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मेघों ने अंबर ढक डाला

>> Tuesday, September 28, 2010

मेघों ने अम्बर ढक डाला 
फूटा नभ से जल का छाला 


रिसते रिसते मची तबाही 
नदियाँ बहुत उफन कर आयीं 
गुलशन तहस-नहस कर डाला 
मेघों ने अम्बर ढक डाला 


जब काटे थे पेड़ अंधाधुंध 
बुद्धि हुई थी तब जैसे कुंद
तब तो स्वार्थ स्वयं का साधा 
लाभ कमाया ज्यादा-ज्यादा 
कुदरत ने अब फल दे डाला 
मेघों ने अम्बर ढक डाला
 

अतिवृष्टि से घबराये सब
आखिर बुद्धू कहलाए अब
हरी-भरी उर्वरा छाँट दी
कंकरीट से धरा पाट दी
धरती को बंजर कर डाला 
मेघों ने अम्बर ढक डाला .

इस रचना को सुधारने  में डा० रूपचन्द्र शास्त्री जी का सहयोग मिला ..
शुक्रिया 

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अवमूल्यन

>> Friday, September 24, 2010



हीरे से ज्यादा कठोर 

कुछ भी नहीं 

उसे तराशना भी 

मुकम्मल हाथों से ही 

संभव है 

ज़रा सी ठेस 

और उसमें 

खिंची  एक लकीर

कर देती है 

अवमूल्यन हीरे का ..


आज मैं भी 

हो गयी हूँ 

मूल्य विहीन 

मैं हीरा नहीं 

पत्थर भी नहीं 

फिर भी 

खिंच गयी है 

भीतर तक 

कोई लकीर 

जिसे पारखी नज़रें 

छोड़ देती हैं 

बिना ही कोई 

मोल लगाये ....


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पायदान सीढ़ी का

>> Saturday, September 18, 2010








मैं ,

एक सन्यासी 

आसक्ति और विरक्ति 

से दूर 

मात्र एक  दृष्टा 

साधक की प्रतीक्षा में 

आता है नया साधक 

हर बार 

अपना पांव रख 

बढ़ जाता है 

अपनी मंजिल की ओर 

और बन जाता है 

एक पुख्ता सर्जक 

कदम दर कदम 

आगे बढ़ते  हुए 

बुलंदियों को छूता हुआ ..


मैं सिर उठा कर वहाँ तक 

देख नहीं सकता 

क्यों कि  नहीं है 

मेरी औकात 

इतना ऊँचा  देखने की

और वो सर्जक भी 

नहीं देख पाता 

झुक कर नीचे 

शायद उसे 

खौफ होता हो 

नीचे गिर जाने का 


सफलता की  सीढ़ी को 

फलांघता  हुआ वह

भूल जाता है कि

मैं  उस सीढ़ी  का 

पहला पायदान हूँ ....


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साँप - सीढी

>> Friday, September 10, 2010

 



बचपन में खेल कर 

सांप - सीढ़ी का खेल 

सीख लिया था 

ज़िंदगी का फलसफा .


खाने - दर - खाने 

चलते हुए मानो 

बस ज़िंदगी 

चलती सी ही है .


और जब आ जाती है 

सीढ़ी कोई  तो 

समझो ज़िंदगी में 

कोई खुशी हासिल हुई 


इन खुशियों के बीच 

जब डंस लेता था सांप 

तो प्रतीक था 

ज़िंदगी में कष्ट आने का .


निन्यानवे पर होता था 

सबसे बड़ा सांप 

जो इंगित करता था 

कि मंजिल पाने से पहले 

करनी होती है 

सबसे बड़ी बाधा पार .


गर नहीं कर पाए 

निन्यानवे को पार

तो वो पहुंचा देता था 

दस के आंकड़े पर .


फिर से 

सारी बाधाओं को पार कर 

खुशियों की सीढ़ी लांघते हुए 

कवायद करनी होती थी 

मंजिल पाने की .


और 

बार- बार की कोशिशें

करा  ही देती थीं

वो सौ का आंकड़ा पार .. 

इस तरह 

खेल - खेल में ही 

सीख लिया मैंने 

ज़िंदगी का व्यापार 



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वो चिंदिया ..वो खटोला

>> Friday, September 3, 2010




उम्र के कदम 

जब होते हैं 

अवसान की ओर 

तो न जाने क्यों 

स्मृतियाँ पहुँच जाती हैं 

बचपन की गलियों में ..


माँ - पापा का प्यार 

ताकीदें , डांट 

मनाना ,फुसलाना 

सभी तो याद आता है .

अब नहीं हैं वो 

हिदायतें देने के लिए 

तो 

सारी दी हुई हिदायतें 

याद आती हैं ....


भाई के साथ  खेलना 

पढ़ना , लड़ना- झगडना 

और   डांट  के डर से 

झूठ बोल 

एक दूसरे को बचाना 

दिल के कोने में 

पैबस्त है अभी भी ..


याद आती है 

माँ के हाथ की 

वो  रोटी जो 

हमेशा बना देतीं थी 

थोड़ा स आटा बचने पर .

और कहतीं थीं कि 

यह चिंदिया कौन खायेगा ?

बस लग जाती  थी 

भाई बहन में होड़.

न जाने उस चिंदिया में 

अलग  सा  स्वाद 

क्यों  आता था ..


गर्मी के दिनों में 

रात को जब 

सबके लिए आँगन में 

बिछती थीं चारपाईयां 

तो मेरे लिए 

बिछता  था  खटोला ..

मैं तब छोटी थी न सबसे .

भाई के चिढाने पर 

जिद कर मैं  सो जाती थी 

माँ की चारपाई पर .

लेकिन आज मुझे 

वो खटोला 

बहुत याद आता है ...


आज ना चारपाई है 

ना ही खटोला 

न चिंदिया है न आँगन 

छोटे - छोटे घरों में 

अलग - अलग  कमरे में 

जैसे बंध गए हैं 

सबके मन ........



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