि ये राहें भी तो मुझे
कब - कहाँ ले जायेंगी ?

राहों में मिलते हैं
लोग बहुत से
कब किसको थामा
ये पता ही नही है ।
मालूम है तो बस
एक बात कि-
जिसको भी लिया साथ
इस ज़िन्दगी में
किसी मोड़ पर भी मैंने
उसे कभी छोड़ा नही है ।
गर छूट गया साथ
कभी मुझसे किसी का
तो जान लेना की अब
मुझमे कोई ज़िन्दगी बाकी नही है।

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मन का परिंदा

बहुत दिनों तक मेरे मन का परिंदा
सोने के पिंजरे में कैद रहा
आज अचानक ही उसने
अपने पंख फड़फड़ाए
और पिंजरे से आजाद हो गया।

पंखों में हवा भर
एक लम्बी उड़ान ली
और ऐसा लगा कि
जैसे क्षितिज छू आना चाहता है ।
इस परिंदे को मैंने जैसे
अपने आप में कैद कर रखा था
न मैंने कभी उसकी ख्वाहिशें पूछीं
और न ही कभी उसे कुछ ख़ुद बताने दिया
बस वक्त - बेवक्त उसे दाना - पानी देती रही
और सोचती रही कि यही ज़िन्दगी है ।

आज मेरा मन
जैसे नीले गगन में
बादलों के साथ
लुका - छिपी खेलना चाहता है।

मुझे डर है कि कहीं फिर
इस परिंदे को पकड़
कोई इसे पिंजरे में डाल देगा
जो इसे खुला आसमान मिला था
फिर से छिन जायेगा
और ये परिंदा
अपनी निर्निमेष आंखों से
पिंजरे के बाहर झांकता रह जायेगा .

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ग़ज़ल

इस कदर पीड़ा मिली कि
अश्क मोती बन गए
रुखसार पर ढलने से पहले
पलकों पर थम गए।

चाहतें जो भी मिलीं
वो अधूरी आस थी
तेरी चाहत के लिए
हम हद से गुज़र गए।

तोहफा तेरी वफाई का
रखा है दिल के करीब
तेरी वफ़ा कि आंच से
ये आंसू भी पिघल गए ।

आज जैसी ख्वाहिशों को
तरसती थी साल दर साल
इन ख्वाहिशों के लिए
वक्त के कारवां गुज़र गए ।

रात भर बैठा किए
और बातें करते रहे
तुम ग़ज़ल कहते गए
और हम ग़ज़ल हो गए .

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विश्वास

विश्वास ,
यह शब्द कह कर
इंसान यह बता देता है
कि कहीं न कहीं
उसके जेहन में
अविश्वास है।

इंसान
ख़ुद ही शक पैदा करता है
और अपनी इस कमजोरी को
दूसरों पर
आरोपित कर देता है
यह कह कर कि
तुमने -
मेरे विश्वास को तोडा है ।
ये विश्वास क्या है?
मेरी नज़र में
अपने विश्वास पर
अति विश्वास
अन्धविश्वास है
और ,
शक की ज़रा सी दरार
विश्वासघात है ।
फिर इन्सान
अपने से अधिक यकीं
दूसरों पर क्यों करता है ?

अपने यकीं पर यकीं रखोगे
तो
न अन्धविश्वास होगा
और न ही
विश्वासघात.

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अर्धनारीश्वर

>> Wednesday, September 17, 2008

स्त्री - पुरूष
समान रूप से
एक दूसरे के पूरक
सुनते आ रहे हैं
न जाने कब से
लेकिन क्या सच में ही
दोनों में कोई समानता है?

एक के बिना
दूसरा अधूरा है ।
फिर भी कई मायनों में
पुरूष पूरा के पूरा है
अर्धांगनी नारी ही कहाती है।

पुरूष बलात
अपना हक जताता है
और नारी अपने मन से
समर्पित भी नही हो पाती है

नारी भार्या बन
सम्मानित होती है
माँ बन कर
गौरवान्वित होती है
लेकिन जब
परित्यक्ता होती है तो
लोलुप निगाहें बिंध डालती हैं
उसकी अस्मिता को
और कोई
बलात्कार से पीड़ित हो तो
सबके लिए घृणित हो जाती है
यहाँ तक कि
ख़ुद का दोष न होते हुए भी
अपनी ही नज़रों से गिर जाती है ।
सामाजिक मूल्यों
खोखले आदर्शों
और थोथे अंधविश्वासों के बीच
नारी न जाने कब से
प्रताडित और शोषित
होती आ रही है

आज नारी को ख़ुद में
बदलाव लाना होगा
उसको संघर्ष के लिए
आगे आना होगा
पुरूष आकर्षण बल से
मुक्त हो
ख़ुद को सक्षम बनाना होगा ।
और फिर एक ऐसे समाज की
रचना होगी
जिसमें नर और नारी की
अलग - अलग नही
बल्कि सम्मिलित संरचना
निखर कर आएगी
और यह कृति
अर्धनारीश्वर कहलाएगी .

