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ताम्बुल और ताम्बुली

>> Tuesday, December 27, 2011




जिस तरह से 
ताम्बूल पर 
सही मात्रा में 
लगाना पड़ता है 
कत्था - चूना 
और डालना पड़ता है
मिठास के लिए 
थोड़ा गुलकंद ,
सुगंध के लिए 
कुछ इलायची 
और तभी 
खाने वाला 
आनंद लेता है 
बिना मुँह कटे 
पान का  और 
रच जाता है मुँह 
लाल रंग से .
उसी तरह से 
रिश्तों को पान सा 
सहेजने के लिए 
बनना चाहिए 
ताम्बूली .


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स्मृतियों में रूस ... ( शिखा वार्ष्णेय ) ..मेरी नज़र से

>> Tuesday, December 20, 2011



शिखा वार्ष्णेय ब्लॉग जगत का जाना माना नाम है पत्रकारिता में उन्होंने तालीम हासिल की है  और स्वतंत्र पत्रकार के रूप में वो लेखन कार्य से जुडी हुई हैं .. आज उनकी पुस्तक  स्मृतियों में रूस  पढ़ने का सुअवसर मिला .. यह पुस्तक उनके अपने उन अनुभवों पर आधारित है जो उनको अपनी पत्रकारिता की शिक्षा के दौरान मिले ..पाँच वर्ष के परास्नातक के पाठ्यक्रम को करते हुए जो कुछ उन्होंने महसूस किया और भोगा उस सबका निचोड़ इस पुस्तक में पढ़ने को मिलता है .उनकी दृष्टि से रूस के संस्मरण पढ़ना निश्चय ही रोचक है . स्कॉलरशिप के लिए चयन होने पर भारतीय माता पिता के मनोभावों की क्या दशा होती है उसको सुन्दर शैली में बाँधा है--


"आयोजन कर्ता सब करेंगे और अकेली थोड़े न जा रही है और ३० बच्चे हैं सब इसी की उम्र के होंगे.पापा बोले जा रहे थे कहने को तो यह सब वह मम्मी से कह रहे थे जो कि नाते रिश्तेदारों की बातों से परेशान थीं "

नए देश में सबसे पहले समस्या आती है भाषा की ..और इसी का खूबसूरती से वर्णन किया है जब उनको अपने बैचमेट के साथ चाय की तलब लगी ...
"हम कैफे आ गए. और शुरू हुई मुहीम वहां अटेंडेंट को चाय समझाने की .अपने हाव भाव से, कुछ अंग्रेजी को तोड़-मोड़ के, घुमा घुमा का होंट, बनाकर मुंह टेढ़े मेढे, वह महोदय हो गए शुरू. अब हमारा वह मित्र कहे टी-... टी ..., फॉर टी प्लीज. पर वह महिला समझ ही नहीं पा रही थी."
      अनेक तरह से समझाने का प्रयास करने के बाद पता चला कि रुसी में भी चाय को चाय ही कहते हैं . 
शिखा ने अपनी पुस्तक में मात्र अपने अनुभव नहीं बांटे हैं ... अनुभवों के साथ वहाँ की संस्कृति , लोगों के व्यवहार , दर्शनीय स्थल का सूक्ष्म विवरण , उस समय की रूस की आर्थिक व्यवस्था , राजनैतिक गतिविधियों  सभी पर अपने विचार प्रस्तुत किये हैं .जिससे पाठकों को रूस के बारे में अच्छी खासी जानकारी हासिल हो जाती है ..
      रुसी लोग कितने सहायक होते हैं इसकी एक झलक मिलती है जब भाषा सीखने के               लिए उन्हें वोरोनेश  भेजा गया .और जिस तरह वह एक रुसी लडकी की मदद से वो   यूनिवर्सिटी पहुँच पायीं उसका जीवंत वर्णन पढ़ने को मिलता है .
 उस समय रूस में बदलाव हो रहे थे ---और उसका असर वहाँ की अर्थव्यवस्था पर भी पड़ रहा था ..इसकी झलक भी इस पुस्तक में दिखाई देती है .


