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घरौंदा

>> Sunday, April 25, 2010




गम की तपिश हो


या सोचों का बवंडर हो


शोला हो मन का


या आंखों का समंदर हो ,



डूब जाता है जैसे सब


जब तैरना भी आता हो


मंझदार नही मिलती


किनारे पर चला आता हो ।



डूबना भी क्या डूबना


जो गहरे पानी में डूबा हो


डूबो तो वहां जा कर


जहाँ पानी का निशां न हो ।



ये सोचता है मन मेरा कि


हर दिल रेत का घरौंदा है


अचानक किसी लहर ने आ कर


जैसे इस घरौंदे को रौंदा है।



फिर बनाते हैं घरौंदा हम


अपने ही हाथों से


जान भी डालते हैं जैसे


अपनी ही साँसों से ।



हर लहर से टकरा कर जैसे


मेरा ख्वाब लौट आता है


ये घरौंदे और लहर का


कुछ ऐसा ही नाता है ।



निर्निमेष आंखों से फिर मैं


आकाश निहारा करती हूँ


शून्य में न जाने क्यों मैं


ख़ुद को तलाशा करती हूँ.






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कैसे मन मुस्काए

>> Wednesday, April 21, 2010





रोटी समझ चाँद को 
बच्चा मन ही मन ललचाए
आशा भरकर वो यह देखे
माँ कब रोटी लाए
दशा देखकर उस बच्चे की
कैसे मन मुस्काए |
 


घर के बाहर
चलना दूभर
साँस सभी की
नीचे ऊपर
काँप रहा
उसका दिल थर-थर
मन बेहद घबराये
ऐसे आतंकी साये में
कैसे मन मुस्काए |


 
हुआ धमाका
बम का जब - जब
बढ़ी वेदना
मन में तब - तब
लहूलुहान हुए लोगों का
खून छितरता  जाये
इन दृश्यों को देख भला
फिर कैसे मन मुस्काए ?




आंच पर समीक्षा 
http://manojiofs.blogspot.com/2010/05/blog-post_20.html




http://charchamanch.blogspot.com/2010/04/blog-post_22.html


नवगीत की पाठशाला 
http://charchamanch.blogspot.com/2010/05/143.html

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एक नया अंदाज़

>> Thursday, April 15, 2010

बहुत दिनों से कुछ लिखा नहीं जा रहा....बस  लगता है कि कुछ लिख ही नहीं पाउंगी...मन में आये भावों को कुछ टूटे शब्द दिए हैं....शायद फिर से कुछ लिख पाऊं ....




मन की


बेचैनियों ने


क़तर दिए हैं पंख


मेरी कल्पना के


उड़ने की


सारी कोशिशें


नाकाम हो रही हैं


दिखता है


सामने एक


विस्तृत आसमाँ


पर


उड़ने की क्षमता


ख़त्म हो रही है .






खूंटे से


बंधा मन


कुछ


सोच नहीं पाता है


सीमित दायरे में बस


घूमता रह जाता है


घूमते घूमते


ना जाने कब


टूटन समा जाती है


और ये


मेरी सोच पर


एक विराम


लगा जाती है .






लेखनी मेरी


सुप्त है


और शब्द


बिखरे हुए हैं


लगता है जैसे सब


खोये से हुए हैं .


कल्पना को


कहीं पंख भी


नहीं मिल रहे हैं


उड़ने की लालसा


बस एक


कल्पना बन गयी है






इंतज़ार है कि


फिर से


निकलेंगे पंख


एक नयी परवाज़ लिए


तब होगी


उड़ान शायद


एक नया अंदाज़ लिए ...

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तपती रेत

>> Sunday, April 11, 2010




दर्द  को पढ़ना अच्छा लगता है 
दर्द  को सोचना  अच्छा लगता है 
दर्द को मैं लिख नहीं पाती 
दर्द को जीना  अच्छा लगता है 
सोचती है दुनिया कि -
जब तक अश्क ना बहें  
तो दर्द नहीं होता है 
तड़पने  वाला सदा  ही 
अपने दर्द को रोता है 
पर ये दुनिया 
ये नहीं जानती कि 
तपती रेत में 
नमी नहीं होती 
अंगारे बरसते हैं
पर छाँव  नहीं होती 
पानी की चाह  में 
भटक जाती हूँ दर - ब दर 
पर लगता है जैसे मेरी 
कभी प्यास नहीं बुझती 
नेह का सागर भी 
मेरे सामने लहराता है 
पर खारा  है वो भी 
मुझे उसकी चाह नहीं होती 
एक मीठा सा झरना 
कहीं तस्सुवर  में आता है 
कल कल कर जैसे 
तन मन को  भिगो जाता है 
भीगी - भीगी सी खड़ी मैं 
यूँ  ही सोच लिया करती हूँ 
दर्द ज़माने भर का 
यूँ ही  पी लिया करती हूँ 
दर्द  से ना निज़ात मिली है 
और ना कभी  मिलेगी 
हँस - हँस  कर दर्दे - ग़म
ये ज़िन्दगी  सहेगी .