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ज़रूरी बनाम मजबूरी

>> Monday, September 15, 2008

इन्सान की ज़िन्दगी
सुख और दुःख से भरी
सुख क्षणिक मात्र
दुःख की अवधि बड़ी ।
हर इंसान अपने दुःख को बड़ा
और दूसरे के दुःख को
हल्का समझता है
उसके जितना कोई
व्यथित प्राणी नही
यही मान लेता है।
पर क्या तुमने कभी
ख़ुद से बाहर निकल कर देखा है ?
देखो --
ज़रा अपने नेत्र खोलो
अपने आस - पास दृष्टि दौडाओ
तुम पाओगे कि
दुःख तो चारों ओर फैला है।
तुम कहीं से लाचार नही हो
फिर भी लाचारी ओढ़ते हो
जो दुःख तुमने पाले हैं
उनके बीज भी ख़ुद ही बोते हो ।
और फिर अपने आंसुओं से
बीजों को सींचा भी करते हो
फल - फूल जाते हैं वो बीज
तो फिर और अधिक रोते हो ।

देखो -
उस बालक को
जिसके पाँव नही
पाँव के नीचे पटरी लगी है
हाथों से ठेल वो
अपनी ज़िन्दगी की गाड़ी
खींच रहा है
और , लोगों के सामने
मुस्कुराता हुआ गीत गा रहा है
क्यों ?
क्यों की ये उसके लिए ज़रूरी है।

और तुम ,
हर तरह से भरे - पूरे
पूर्ण रूप से सक्षम
फिर भी दुःख का
जैसे अधिकार लिए
दुखी प्राणी बने
ख़ुद से जूझते हुए
व्यर्थ की चिन्त्ताओं से घिरे
ख़ुद को व्यथित करते हुए
तुमने यातनाओं को ओढ़ लिया है
क्यों ?
क्यों कि ये शायद तुम्हारी मजबूरी है .








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आस्तित्व

जब आया पैगाम मेरी मौत का मेरे पास
कहा मैंने ठहर अभी उसका ख़त आएगा
गर ठहर तू जायेगी कुछ देर और
तो क्या धरा पर भूचाल आ जायेगा ।

हंस कर बोली यूँ मुझसे मौत तब
ज़िन्दगी हो गई है अब तेरी पूरी
चाह तेरी निकली नही अब तलक
भटक रही है क्यों तू लिए आशा अधूरी ।

छोड़ दे ये अधूरी आस तू
मत भटक अब इस संसार में
ज़िन्दगी के क्षण तुझे जितने मिले
बिता दिए तुने उन्हें बस प्यार में ।

आई थी जब अकेली इस संसार में
कोई भी बंधन तुझसे नही जुडा था
बंध गई तू इन सांसारिक बंधनों से
कि तुझ पर झूठा आवरण एक पड़ा हुआ था ।

जब असलियत " मैं " आ गई सामने तेरे
अब भी तुझे एहसास नही होता है
काट दे इन सांसारिक बंधनों को
कि इंसान का बस यही आस्तित्व होता है.

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आस्तीन के साँप

तुम अमृत हो
तुम विषपान करो
विष को अन्दर ही रहने दो
विष को उगलने के लिए तो
बहुत से विषधर हैं
उनको विष उगलने दो
तुम अमृत बरसाओ
उस वर्षा से
विषधर के भी
विषदंत टूट जायेंगे
हम -
आस्तीन के सौंप
तुम आस्तीन मत धारो
फिर सौंप
आस्तीन में नही पल पायेंगे
दृष्टिकोण बदलो
कुछ नई चेतना लाओ
विष कहते कहते तो
अमृत भी विष हो जायेगा
तुम अमृत हो
तुम विषपान करो

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खाली हाथ

खुली आँख से
बस एक शून्य
नज़र आता है ।
दम तोड़ता श्वास
लरजता कांपता सा उच्छ्वास
नज़र नही आता
एक भी विश्वास ।

ज़िन्दगी जैसे ,
बिखर सी गई है
वक्त है कि
मेहरबान हो कर भी
मेहरबान नही है
बिखरी चाहतें भी
शायद यहीं कहीं हैं
सब कुछ पास रहते हुए भी
कुछ भी पास नही है ।

इसी को जीना कहते हैं
शायद ज़िन्दगी यही है ।
बंद आंखों में बस
एक सपना है
बस -
वही केवल अपना है
सपने में सारी चाहतें
मैंने पा ली हैं
हकीकत में मेरा
पूरा का पूरा हाथ खाली है .