"आर्थिक तंगी का असर लोगों के काम पर उनके व्यक्तित्व पर जाहिर तौर पर पड़ रहा था नौजवान रूसियों में विदेशियों के खिलाफ मानसिकता जन्म लेने लगी थी.गहरे रंग वाले विदेशियों को मारने  पिटने की कई घटनाये सामने आने लगी थीं यहाँ तक कि कुछ हत्याओं की घटनाएँ भी सुनने में आने लगीं थीं." 

वहाँ के दर्शनीय स्थलों की जानकारी काफी प्रचुरता से दी गयी है ... इस पुस्तक में रुसी लडकियों की सुंदरता से ले कर वहाँ के खान पान पर भी विस्तृत दृष्टि डाली गयी है ..यहाँ तक की वहाँ के बाजारों के बारे में भी जानकारी मिलती है ..




शिखा ने जहाँ अपने इन संस्मरणों में पाँच साल के पाठ्यक्रम के तहत उनके साथ होने वाली घटनाओं और उनसे प्राप्त अनुभवों को लिखा है वहीं रूस के वृहद्  दर्शन भी कराये हैं ...

इस पुस्तक को पढ़ कर विदेश में पढ़ने वाले विद्यार्थियों को किस किस कठिनाई से गुज़रना  पड़ता है इसका एहसास हुआ ..इतनी कम उम्र में अनजान देश और अनजान लोगों के बीच खुद को स्थापित करना , आने वाली हर कठिनाई का सामना करना ,भावुक क्षणों में भी दूसरों के सामने कमज़ोर न पड़ना  , गलत को स्वीकार न करना और हर हाल में सकारात्मक सोच ले कर आगे बढ़ना . ये कुछ लेखिका की विशेषताएँ हैं जिनका खुलासा ये पुस्तक करती है .  पुस्तक पढते हुए मैं विवश हो गयी यह सोचने पर कि कैसे वो वक्त निकाला होगा जब खाने को भी कुछ नहीं मिला और न ही रहने की जगह .प्लैटफार्म पर रहते हुए तीन  दिन बिताने वो भी बिना किसी संगी साथी के ..इन हालातों से गुज़रते हुए और फिर सब कुछ सामान्य करते हुए कैसा लगा  होगा ये बस  महसूस ही किया जा सकता है ..
हांलांकि यह कहा जा सकता है कि पुस्तक की  भाषा साहित्यिक न हो कर आम बोल  चाल की भाषा है .. पर मेरी दृष्टि में यही इसकी विशेषता है ... पुस्तक की भाषा में मौलिकता है और यह शिखा की मौलिक शैली ही  है जो पुस्तक के हर पृष्ठ को रोचक बनाये हुए है ..भाषा सरल और प्रवाहमयी है जो पाठक को अंत तक  बांधे रखती है कई जगह चुटीली भाषा का भी प्रयोग है जो गंभीर  परेशानी में भी हास्य का पुट दे जाती है --
 "अब उसने भी किसी तरह हमारे शब्द कोष में से ढूँढ ढूँढ कर हमसे पूछा कि कहाँ जाना है. हमने बताया. अब उसे भी हमारे उच्चारण  पर शक हुआ. इसी  तरह कुछ देर शब्दकोष  के साथ हम दोनों कुश्ती करते रहे अंत में हमारा दिमाग चला और हमने फटाक  से अपना यूनिवर्सिटी  का नियुक्ति पत्र उसे दिखाया."
.हाँलांकि इस पुस्तक के कुछ अंश हम शिखा के ब्लॉग स्पंदन पर पढ़ चुके हैं लेकिन उसके अतिरिक्त भी काफी कुछ बचा था जो इस पुस्तक के ज़रिये हम तक पहुंचा है
पुस्तक में दिए गए रूस के दर्शनीय स्थलों के  चित्र पुस्तक को और खूबसूरती प्रदान कर रहे हैं . कुल मिला कर रोचक अंदाज़ में रूस के बारे में जानना हो तो यह पुस्तक अवश्य पढ़ें ..