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आभासी दुनिया के वास्तविक रिश्ते

>> Wednesday, April 7, 2010



जी हाँ , आभासी दुनिया ..यानी कि काल्पनिक ...लेकिन काल्पनिक  जो पूरी तरह से काल्पनिक नहीं होती ..आज  मैं बात कर रही हूँ इस अंतरजाल पर बने रिश्तों की ..आज बात करना चाह रही हूँ शिखा  वार्ष्णेय  की .
शिखा से लेखन के ज़रिये सबसे पहली मुलाक़ात हुई ऑरकुट की "सृजन का सहयोग" कम्युनिटी पर ...उसके लेखन और मेरी सोच में कहीं न  कहीं साम्य नज़र आता था...जिज्ञासावश ऑरकुट का ही जब उसका प्रोफाइल  देखा तो लगा कि लन्दन  में रहने वाली लड़की से (मेरे लिए तो लड़की जैसी ही है ) बात  मात्र हैल्लो तक के परिचय तक ही सीमित रह जाएगी .....कहाँ मास्को  में शिक्षा प्राप्त शिखा  और कहाँ मैं उत्तर प्रदेश से पढ़ी हुई..:):) ..और फिर उम्र का अंतर तो था ही....
पर ना जाने कब और कैसे परिचय में प्रगाढ़ता  आती चली गयी .. उसके अपनेपन ने कब मुझे उसकी दीदी बना दिया और वो मेरी छोटी बहन बन गयी ...पता ही नहीं चला ..
इस अंतरजाल पर ही हमारी बातें और मुलाकातें होती रहीं ...अपने सुख - दुःख  सब आपस में कब और कैसे बांटने लगे ...एहसास ही नहीं है...
अभी जब उसको भारत आना था तो प्रबल इच्छा थी कि  एक बार मुलाक़ात हो जाये ....कुछ समय के लिए भारत आने वालों के पास समयाभाव होता है और दिल्ली में एक स्थान से दूसरे स्थान की दूरी भी कुछ कम नहीं होती ..
पर आज यह कहावत चरितार्थ हो ही गयी.....जहाँ चाह वहाँ राह ....
आज सुबह ११  बजे के करीब  शिखा का फ़ोन  आया कि ----  दी , आप घर पर हो ना , मैं आ रही हूँ आपसे मिलने............  आप स्वयं ही अनुमान लगा सकते हैं कि मेरी ख़ुशी का ठिकाना नहीं था...जल्दी जल्दी सारे काम निपटा कर बस इंतज़ार शुरू ..................जैसे पल - पल बीत ही नहीं रहा था...आखिर  पहली बार मिलने जा रहे थे .
खैर घर ढूँढते ढूँढते  ( हांलांकि  ज्यादा नहीं ढूंढना पड़ा ) जब शिखा मुझसे मिली  तो ऐसा लगा कि  ना जाने कितनी खुशियाँ एक साथ मेरी झोली में समाँ  गयीं हैं ...... करीब तीन घंटे हम साथ रहे ...हर पल जीवंत हो उठा था आप भी उन पलों के गवाह बनें  और आनंद लें ....


उन सीमित क्षणों में  ना जाने कितना कुछ कहने को था ........ये  आभासी रिश्ते  आज वास्तविकता के धरातल पर बहुत सुखद लग रहे थे .....बस आज इतना ही....



http://charchamanch.blogspot.com/2010/04/blog-post_07.html

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आज की ताज़ा खबर

>> Friday, April 2, 2010


चिलचिलाती धूप में



चीथड़े पहने हुए


चौराहे पर खड़ा


चौदह बरस का बालक


चिल्ला रहा था --


" आज की ताज़ा खबर


आज की ताज़ा खबर -


चौदह साल तक के


बच्चों को


शिक्षा का अधिकार


इसके लिए प्रतिबद्ध है


हमारी सरकार "


लाल बत्ती होते ही


हर कार की खिड़की से


झाँक कर कह उठता -


बाबू जी -


अखबार ले लो ना ...



लोग


हिकारत की नज़र से


देख


आगे बढ़ा देते थे


अपनी कार


और बालक


रह जाता था


कहता हुआ


बाबू -


ले लो ना अखबार


आज की ताज़ा खबर


शिक्षा का सबको अधिकार



http://charchamanch.blogspot.com/2010/04/blog-post_03.html

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थाने से बोल रहा हूँ .....

>> Thursday, April 1, 2010

भई आज कल बाजारवाद इतना बढ़ गया है कि हर दुकानदार अपने ग्राहकों को विशेष सुविधा प्रदान करता है .इसी वजह से आज कल प्रचलित है free home delivery की सुविधा. घर का कुछ भी सामान लाना है तो बस लिस्ट लिखा दीजिये और सामान आपके घर पर पहुंचा दिया जायेगा...तो भई हम जैसे लोगों को इस सुविधा से बहुत आराम हो गया है....राशन पानी सब ऐसे ही घर पहुँच जाता है...और अब तो सब्ज़ीवाले भी घर पर सब्जी पहुंचा देते हैं....इससे हम तो बहुत सुकून पाते हैं..क्यों कि कोई भी सामान उठा कर लाना हमारे वश की बात है नहीं तो बस फ़ोन पर आर्डर देते हैं और सामान घर पर आ जाता है...या फिर दुकान पर जा कर छांट - छूंट कर रख आते हैं...