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परदा

>> Sunday, September 14, 2008

हम सभ्य कहाते हैं ,

और सभ्य समाज में रहते हैं

सभ्यता दिखाने के लिए ही

अपने छोटे -बड़े घरों को

परदे से ढके रखते हैं ।

हर खिड़की और दरवाज़े पर

परदा टंगा होता है

किसी को भी बिना इजाज़त

अन्दर आना मना होता है ।

हम अपने घर की बातें छिपाते हैं

और इसीलिए शायद परदा लगते हैं

जिनके घर में गर परदे नही होते

उन्हें हीन दृष्टि से देखते हैं

सोचते हैं कि कैसे बेशर्म हैं ये लोग

कि ये परदा भी नही करते हैं।

पर मैं जानती हूँ

कि ये लोग

जो दर औ दीवार पर

परदा लगाते हैं

वो परदे का अर्थ ही नही जानते हैं।

गर सच ही जानना चाहते हो

कि परदा क्या है -

तो चलो मेरे साथ

गाँव के उस सुदूर

आदिवासी इलाके में

जहाँ कहीं कोई परदा नही होता

एक छोटा सा चीथडा ही

स्त्री का अधोवस्त्र कहाता है

बाकी बदन

निर्वसन होता है ।

उन्हें उसमें कोई शर्म नही आती

क्यों कि यही वहाँ का चलन होता है

वहां सब एक सी ज़िन्दगी जीते हैं

मात्र चावल का मांड पीते हैं ।

कच्चे घरों में दरवाज़े नही होते

पर टाट के टुकड़े लगा

घर की इज्ज़त ढकते हैं।

असल में यही उनका परदा है

और झुकी पलक उनकी शर्म है

सोचती हूँ कभी कभी कि -

कैसी विसंगति है हमारे समाज में

और कैसा हमारा धर्म है ..

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तासीर नीम की

>> Thursday, September 11, 2008

मैंने एक दिन
नीम के पेड़ से पूछा
कि भाई -
तुम कड़वे क्यों हो ?

उसने मेरी तरफ़
आश्चर्य से देखा
मैं उसकी ओर ही
निहार रही थी
उसके उत्तर के लिए
मैं प्रतीक्षारत थी ।

मुझे लगा कि
उसके सारे अस्तित्व में
एक व्याकुलता भर गई है ।
उसकी पत्ती - पत्ती जैसे
व्यथित हो गई है ।

आकुल हो तब वह बोला -
हाँ ! मैं कड़वा हूँ।
लेकिन तब ही तो तुम
दूसरे तत्वों में
मीठे का अहसास
कर पाते हो ।
मैं कितने रोगों की दवा हूँ
तभी तो तुम जी पाते हो ।

ज़रा तुम मेरे फूल -फल और पत्ते खाओ
और फिर तुम कहीं का भी पानी लाओ
और उसे पी कर बताओ
कि वो पानी कैसा है ?
शर्त के साथ कहता हूँ कि
वो तुमको मीठा ही लगेगा ।

तो हे मेरे प्रश्नकर्ता !
मैं ख़ुद को कड़वा रखता हूँ
लेकिन दूसरे की तासीर
मीठी कर देता हूँ।

यह सुन मैं सोचती हूँ
कि शायद सच भी
इसीलिए कड़वा होता है.

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घृणा

>> Wednesday, September 10, 2008

एक दिन
उसने मुझसे कहा कि
मुझे तुमसे
बहुत घृणा है ।
यह सुन मैं
स्तंभित रह गई
ऐसी कटु अभिव्यक्ति
हमारे बीच कब आ गई ?