पुस्तक -- स्मृतियों में रूस 
लेखिका - शिखा वार्ष्णेय 
प्रकाशक - डायमंड पब्लिकेशन 
मूल्य  -- 300 /रूपये

Diamond Pocket Books (Pvt.) Ltd.
X-30, Okhla Industrial Area, Phase-II,
New Delhi-110020 , India
Ph. +91-11- 40716600, 41712100, 41712200
Fax.+91-11-41611866
Cell: +91-9810008004
Email: nk@dpb.in,

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देर आए दुरुस्त आए

>> Wednesday, December 14, 2011





बेख्याली  में  ही 
गुज़ार  दी  सारी उम्र
इसी इंतज़ार में 
कि 
कभी तो कोई 
रखे कुछ ख्याल 

और जब आज 
कोई अपना 
रखता है 
ज़रूरत से ज्यादा 
ख़याल 
तो अनिच्छा की 
रेखाएं 
खिंच जाती हैं 
चेहरे पर, 
वाणी में भी 
उतर आता है 
खीज भरा स्वर .

पर 
अक्सर शाम को 
करते हुए सैर 
अपने से ज्यादा 
उम्रदराज़ दम्पतियों को 
जब देखती हूँ 
हाथ में हाथ ले 
बनते  हैं सहारा 
एक दूसरे का 
तो 
लगता है कि
शायद यही उम्र है 
जिसमें रखा जाता है 
सबसे ज्यादा ख्याल 

और तब 
मन में उभर आती है 
बस एक सोच कि -
देर आए दुरुस्त आए .




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एक उत्सव ये भी ..

>> Monday, December 5, 2011





जन्म का 
ज्यों होता है उत्सव 
मृत्यु  का भी 
तो होना चाहिए 
मृत्यु को भी एक 
उत्सव की तरह ही 
मनाना चाहिए 
आगत का 
करते हैं स्वागत 
उल्लास से  
तो विगत की  भी 
करो विदाई  
हास से 
जा रहा पथिक 
एक नयी राह पर
तो  
प्रसन्नता से 
दो हौसला उसको .
खुशियाँ मनाओ कि
जीवन के कष्ट 
अब पूरे हुए 
जो थे अवरुद्ध मार्ग 
अब वो प्रशस्त हुए
जिस दिन 
आता  है कोई जीव 
इस धरती पर 
उसी दिन 
उसका अंत  भी 
आता  है साथ  में,  
लेकिन 
इस सत्य को हम 
भूल जाते हैं 
अपने प्रमाद में .
मौत जब निश्चित है तो 
उसके आगमन पर 
करना चाहिए 
स्वागत आल्हाद से 
इस त्योहार को भी 
मनाना  चाहिए उत्साह से .



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कमी नहीं होती ...

>> Monday, November 21, 2011

कोई भी मंजिल 
अंतिम नहीं होती 
ज़िंदगी में लक्ष्यों की 
कोई कमी नहीं होती .

मंजिल पाने के लिए 
निरतता*  होनी चाहिए 
फिर रास्ते बनने के लिए 
पगडंडियों की कमी नहीं होती .

पगडंडियों  के लिए भी 
तितिक्षा*  होनी चाहिए 
यवस पर चलते हुए 
पगों की  कमी नहीं होती .

लक्ष्य को भेदने के लिए 
जिगीषा* होनी चाहिए 
फिर तुणीर* में 
तीरों की कमी नहीं होती .

इस हौसले को लेकर 
जो जिए ज़िंदगी 
उसके जीवन में 
त्विषा* की कमी नहीं होती ..


