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ठंडी राख

>> Monday, December 29, 2008

ज़िन्दगी बस धुँआ सी बन गई है
शोले भी राख में बदल गए हैं
साँसे भी रह - रह कर चल रही हैं
धड़कन ही कहती है कि हम जी रहे हैं ।

जीने के लिए भी तो
कोई चिंगारी होनी चाहिए
चिंगारी ढूँढने के लिए
राख को ही कुरेदना चाहिए।

ज़रा सा छेड़ोगे गर हमे तो
गुबारों की तो कोई कमी नही है
हम हैं यहाँ की आम जनता
जिसे व्यवस्था से कोई सरोकार नही है।

सोचने के लिए वक्त की कमी है
हर ढंग में रच -बस से गए हैं
काम निकालना है बस कैसे भी
इस रंग में ही सब रंग से गए हैं ।

चिंगारी भी कोई भड़कती नही है
सब राख का ढेर से हो गए हैं
इसको कुरेदो या पानी में बहा दो
सब यहाँ मुर्दे से हो गए हैं ।

गर आती है जान किसी मुर्दे में
तो उसे फिर से मार दिया जाता है
शोला बनने से पहले ही चिंगारी को
ठंडी राख में बदल दिया जाता है.

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राहें


तड़प के रह जाता है

मन मेरा

जब कोई मुझसे

मेरा पता पूछता है ।

सोचती हूँ कि

कह दूँ -

अपने दिल के आईने में

झाँक कर देख लो ।


पर हर शख्स के

दिल में आईने

नही होते

जो मैं ख़ुद को भी

तलाश सकूँ वहाँ पर।


पूछने वाले

अक्सर पूछ लेते हैं

और मैं हमेशा

हंस कर कह देती हूँ कि

इसकी ज़रूरत क्या है?


क्यों कि मैं जानती हूँ कि

मुझे आज भी शायद

ज़िन्दगी की राहों पर

ठीक से चलना नही आता

और राहें भी शायद

मुझ तक पहुँच नही पाती हैं।

इसीलिए किसी का भी

मुझ तक पहुंचना

नामुमकिन सा होता है.

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नीला आसमान

>> Wednesday, December 24, 2008





मैं -


आसमान हूँ ,


एक ऐसा आसमान


जहाँ बहुत से


बादल आ कर


इकट्ठे हो गए हैं


छा गई है बदली


और


आसमान का रंग


काला पड़ गया है।



ये बदली हैं


तनाव की , चिंता की


उकताहट और चिडचिडाहट की


बस इंतज़ार है कि


एक गर्जना हो


उन्माद की


और -


ये सारे बादल


छंट जाएँ



जब बरस जायेंगे


ये सब तो


तुम पाओगे


एक स्वच्छ , चमकता हुआ


नीला आसमान.

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सच क्षितिज का........

>> Sunday, December 21, 2008


द्वंद्व में घिरा मन
कब महसूस कर पाता है
किसी के एहसासों को ?
और वो एहसास
जो भीगे - भीगे से हों
मन सराबोर हो
मुहब्बत के पैमाने से
लब पर मुस्कराहट के साथ
लगता है कि -
प्यार के अफ़साने
लरज रहे हों।
नही समझ पाता ये मन -
कुछ नही समझ पाता ,
ख़ुद के एहसास भी
खो से जाते हैं
सारे के सारे अल्फाज़
जैसे रूठ से जाते हैं
कैसे लिखूं
अपने दिल की बात ?
न मेरे पास
आज नज़्म है , न शब्द
और न ही लफ्ज़
खाली - खाली आंखों से
दूर तक देखते हुए
बस क्षितिज दिखता है ।
जिसका सच केवल ये है कि
उसका कोई आस्तित्व नही होता ।

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अन्तिम और प्रथम कील - 2





मेरी इच्छाएं,

उम्मीद , भावनाएं

और अनुभव

सब शांत थे ताबूत में।

पर सोच थी ,

कि -

वक्त - बेवक्त

सर उठा लेती थी

और मजबूर कर देती थी

ये सोचने के लिए

कि आख़िर सब

क़ैद क्यों हैं ?

कब तक

निश्छल से पड़े रहेंगे

ये सब ?


आत्ममंथन करते करते

अचानक आभास हुआ

कि ये तो

पलायन है ज़िन्दगी से ------

ज़िन्दगी में सारे तोहफे

तुम्हें अच्छे मिलें

ये ज़रूरी तो नही....

तोहफा चाहे जैसा हो

बिना मांगे मिलता है।

इसलिए श्रद्धा से

स्वीकार करना चाहिए ।


बस इस सोच ने

मजबूर कर दिया मुझे

उस कील को निकालने के लिए

जो अंत में ठोकी थी मैंने

और बन गई वो

उखाडी हुई पहली कील .....