मैं सोचती रही
रात औ दिन
सुबह- शाम
आठों पहर
चलता रहा
मन में मंथन
पर कोई
हल नही निकला
न तो कोई रत्न मिला
और न ही विष ।

वक्त गुज़रता रहा
अचानक यूँ ही
एक दिन
मन और मस्तिष्क के
कपाट खुल गए
और मेरे सारे प्रश्नों के
सब हल मिल गए ।
तब मैं यह जान गई कि -
जहाँ अधिक घनिष्ठता होती है
वहीँ घृणा जन्म लेती है
तब से मैं
घनिष्ठता से डरती हूँ
क्यों कि मैं कभी भी
किसी की घृणा नही सह सकती हूँ .

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माँ ! मुझे जन्म दो / रचयिता सृष्टि की


माँ के गर्भ में साँस लेते हुए
मैं खुश हूँ बहुत
मेरा आस्तित्व आ चुका है
बस प्रादुर्भाव होना बाकी है।

मैं माँ की कोख से ही
इस दुनिया को देख पाती हूँ
पर माँ - बाबा की बातें समझ नही पाती हूँ
माँ मेरी सहमी रहती हैं और बाबा मेरे खामोश
बस एक ही प्रश्न उठता है दोनों के बीच
कि परीक्षण का परिणाम क्या होगा ?
आज बाबा कागज़ का एक पुर्जा लाये हैं
और माँ की आँखों में चिंता के बादल छाये हैं
मैं देख रही हूँ कि माँ बेसाख्ता रो रही है
हर बार किसी बात पर मना कर रही है
पर बाबा हैं कि अपनी बात पर अड़े हैं
माँ को कहीं ले जाने के लिए खड़े हैं
इस बार भी परीक्षण में कन्या- भ्रूण ही आ गया है
इसीलिए बाबा ने मेरी मौत पर हस्ताक्षर कर दिया है।

मैं गर्भ में बैठी बिनती कर रही हूँ कि-
बाबा मैं तुम्हारा ही बीज हूँ-
क्या मुझे इस दुनिया में नही आने दोगे?
अपने ही बीज को नष्ट कर मुझे यूँ ही मर जाने दोगे?

माँ ! मैं तो तुम्हारा ही प्रतिरूप हूँ , तुम्हारी ही कृति हूँ
तुम्हारी ही संरचना हूँ , तुम्हारी ही सृष्टि हूँ।
माँ ! मुझे जन्म दो, हे माँ ! मुझे जन्म दो
मैं दुनिया में आना चाहती हूँ
कन्या हूँ ,इसीलिए अपना धर्म निबाहना चाहती हूँ।
यदि इस धरती पर कन्या नही रह पाएगी
तो सारी सृष्टि तहस - नहस हो जायेगी ।

हे स्वार्थी मानव ! ज़रा सोचो-
तुम हमारी शक्ति को जानो
हम ही इस सृष्टि कि रचयिता हैं
इस सत्य को तो पहचानो.

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बंद दरवाजा

>> Monday, September 8, 2008

इधर और उधर के बीच
बंद दरवाजा है /
दरवाज़े पर /
हर क्षण
हल्की - हल्की /
थपथपाहट का एहसास /
इधर ज़िन्दगी की साँसे
हल्की या बोझिल ।
बंद दरवाज़े के इधर
तुम हर पल अपना लो
हर क्षण /
अपना बना लो ।
न जाने कब /
हवा के झोंके से
यह दरवाजा खुल जाए ।
और उधर अनंत में ,
देखते हुए हम /
केवल किवाड़ के पल्ले
हिलते देखते रह जाएँ.

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धुआं बनाम ज़िन्दगी

ज़िन्दगी ,
धुआं बनती जा रही है
कब तक तुम उसे
मुट्ठी में बांधने का प्रयास करोगे ?

बंधी मुट्ठी में तुम्हे लगेगा
कि शायद ज़िन्दगी बाकी है
जब भी खोलोगे मुट्ठी तो
मात्र एक जलन का एहसास लिए
खाली हाथ देखते रह जाओगे।

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ईर्ष्या

>> Monday, September 1, 2008

ये रिश्ता बहुत प्यारा है
जहाँ एक दूसरे पर
अधिकार हमारा - तुम्हारा है ।

इसी विश्वास पर
सारी उम्र तमाम होती है
नाज़ुक से रिश्ते की
उम्र बड़ी कम होती है।

मुझ पर जो तुम
इतना अधिकार जताते हो
मेरी हर साँस पर भी
जैसे पहरा लगाते हो
मैं ज़रा सा हंस कर
बोल लूँ किसी से
तो तुम -
धुआं - धुआं हुए जाते हो ।

ये आदत तुम्हारी
मुझे रास भी आती है
पर कभी कभी ये
मन की
फांस भी बन जाती है ।
जो तुम मुझे इतना चाहते हो
तो मुझ पर फिर विश्वास
क्यों नही कर पाते हो ?
चाहत के फूलों के बीच
न जाने कैसे - कैसे
कांटे बिछाते हो ।

मानती हूँ कि चाहत जितनी गहरी हो
ईर्ष्या भी साथ ही होती है
पर जब बंधन में जकड  लेते हो
तो हर इच्छा बड़ी रोती है

ना चाहो इस कदर कि
ज़िंदगी ही बेहाल हो जाए
तुम्हारी ऐसी चाहत से कहीं
जीना भी मुहाल हो जाए .