निरतता -- आसक्ति 

तितिक्षा*---धैर्य , सहनशीलता 

यवस -- घास , दूब

जिगीषा* --- जीतने की इच्छा 

तूणीर -- तरकश 

त्विषा --- किरण , आभा , ज्योति 

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तलाश प्रेम की

>> Thursday, November 10, 2011





कस्तूरी मृग 
कस्तूरी की चाह में 
आधूत हो 
फिरता है दर - बदर 
होता है लहुलुहान 
और तोड़ देता है दम 
पर 
नहीं खोज पाता 
कस्तूरी को 
जो बसती है 
उसीकी नाभि में ,

उसी तरह तुम 
प्रेम का वास 
स्वयं के हृदय में
रखते हुए 
व्याकुल मन लिए 
फिरते हो मारे मारे 
विक्षिप्त से हुए 
प्रेम का राग 
अलापते हुए 
प्रेम को ही 
करते हो लांछित 
महज़ अपनी 
तृप्ति के लिए 
पर फिर भी ,
कहाँ हो पाते हो तृप्त
क्या खतम होती है 
कभी प्रेम की तलाश ?


तुमने प्रेम पुष्प नहीं 
बल्कि 
चाहत के कुसुम सजाये हैं 
जिनके रंग देख 
तुम्हारे दृग 
स्वयं ही भरमाये हैं 
जिस दिन तुम 
कस्तूरी को 
खोज पाओगे 
सहज ही तुम 
प्रेम को 
पा जाओगे ...









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ज़िद

>> Wednesday, November 2, 2011


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मन के बादल 
उमड़ घुमड़ कर 
क्यों  जल 
बरसा जाते हैं 
सीले सीले से 
सब सपने 
आँखों से 
झर जाते हैं 

उलट - पलट कर 
फिर मैं उनको 
धूप दिखाया 
करती हूँ 
गंध हटाने को 
मैं उनको 
हवा लगाया 
करती हूँ .

सूख धूप में 
फिर से वो 
मेरी आँखों में 
सज जाते हैं 
उमड़ घुमड़ कर 
बादल फिर से 
जल की गगरी 
भर लाते हैं .

बादल और मुझमे 
जंग हरदम 
रहती है बस 
छिड़ी हुयी 
खुद को जीत 
दिलाने को मैं 
हरपल  रहती 
अड़ी  हुयी 

देखें आखिर 
किसकी ज़िद 
अपना रंग 
दिखलाएगी 
कभी तो मेरी 
आँखों में 
धानी चुनरी 
लहराएगी .....

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सोने का पिंजर ... अमेरिका और मैं ...

>> Tuesday, November 1, 2011

ajeet gupta

सोने का पिंजर ... अमेरिका और मैं ...
पिछले कुछ दिनों पूर्व मुझे डा० अजीत गुप्ता जी द्वारा लिखी यह पुस्तक पढने को मिली ... पुस्तक को पढते हुए लग रहा था कि सारी घटनाएँ मेरे सामने ही उपस्थित होती जा रही हैं ..यह पुस्तक उन लोगों को दिग्भ्रमित होने से बचाने  में सहायक हो सकती है जो अमेरिका के प्रति भ्रम पाले हुए हैं .निजी अनुभवों पर लिखी यह एक अनूठी  कृति है .
" अपनी बात " में कथाकार लिखती हैं कि उन्हें आठवें विश्व हिंदी सम्मलेन में भाग लेने के लिए अमेरिका जाने का सुअवसर मिला .. उनको देखने से ज्यादा देश को समझने की चाह थी ...रचनाकार के मन में बहुत सारे प्रश्न थे  कि ऐसा क्या है अमेरिका में जो बच्चे वहाँ जा कर वहीं के हो कर रह जाते हैं ..वहाँ का जीवन श्रेष्ठ मानते हैं ..माता पिता के प्रति अपने कर्तव्य को भूल जाते हैं .वो अपनी बात कहते हुए कहती हैं कि --" मैंने कई ऐसी बूढी आँखें भी देखीं हैं जो लगातार इंतज़ार करती हैं , बस इंतज़ार | मैंने ऐसा बुढ़ापा भी देखा है जो छ: माह अमेरिका और छ: माह भारत रहने पर मजबूर है . वो अपना दर्द किसी को बताते नहीं ..पर उनकी बातों से कुछ बातें बाहर निकल कर आती हैं ..


