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कतरने ख़्वाबों की

>> Sunday, June 26, 2011


ख्वाब मेरे 
कपड़े की 
कतरनों के माफिक 
कटे फटे 
जब भी सहेजना चाहा 
कतरनों की तरह ही 
बिखर जाते हैं 
फिर भी 
मैं उन्हें सहेज 
रख लेती हूँ 
दिल के लिफ़ाफ़े में 
जब कोई चाहता है 
तो उनसे बना देता है 
कोई सुन्दर सा 
पैच वर्क 
और मैं 
उसी में खो जाती हूँ ,


जैसे ही 
पुराना पड़ता है 
पैचवर्क 
तो 
लगाने वाला 
खुद ही उखाड फेंकता है 
और मैं 
उन कतरनों की कतरनें 
देखती रह जाती हूँ ...

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एक सिहरन उम्मीद की

>> Tuesday, June 14, 2011


ज़िंदगी  की  राहें 
और उम्मीद का दामन 
चलते रहते हैं 
साथ - साथ, 
तार - तार 
होने लगती हैं 
जब उम्मीदें 
तब भी 
नहीं छोडते 
उनका साथ ,
निराशा भरे कदम 
ठिठकते तो हैं 
पर रुकते नहीं ,
घिसटते हुए ही सही 
पर चलते रहते हैं 
अनवरत  अपनी 
मंजिल की ओर .
ज़िंदगी के 
न जाने कितने 
ताल- तलैया 
खेत - खलिहान 
नदी - झील 
पार करते हुए
कदम आज 
पहुँच गए हैं 
तपते रेगिस्तान में ,
संघर्ष करते हुए 
हो जायेंगे पार ,
या फिर 
पा जायेंगे कोई 
नखलिस्तान ,
बस इसके लिए 
एक सिहरन उम्मीद की 
काफी है ....




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सूखी रेत पर अब कोई तहरीर लिखी नहीं जाती है

>> Saturday, June 4, 2011




मन की बात मन में ही दबी सी जाती है 
बात लबों  तक आकर भी निकाली  नहीं  जाती है 

आज हो गया है  , दिल मेरा पत्थर 
अब तो फूलों की महक भी सही नहीं जाती है .

मझधार में कर रही हूँ मैं कोशिश तैरने की 
पर लहरों से अब लड़ाई लड़ी नहीं जाती है .

दग्ध हो गया है मन तेरी तपिश भरी बातों से 
फिर भी तेरी ये चुप्पी मुझसे सही नहीं जाती है 

मौन को कुरेदा तो न जाने कितना गुबार उठेगा 
आँखों में अपनी नमी भी अब झेली नहीं जाती है 


सूख गया है समंदर भी जिसे कभी अश्कों ने भरा था 
सूखी रेत पर अब कोई तहरीर लिखी नहीं जाती है 


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