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ज़रूरत नही है

प्यार के वर्णो को कभी जाना नही
प्यार कि परिभाषा को भी पहचाना नही
इसीलिए मुझे -
प्यार पढ़ने की ज़रूरत नही है।

ना मुझे मुहब्बत का मालूम है
और ना ही इश्क़ का पता है
इसीलिए मुझे -
मुहब्बत जताने की ज़रूरत नही है ।

दिल की धड़कने धड़कती हैं बस
उन्होने मुझसे कभी कुछ कहा ही नही
इसीलिए मुझे -
धड़कनो को भी सुनने की ज़रूरत नही है ।

अगले जन्म के ख्वाबों में रह कर भी
शायद रूह बदलती नही हैं
इसीलिए --
पुन: जन्म की भी कोई अहमियत नही है ।
चाहूं किसी को या ना चाहूं मैं
ये मेरी किस्मत ही सही
पर कोई मुझे चाहे-
इसकी मुझे कोई आरज़ू नही है ।

हक़ीक़त में जीती हूँ लेकिन फिर भी
ख्वाबों की दुनिया में खुश हूँ बहुत मैं
पर इन ख्वाबों में --
आने की किसी को इजाज़त नही है ।

गुम हैं सारे रास्ते जो मुझ तक आते हैं
कोई रास्ता भी मुझ तक पहुँचता नही है
इसीलिए इन रास्तों पर -
कदम बढ़ाने की किसी को ज़रूरत नही है ।
पत्थर हूँ मैं , ये मैं जानती हूँ
और मुझे पिघलना भी आता नही है
इसीलिए-
इस पत्थर को तराशने की ज़रूरत नही है ।

अब तलक मैने यूँ ही ज़िंदगी जी ली है
और अब जो लम्हे बाकी हैं
इस बची ज़िंदगी में -
कुछ भी पाने की ख्वाहिश नही है.

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दोस्ती का एक दिन

कल अचानक ही

इस नेट की दुनिया ने

मेरे ज्ञान चक्षु खोल दिए

और मुझे पहली बार ही

पता चला कि --

साल भर में एक दिन

दोस्ती का भी होता है

शायद बाकी दिन

लोग दुश्मनी निबाहते हैं


ये पश्चिमी सभ्यता

भारतीय संस्कृति पर

कैसा कब्जा जमा रही है

दोस्ती के साथ साथ

माँ - बाप के लिए भी

साल में एक एक दिन

मना रही है


सोचती हूँ कि -

क्या कोई पश्चिमी देश

ऐसी दोस्ती निभा पायेगा ?

जो भारतियों ने निबाही है

दोस्ती की खातिर

अपनी जान तक गँवाई है


हमारे देश में दोस्ती के नाम से

इतिहास भरा पड़ा है

पांडवों का भाई होते हुए भी

कर्ण , दुर्योधन के साथ खड़ा है

द्रोपदी के साथ थे कृष्ण

जिन्होंने पग - पग पर दोस्ती निबाही थी

भरी सभा में उन्होंने ही

उसकी लाज बचाई थी


आज हम दोस्ती को भी

एक व्यवसाय समझ लेते हैं

जहाँ कुछ फायदा होता है

वहीँ दोस्ती कर लेते हैं

क्या कोई कृष्ण - सुदामा जैसी

दोस्ती निबाह पायेगा ?

बिना मांगे अपने दोस्त लिए

सब कुछ न्योछावर कर पायेगा ?


दोस्ती का झरना तो

हमारे देश में बहता है

वो चंद लफ्जों का मोहताज़ नहीं

ऐसा मुझे लगता है

इसीलिए कहती हूँ --

फ्रेंडशिप डे और वीक में

दोस्ती को मत बांधो

दोस्ती को दोस्ती रहने दो

इन चीज़ों में मत अंको

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हमारी वाणी

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