अजीत जी का मानना है कि -- अमेरिका नि: संदेह सुन्दर और विकसित देश है .. वो हमारी प्रेरणा तो बन सकता है पर घर नहीं ..
पुस्तक का प्रारंभ संवादात्मक शैली से हुआ है .. कथाकार सीधे अमेरिका से संवाद कर रही हैं ..जब वो बच्चों के आग्रह पर अमेरिका जाने के लिए तैयार हुयीं तो उनको वीजा नहीं मिला .. उस दर्द को सशक्त शब्दों में उकेरा है ...२००२ अप्रेल माह से जाने की  चाह पूरी हुई जुलाई २००७ में  जब  उनको अवसर मिला विश्व हिंदी सम्मलेन में भाग लेने का तब ही वो अमेरिका जा पायीं ..ज़मीन से जुड़े कथानकों  से यह पुस्तक और रोचक हो गयी है .. महानगर और गाँव की  पृष्ठभूमि को ले कर लिखी घटना सोचने पर बाध्य करती है ..
अमेरिका जिन बूढ़े माँ बाप को वीजा नहीं देता उसे भी सही बताते लेखिका हुए कहती हैं  -- " मेरे देश की  लाखों बूढी आँखों को तुमसे शिकायत नहीं है , बस वे तो अपने भाग्य को ही दोष देते हैं . वे नहीं जान पाते कि गरीब को धनवान ने सपने दिखाए हैं , और उन सपनों में खो गए हैं उनके लाडले पुत्र . मैं समझ नहीं पाती थी कि तुम क्यों नहीं आने देते हो बूढ़े माँ बापों को तुम्हारे देश में ? लेकिन तुम्हारी धरती पर पैर रखने के बाद जाना कि तुम सही थे .क्या करेंगे वे वहाँ जा कर ? एक ऐसे पिंजरे में कैद हो जायेंगे जिसके दरवाज़े खोलने के बाद भी उनके लिए उड़ने के लिए आकाश नहीं है ...तुम ठीक करते हो उन्हें अपनी धरती पर न आने देने में ही समझदारी है . कम से कम वे यहाँ जी तो रहे हैं वहाँ तो जीते जी मर ही जायेंगे ...
इस पुस्तक में बहुत बारीकी से कई मुद्दों को उठाया है ..जैसे सामाजिक सुरक्षा के नाम पर टैक्स वसूल करना ..बूढ़े माता पिता की  सुरक्षा करना वहाँ की  सरकार का काम है .. भारतीयों से भी यह वसूल किया जाता है पर उनके माता पिता को वहाँ बसने की  इजाज़त नहीं है ... वरना सरकार का कितना नुकसान हो जायेगा ...यहाँ माता पिता क़र्ज़ में डूबे हुए अपनी ज़िंदगी बिताते हैं ..
अमेरिका पहुँच कर होटल में कमरा लेने और भोजन के लिए क्या क्या पापड़ बेलने पड़े वो सब विस्मित करता है ..
पूरी पुस्तक  में भारत और अमेरिका को रोचक अंदाज़ में लिखा है ..अमेरिका की अच्छाइयां हैं तो भारत भी बहुत चीजों में आगे है ..
अपने अमेरिका प्रवास  के अनुभवों को बाँटते हुए यही कहने का प्रयास किया है कि हम भारतीय जिस हीन भावना का शिकार हो जाते हैं  ऐसा कुछ नहीं है अमेरिका में ... वो तो व्यापारी है ..जब तक उसे लाभ मिलेगा वो दूसरे देश के वासियों का इस्तेमाल करेगा ..
इस पुस्तक को पढ़ कर  अमेरिका के प्रति  मन में पाले भ्रम काफी हद तक कम हो सकते हैं ..रोचक शैली में लिखी यह पुस्तक मुझे बहुत पसंद आई ..
पुस्तक का नाम -- सोने का पिंजर .. अमेरिका और मैं
लेखिका --  डा० ( श्रीमती ) अजीत गुप्ता
प्रकाशक --- साहित्य चन्द्रिका प्रकाशन , जयपुर
प्रथम संस्करण -  २००९
मूल्य -- 150 / Rs.
ISBN - 978- 81 -7932-009-9

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मुहब्बत का दिया जला कर तो देखो .