अब कल की ही बात है कि हमें सब्जी मंगानी थी और दुकान तक जाने का मन नहीं था...शाम को फ़ोन पर आर्डर देना भी मुश्किल हो जाता है क्यों कि उस वक़्त ग्राहकों की संख्या ज्यादा होती है तो सब्जीवाला फ़ोन पर आर्डर लेता नहीं...तो हम बस इंतज़ार में थे कि कब पतिदेव शाम की सैर पर जाएँ और हम उनको लिस्ट थमा दें...ऐसे समय आवाज़ में ना जाने कहाँ से रस घुल जाता है...तो जैसे ही ये सैर के लिए जाने लगे मैंने कहा कि क्या आप सब्ज़ीवाले को लिस्ट दे आयेंगे? और एक बार में ही बिना ना- नुकर के इनकी हाँ सुन कर हम तो निहाल ही हो गए...लगा जैसे कोई जंग जीत ली हो . ..खैर लिस्ट दे दी गयी....और सब्जी भी रात को ९ बजे करीब घर पहुँच गयी..उस वक़्त रात के खाने की तैयारी के चक्कर में मैंने लिस्ट मिलाई नहीं और बस ऐसे ही सब समेट कर रख दी...हमेशा ये कहते हैं कि ज़रा देख लिया करो कि सामान सब आ गया या नहीं पर आदत से मजबूर उस समय लिस्ट मिलाई नहीं ...पूछने पर कह दिया कि हाँ सब ठीक है...


आज मन हुआ कि चलो ताज़ा कटहल मंगाया है तो आज ही बना लेती हूँ....अब फ्रिज में ढूंढ रहे हैं कटहल पर नहीं मिल रहा...लिस्ट में तो लिखा था....बुढापे में यादाश्त भी मरी कमज़ोर हो जाती है...खैर जब नहीं मिला तो सब्जी वाले को फ़ोन किया.....उधर से आवाज़ आई....हेल्लो ! थाने से बोल रहा हूँ.....ओह , ये रौंग नंबर भी ना ...फिर मिलाया फ़ोन.....फिर वही थाने से बोल रहा हूँ....


सोचा कि थोड़ी देर बाद करती हूँ फ़ोन अभी बार बार गलत ही मिल रहा है...और फिर इनसे भी तो छुप कर करना था फ़ोन नहीं तो पहले तो इनकी ही कितनी बात सुनने को मिलती कि चेक क्यों नहीं किया पहले...खैर....थोड़ी देर बाद फिर फ़ोन किया..तो फिर वही थाने जा लगा नंबर.... अब तो हम परेशान....इनसे कुछ कह नहीं सकते वरना बड़ी बेभाव की पड़ती...सो खुद ही दुकान तक जा कर बात करने में भलाई समझी.....मन ही मन सोच रहे थे कि ज़रूर सब्ज़ीवाले ने कुछ किया है जो इसको पुलिस पकड़ कर ले गयी है और इसका फ़ोन थाने में है....यदि अबकी फ़ोन कर दिया तो कहीं हम भी ना धरे जाएँ...ये सोच कर हिम्मत ही नहीं हुयी...


बस जल्दी से तैयार हुए और इनको कहा कि ज़रा बाज़ार तक जा रहे हैं...जवाब मिला...क्या लाना है? मैं ला देता हूँ....अब इनको सब बताना तो आ बैल मुझे मार वाली बात होती.....बस हम ये कहते हुए तेज़ी से घर से निकल लिए कि बस अभी आ रहे हैं....


दुकान  पर जा कर देखा.. दो - चार ग्राहक खड़े थे....मैंने दुकानदार से कहा ...भैया कल सब्जी मंगाई थी पर कटहल नहीं भेजा...पैसे तो लगा ही दिए होंगे....तो वो बोला --- नहीं साहब आप लिस्ट देख लो पैसे नहीं लगाये थे ,  कल कटहल अच्छा नहीं था तो भेजा ही नहीं....आप पर्ची से मिला लो....अब हम कहाँ मिलाते....पर्ची तो फेंक दी थी....खैर हमने कहा अच्छा अभी तो दे दो...उसने अपना विजिटिंग कार्ड निकाला और मुझे देता हुआ बोला कि आप इस नंबर पर फ़ोन कर देते....मैंने कार्ड थामा और नंबर देखा तो बोली कि इसी नंबर पर तो सुबह से फ़ोन कर रही हूँ ....बार बार थाने में लग जाता है...


उसने कहा कि मैंने अपने फ़ोन में रिंग टोन की जगह थाने वाला डायलोग डाला हुआ है जी ...सब्ज़ीवाले का जवाब सुनकर अब चौंकने की बारी हमारी थी...............बिना वजह ही बन गए ना अप्रेल फूल ...
 
 

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