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पीड़ा गत वर्ष की

>> Thursday, December 30, 2010


गत वर्ष जाते -जाते 
नव वर्ष के कान में
अपनी पीड़ा यूँ कह गया 
कि आज तुम्हारा 
स्वागत हो रहा है 
तो इतराओ मत 
मैं भी पिछले साल 
यूँ ही इतराया था 
और खुद को यूँ 
भरमाया था. 
पर भूल गया था
कि बीता वक़्त 
कभी लौट कर नही आता 
तुम भी आज खूब
जश्न मना लो
क्यों कि जो 
आज तुम्हारा है 
वो कल तुम्हारा नही होगा 
आज जहाँ मैं खड़ा हूँ 
कल तुम वहाँ होंगे 
और जहाँ आज तुम हो 
वहाँ कल कोई और होगा . 





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गुमनाम .........

>> Friday, December 24, 2010


बैठी थीं दो स्त्रियां 
कानन कुञ्ज में 
गुमसुम सी 
नि:मग्न हुई 
अचानक एक 
बोल उठी ,
मांडवी ! ज़रा कहो तो ,
तुम  आपबीती .
निर्विकार भाव से 
बोली मांडवी कि 
क्या कहूँ और 
कौन सुनेगा हमें 
कौन पहचानता है 
बोलो न श्रुतिकीर्ति? 
हाँ  सच है - 
हम सीता  की भगिनियाँ
भरत, शत्रुघ्न की भार्या 
कहाँ- कहीं बोलो कभी 
हमारा नाम आया ? 
सीता का त्याग और 
भातृ - प्रेम लक्ष्मण का 
बस यही सबको 
नज़र आया .
उर्मिला का 
विरह वर्णन भी 
साकेत में वर्णित है 
इसी लिए 
उसका भी नाम
थोड़ा चर्चित है ..
हमारे नामों को 
कौन पहचानता है ?

श्रुतिकीर्ति की बात सुन 
मांडवी अपनी सोच में 
गुम हो गयी 
जिया था जो जीवन 
बस उसकी यादों में 
खो गयी ..
जब आये थे भरत 
ननिहाल से तो 
उनका विलाप याद आया 
राम को वापस लाने का 
मिलाप याद आया .
लौटे थे भाई की 
पादुकाएं ले कर 
और त्याग दिया था 
राजमहल को 
एक कुटी बना कर .
सीता को वनवास में भी 
पति संग सुख मिला था 
मुझे तो राजमहल में रह 
वनवास मिला था ..
जो अन्याय हुआ मेरे साथ 
क्या वो 
जग जाहिर भी हुआ है?
मुझे तो लगता है कि
हमारा नाम 
अपनी पहचान भी 
खो गया है..
यह कहते सुनते  वो 
स्त्री छायाएं  न जाने 
कहाँ गुम हो गयीं 
और मेरे सामने एक 
प्रश्नचिंह  छोड़ गयीं ..
क्या सच ही 
इनका त्याग 
कोई त्याग नहीं था 
या फिर रामायण में 
इनका कोई महत्त्व नहीं था ???    

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शाश्वत सत्य

>> Wednesday, December 8, 2010




मौत, 

जो निश्चित है, 
सत्य है/ 
आज नही तो कल
तुमको मिलनी है. 
क्या अहसास नही होता
तुमको उस बौनेपन का
उसी वस्तु को माँग कर
जो अंत में तुम्हारी ही है. 
जीवन तुम्हारा है. 
मौत तुम्हारी है. 
बस- 
इन दोनो के बीच का
अंतराल अज्ञात 
इसी अज्ञात  को
सुंदर बनाने की चाह में, 
कुरूप बन जाता है वह क्षण
जब तुम मौत को आवाज़ देते हो. 
जीवन / मृत्यु
दोनो ही शाश्वत सत्य
हमारी ज़िंदगी की धुरी के
चारों ओर घूमते हुए
दिन - ब - दिन
पास आते जाते हैं
तुम अज्ञात  क्षणों को
कितना खुशनुमा बना सकते हो
ज़िंदगी के सुखद क्षणों को
कितना पहचान सकते हो
यह तुम्हारे उपर निर्भर है
आज - 
आम आदमी. 
ज़िंदगी नही मौत माँगता है. 
क्यों --- 
क्यों कि मौत ज़िंदगी से
निहायत सस्ती हो गयी है. 
तुम- 
यदि आम इंसान से उपर हो
तो ज़िंदगी को जिओ, और
मौत का इंतज़ार न करते हुए
ज़िंदा रहो, और
उन अज्ञात क्षणों को
उसको प्रतीक्षा में
मत व्यतीत करो
जो अंत में
तुमको मिलनी ही है
और केवल तुम्हारी ही है. 
लेकिन- ज़िंदगी- 
ज़िंदगी केवल तुम्हारी नही
इस सत्य को झुठला देते हैं सभी
पर- 
इस सत्य पर भी तो सोचो कभी...






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हमारी वाणी

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