>> Wednesday, October 26, 2011




आस्था का तेल 
और दिल की बाती 
यही है सच ही में 
मुहब्बत की थाती 
स्नेह पगे  फ़ूल 
खिला कर तो देखो 
मुहब्बत का दिया 
जला कर तो देखो .

बाती से मिले बाती 
तो हो रोशनी प्रज्ज्वलित 
अपेक्षाएं हों  सीमित 
तो प्रेम हो विस्तृत 
समर्पण को ज़रा 
विस्तार दे के देखो 
मुहब्बत का दिया 
जला कर तो देखो .

ऐसे दीयों की जब 
सजी हो दीपमाला 
हर दीप होगा अमर 
नहीं चाहिए होगी हाला 
इसमें  तुम खुद को 
डुबा कर तो देखो 
मुहब्बत का दिया 
जला कर तो देखो ..



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किसे अर्पण करूँ ?

>> Monday, October 17, 2011




भाव सुमन लिए हुए 
नैवेद्य  दीप सजे हुए 
प्रेम की पुष्पांजलि  को 
मैं किसे अर्पण करूँ ?

ज़िंदगी की राह में 
शूल भी हैं , फ़ूल भी 
किस किस का त्याग करूँ 
और किसे वरण करूँ ?

आज जिस जगह हूँ 
यादों का  समंदर है 
किस लहर को छोडूँ मैं 
और किसको नमन करूँ ?

आसक्ति से प्रारम्भ हो 
विरक्ति प्रारब्ध हो गयी 
किस छल - बल से भला 
मैं मोह का दमन करूँ ? 

नाते - रिश्ते सब मेरे 
दिल के बहुत करीब हैं 
किस किसको सहेजूँ 
और किसका तर्पण करूँ ?

भाव सुमन लिए हुए 
नैवेद्य  दीप सजे हुए 
प्रेम की पुष्पांजलि  को 
मैं किसे अर्पण करूँ ?


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तुम यहीं कहीं हो

>> Thursday, September 29, 2011



जब मंद पवन के झोंके से 
तरु की डाली हिलती है 
पंछी  के  कलरव से 
कानों में मिश्री घुलती है 
तब लगता है कि तुम 
यहीं - कहीं हो 

जब नदिया की कल - कल से 
मन स्पंदित होता है 
जब सागर की लहरों से 
तन  तरंगित  होता है 
तब लगता है कि तुम 
यहीं - कहीं हो 

रेती का कण - कण भी जब 
सोने सा दमकता  है 
मरू भूमि में भी जब 
शाद्वल * सा  दिखता है 
तब लगता है कि तुम 
यहीं - कहीं हो 

बंद पलकों पर भी जब 
अश्रु- बिंदु चमकते हैं 
मन के बादल   घुमड़ - घुमड़ 
जब इन्द्रधनुष सा रचते हैं 
तब लगता है कि तुम 
यहीं कहीं हो ...यहीं कहीं हो .


* शाद्वल --- नखलिस्तान 

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विषधर

>> Thursday, September 22, 2011




शहरी हवा 
कुछ इस तरह चली है 
कि इन्सां सारे 
सांप हो गए हैं ,
साँपों की भी होती हैं 
अलग अलग किस्में 
पर इंसान तो सब 
एक किस्म के हो गए हैं .
साँप देख लोंग 
संभल तो जाते हैं 
पर इंसानी साँप 
कभी दिखता भी नहीं है ..
जब चढ़ता है ज़हर 
और होता है असर 
तब चलता है पता कि
डस  लिया है किसी 
मानवी विषधर ने 
जितना विष है 
इंसान के मन में 
उसका शतांश  भी नहीं 
किसी भुजंग में 
स्वार्थ के वशीभूत हो 
ये सभ्य कहाने वाले 
पल रहे हैं विषधर 
शहर शहर में .

