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अकेलापन

>> Thursday, November 13, 2008


जब मैं इस संसार में न रहूँ तब मेरे हमसफ़र की शायद ऐसी सोच हो...............
जब ज़िन्दगी थकने लगती है
और मन टूटने लगता है
तब मुझे तुम्हारी नजदीकी
बहुत याद आती है ।
बसीं थीं तुम मेरी साँसों में
पर उन साँसों को मैंने
शायद कभी पहचाना नही
तुम्हारे अपनेपन को भी
मैंने कभी अपना माना नही
आज नितांत एकांत में
जब तेरी याद मुझे आती है
मैं ढूंढता रह जाता हूँ
तू मुझे बहुत सताती है ।
उम्र के इस पड़ाव पर
बहुत मुश्किल होता है
अकेले वक्त बिताना
हर खुशी हो चाहे घर में
पर नही मिलता मेरे मन को
कोई भी ठिकाना ।
आज मन ढूंढता है तेरा सानिध्य
पर नही पा सकता ये जानता हूँ
बीते पलों में भी चाहूँ कुछ ढूंढ़ना
पर नही मिलेगा ये मानता हूँ.

3 comments:

vijay kumar sappatti 11/23/2008 8:52 PM  

संगीता जी ,

इस बार तो कमाल कर दिया . old age में होने वाली मानसिक अवस्था का बहुत अच्छा वर्णन है . और आपकी रचना इसी बात को इंगित करती है . पर हम सब इस बात से जीवन भर अज्ञान रहतें है ... बहुत अच्छी रचना .. मन को छु गई ....

बहुत बहुत बधाई

विजय

Note : pls visit my blog : www.poemsofvijay.blogspot.com , इस बार कुछ नया लिखा है ,आपके comments की राह देखूंगा .

Anonymous,  11/27/2008 1:01 AM  

sahi kaha di!hmen apno ka ehsaas unke jane ke baad hi hota hai

Apanatva 1/26/2010 9:59 PM  

mai sahmat nahee hoo....ise baat se............
haa ye jaroor hota hai ki kai vyaktee extrovert nahee hote.............:)

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