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उजला आसमां

>> Thursday, June 24, 2010





मन के 

अशांत सागर में 

भावना की लहरें 

उद्वेग में आकर

ज्वार  सा 

उठा  देती हैं 

विक्षिप्त सा बन 

मन का सागर 

रिश्तों के 

साहिल का 

विध्वंस कर देता है 

जब आता  है भाटा

और हो जाता  है 

तूफ़ान शांत 

तो सोचती हूँ 

मैं   कि-

आशा किरण 

चारों ओर फ़ैल कर 

एक उजला सा 

आसमां  दे दे 

जहाँ कोई 

अमावस का 

चाँद भी ना हो .....




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सच बताना गांधारी !

>> Thursday, June 10, 2010





हे गांधारी !

तुम्हारे विषय में बड़ी जिज्ञासा है 

उत्तर  पाने की तुमसे आशा है 

जानना चाहती हूँ  तुमसे कुछ तथ्य 

क्या बता पाओगी पूर्ण सत्य ?

पूछ ही लेती हूँ तुमसे आज 

लोगों को बड़ा है तुम पर नाज़ ...

कहते हैं सब कि गांधारी पतिव्रता थी 

पति के पदचिह्नों  पर चला करती थी 

किया था तुमने पति  का अनुसरण 

प्रतिज्ञा कर दृष्टिहीनता को किया वरण

पर  सच बताना  गांधारी 

क्या यह तुम्हारा  सहज ,

सरल, निर्दोष  प्रेम था ?

दया  थी पति  के प्रति 

या फिर  मन का क्षेम  था ? 

यदि प्रेम  की   अनुभूतियों  ने 

तुमसे  ऐसा  कराया 

तो क्षमा  करना गांधारी 

मेरा मन इस कृत्य के लिए 

तुमसे सहमत नहीं हो पाया .

पति की इस लाचारी को 

अपने नेत्रों से आधार प्रदान करतीं 

बच्चों की  अच्छी परिवरिश  से 

सच ही उनका कल्याण  करतीं 

अपनी दूरदर्शिता से तुम 

राज्य   का उत्थान करतीं 

जब लडखडाते  धृतराष्ट्र  तो 

तुम  उनका संबल  बनतीं .

पर तुमने तो हो कर विमुख 

अपने कर्तव्यों  को त्याग दिया 

हे  गांधारी ! 

कहो ज़रा ये तुमने क्या किया ? 

पर  सच तो यह है  कि--

नारी  मन कौन  समझ पाया है 

उसके हृदय के भूकंपों को 

कब कौन जान पाया  है ?

मन के  भावों को  अन्दर  रख 

रोज  सागर  मंथन करती है 

मंथन से निकले हलाहल को 

स्वयं रोज पिया करती है 

शायद  तुमने भी तो उस दिन 

चुपचाप  विषपान किया था  

आक्रोशित  मन के उद्वेलन  को 

तुमने चुपचाप सहा था 

आजीवन दृष्टि विहीन रहने में 

मुझको  तेरा आक्रोश  दिखा है 

सच कहना  गांधारी ---

ऐसा  कर क्या तुमने 

सबसे प्रतिकार लिया है ? 

धोखा   खा कर शायद यह 

प्रतिक्रिया हुई ज़रूरी 

समझ सकी हूँ बस इतना ही 

कि  यह थी तेरी  मजबूरी 

मौन  रहीं तो  बस  सबने 

तुमको था देवी जाना 

असल क्या था मन में तुम्हारे 

यह  नहीं किसी ने  पहचाना ......





                                   http://chitthacharcha.blogspot.com/2010/06/blog-post_19.html

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यथार्थ का धरातल

>> Sunday, June 6, 2010

आज  मैं अपनी  बहुत पुरानी रचना  आप सबके साथ बाँटना चाहती हूँ....ये तब लिखी गयी थी जब मैंने कुछ यूँ ही लिखना शुरू किया था...कॉलेज  के अंतिम वर्ष में थी....१९७४  की लिखी ये रचना आज भी शायद कमोवेश वही कह रही है....हालात में कोई खास 
परिवर्तन नहीं आया है....




सोचा   मैंने एक दिन , इस जगत में सैर करूँ 


अपनी कल्पना की  लहरों पर धीरे धीरे  तैर चलूँ 

तभी विचार आया मन में ,कल्पना से उपर उठूँ

खुद चलते चलते   इस  धरती पर पग रखूं  |


जब धरा पग मैंने पृथ्वी पर 

एहसास हुआ ऐसा 

ज़िन्दगी के चार दिन औ  

फिर भी जीवन है कैसा ?


इधर निगाह उठी तो पाया  

कृषक श्रमदान कर रहा था 

ज़रा हाथ रुके नहीं थे 

ऐसी मेहनत कर रहा था 


आँखें धंसी हुईं  थी अन्दर 

भूखा  पेट  पिचक रहा था 

पसीने की  कंचन बूंदों से 

तन उसका चमक रहा था .


देख  उसकी ये हालत 

एक आघात  हुआ यूँ मन पर 

जीवन पाला  जग का  जिसने 

रक्त  दीखता  उसके तन पर .




कुछ पग और चले थे आगे     

एक आलिशान भवन खड़ा  था 

श्रमिकों का शोषण कर कर के 

खुद को गर्वित  समझ रहा था .


कहा गर्व से उसने ऐसे 

ये सब मेरे कर्मो का फल है 

करा  ज़िन्दगी भर श्रम उसने 

लेकिन फिर भी निष्फल  है .


तब पूछा  मैंने उससे 

सुन  तेरे कर्म  कैसे हैं 

हँस  कर बोला मुझसे यूँ 

सब  धन की आड़ में छिपे हैं 


सोचा  मैंने धन कैसा है 

जो सब कुछ छिपा लेता  है 

पाप को पुण्य और 

पुण्य को पाप बना देता है .


सोचते सोचते घर की ओर बढ़ चले कदम 

कि लोगों को धन  का है कैसा भरम 

एक दिन फिर उस ओर कदम बढ़ गए 

जहाँ पर  कृषक और भवन थे मिले 


देखा वहाँ  जा कर  कि 

कृषक  मग्न हो काम कर रहा था 

पसीना पोंछ वो खेत  जोत  रहा था 

दृष्टि गयी भवन पर तो मैंने ये पाया 

कि मात्र एक खंडहर  वहाँ खड़ा था .


उसे देख मुझे उसी की बात का ख्याल आया 

कि  कर्मों के अनुसार आज तूने ये फल पाया 

मेरे मुंह से उस वक़्त ये शब्द निकल गए 

ना फंसना तू इस भ्रम जाल में 

वरना इन्सां तो यहाँ यूँ ही छले  गए ...






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बीज ख्वाब के

>> Thursday, June 3, 2010







मन की 

बंजर धरती पर 

कुछ ख्वाब 

बो दिए थे 

अश्कों के 

दरिया से सींचा 

पर 

पल्लवित न  हुआ 

एक भी ख्वाब 


फिर 

उतर आई  एक 

उदासी की  घटा 

कि  अचानक 

तेरी  मुस्कान की 

बिजली सी चमकी 

और  बरस  गए 

काले बादल 

बेसाख्ता 

अब 

उजली सी धूप 

निखर आई है 

मन की 

माटी  भी 

महक गयी है 

आज  फिर से 

कुछ बीज 

ख्वाब के 

छींट  दूंगी 

मन की 

धरती पर  .....  





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