आखीरी और पहली कील ..... / भाग -- 1


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आखिरी और पहली कील

>> Thursday, December 18, 2008


मैंने ---

अपनी सारी भावनाओं ,

सोच , इच्छा ,

उम्मीद और अनुभवों को

कैद कर दिया है

एक ताबूत में ,

और

ठोक दी है उसमें

एक अन्तिम कील भी ।


अब तुम चाहो तो

दफ़न कर सकते हो

ज़मीन के अन्दर

और न भी करो तो

कोई फर्क नही पड़ता ।


अब इनका बाहर आना

नामुमकिन है ,

बस ---

मुमकिन होगा तब ही

जब मैं ख़ुद

उखाड़ दूँ

इस ताबूत की

पहली कील को ।



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वक्त



मैंने -

छोड़ दिया है

ख़ुद को

वक्त के

बेरहम हाथों में ।

चाहती हूँ देखना कि

कितनी बेरहमी करता है

ये वक्त मेरे साथ?

कभी तो थकेगा

वक्त भी ?

उस समय मैं पूछूंगी

वक्त से ---

कि क्या तुम वही वक्त हो????

लेकिन मुझे मालूम है

कि इस प्रश्न का उत्तर

उसके पास नही होगा ।

क्यों --?

क्यों कि शायद

वक्त कभी नही थकता .

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विश्वास का उजास

>> Wednesday, December 17, 2008


रात कुछ गहरा सी गई है
शहर भी सारा सो सा रहा है
अचानक आता है -
कोई मंजर आंखों के सामने
ऐसा लगता है कि -
कहीं कुछ हो तो रहा है।


सडकों के सन्नाटे में ये
हादसे क्यूँ कर हो रहे हैं ?
प्रगति के साथ - साथ ये
इंसानियत के जनाजे
क्यूँ निकल रहे हैं ?


मनुजता को ही त्याग कर तुम
क्या कभी मनुज भी रह पाओगे?
जाना है कौन सी राह पर ?
क्या मंजिल को भी ढूंढ पाओगे?


भटक गए हैं जो कदम हर राह पर
उन्हें तो तुमको ही ख़ुद रोकना पड़ेगा
रूको और सोचो ज़रा देर -
सही मार्ग तुमको ही चुनना पड़ेगा।


कोई नही है यहाँ उंगली थामने वाला
क्यों कि हाथ तो तुम ख़ुद के काट चुके हो
ठहरो ! और देखो इस चौराहे से
सही राह क्या तुम पहचान चुके हो ?


गर राह सही होगी तो सच में
सोया शहर भी एक दिन जाग जायेगा
गहरी हो रात चाहे जितनी भी
मन में विश्वास का उजास फ़ैल पायेगा.



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दिल की बात

>> Sunday, December 14, 2008


दीवारों से मैंने अपना
कलाम कह दिया है ,
मैंने सुना है कि
दीवारों के कान होते हैं।
कलाम भी क्या ?
बस यूँ ही
दिल की बात है
हवाएं भी आज - कल कुछ
भीगी - भीगी सी लग रही हैं।
सोच को तो जैसे
पंख लग गए हैं
आसमान के चाँद से
कुछ गुफ्तगू हो रही है।
चाँदनी मुस्कुरा के
कह गई है कानों में
ख्यालों की दूब पर
शबनम बिखरी हुई है।
मोती जो शबनम के मैंने
समेटे अपनी झोली में
धागे में पिरो जैसे
वो एक कविता सी बन गई है।
इस कविता को भी मैं अब
किसको और क्यूँ कर सुनाऊँ
इसिलए मैंने वो सब
दीवारों से कह दिया है।
चाहा - अनचाहा सारा
जज्ब कर लेंगी वो शायद
मैंने तो यूँ कह कर बस
अपना मन हल्का कर लिया है.

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कश्मकश

>> Saturday, December 13, 2008



यूँ ही चले थे दो कदम तुम्हारे साथ

मंजिल तमाम उम्र हमें ढूँढती रह गई है।


सोचो में तुम , ख्वाहिशों में तुम , ख़्वाबों में तुम

ज़िन्दगी की हर राह जैसे उलझ सी गई है।


उलझन ही होती तो शायद सुलझा भी लेते ,

हर चाह ज़िन्दगी की मध्यम पड़ गई है ।


यूँ तो आसमान के चाँद को सबने चाहा है पाना

पर उस तक की दूरी एक हकीकत बन गई है।


सागर के साहिल पे खड़ी सोचती हूँ अक्सर

लहरों का आना - जाना ही ज़िन्दगी बन गई है।


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जा रहे हो कौन पथ पर.....??????

>> Tuesday, December 9, 2008


ज्ञान चक्षु खोल कर
विज्ञान का विस्तार कर
जा रहे हो कौन पथ पर
देखो ज़रा तुम सोच कर।

कौन राह के पथिक हो
कौन सी मंजिल है
सही डगर के बिना
मंजिल भी भटक गई है।

अस्त्र - शस्त्र निर्माण कर
स्वयं का ही संहार कर
क्या चाहते हो मानव ?
इस सृष्टि का विनाश कर ।

विज्ञान इतना बढ़ गया
विनाश की ओर चल दिया
धरा से भी ऊपर उठ
ग्रह की ओर चल दिया ।

हे मनुज ! रोको कदम
स्नेह से भर लो ये मन
लौट आओ उस पथ से
हो रहा जहाँ मनुष्यता का पतन।

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