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खलिश

>> Thursday, September 15, 2011




ज़िन्दगी से मुझे कोई 
शिकायत भी नहीं 
जिंदा रहने की लेकिन 
कोई चाहत भी नहीं |

भारी हो गयी है अब 
कुछ इस  तरह ज़िन्दगी 
बोझ  उठाने की जैसे 
अब ताकत भी  नहीं |

घर   की  सूरत में 
मिला था मुझे एक मकाँ
ढह गयीं सारी दीवारें 
अब कुछ निशाँ भी नहीं |


पसरा है एक सन्नाटा
संवादों के बीच 
गैरज़रूरी संवादों का 
कोई  सिलसिला भी नहीं |

सारे  ख्वाब झर गए हैं 
बन कर बूंद -  बूंद
भीगी पलकों को इसका 
कुछ  एहसास भी नहीं |  

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लक्ष्मण रेखा

>> Tuesday, September 6, 2011


आधुनिक युग में 
आधुनिकता का 
लिबास पहन कर 
चाहती हो तुम 
आधुनिक बनना 
लेकिन भूल जाती हो 
अपने मन की 
शक्ति को 
दैदीप्यमान करना 


सीता जी ने 
लांघी थी 
लक्ष्मण रेखा 
क्यों कि उन्हें 
करना था सर्वनाश 
रावण का 
उस समय तो 
रावण  की भी 
कोई मर्यादा थी 
उसे रोकने के लिए 
एक तृण  की ही 
ओट  काफी थी .
आज जब तुम 
अपने मन की 
लक्ष्मण रेखा 
लांघती हो 
तो घिर जाती हो 
एक नहीं 
अनेक रावणों से 
जिनकी नहीं होती 
कोई मर्यादा 


गर चाहती हो 
अपनी सुरक्षा 
तो तुमको 
स्वयं ही 
खींचनी होगी 
कोई लक्ष्मण रेखा 
जिससे तुम्हें 
कोई आधुनिकता 
के नाम पर 
शिकार न बना सके 
अपनी हवस का ...


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भरमाये हैं .....

>> Wednesday, August 31, 2011




बावफा हो कर भी हम बेवफा कहलाये हैं 
अपनो ने ही सीने में नश्तर चुभाये हैं |

चाहा  तो नहीं था कि यकीं करें उनकी बातों पर 
पर फिर भी उनके वादे पर हमने धोखे खाए हैं |

सियासत चीज़ है बुरी उस पर क्या यकीं कीजै 
उनके किये  वादे बस मन को लुभाए हैं |

अँधेरे में बैठे हैं हम दर औ दीवार को थामें 
दामन नहीं है हाथ में , बस उनके साये हैं |

खामोशी से भी अब  क्यों कुछ करें इज़हार 
जुबां से कहे लफ़्ज़ों से कई बार भरमाये हैं ..



संगीता स्वरुप 


व्ही० एन० श्रीवास्तव जी द्वारा शब्दों में कुछ परिवर्तन के साथ गाई गयी यह गज़ल ...


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कृष्णावतार

>> Monday, August 22, 2011



कृष्ण ! 
कहा था तुमने 
जब जब होगी 
धर्म की  हानि 
तुम आओगे 
धरती पर ,
आज मानव 
कर रहा है 
तुम्हारा इंतज़ार 
हे माखनचोर 
कब लोगे 
तुम अवतार ?

तुम्हारा 
कोई रूप नहीं 
जाति नहीं 
देह नहीं 
सबके मन में 
तुम्हारा वास 
कब लोगे 
तुम अवतार ?






धरा पाप से 
मलिन हुई 
पीड़ा जनता की 
असीम हुई 
अन्याय का 
नहीं  कोई पारावार 
कब लोगे 
तुम अवतार ?

लीला तुम्हारी 
अपरम्पार 
भेजा एक कृष्ण 
हमारे द्वार 
करने दूर 
अत्याचार 
खत्म करने 
भ्रष्टाचार 
सब भक्तिभाव से 
स्वीकार रहे 
मन में आशा 
जगा रहे 
उसमें तुमको 
देख रहे 
जन्मदिन तुम्हारा 
मना रहे 
उमड़ पड़ा 
जनसमूह अपार 
ज्यों ही 
कृष्ण ने 
भरी हुंकार 
क्या यही है 
तुम्हारा नया  अवतार ? 




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हमारी वाणी

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