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तुम यहीं कहीं हो

>> Thursday, September 29, 2011



जब मंद पवन के झोंके से 
तरु की डाली हिलती है 
पंछी  के  कलरव से 
कानों में मिश्री घुलती है 
तब लगता है कि तुम 
यहीं - कहीं हो 

जब नदिया की कल - कल से 
मन स्पंदित होता है 
जब सागर की लहरों से 
तन  तरंगित  होता है 
तब लगता है कि तुम 
यहीं - कहीं हो 

रेती का कण - कण भी जब 
सोने सा दमकता  है 
मरू भूमि में भी जब 
शाद्वल * सा  दिखता है 
तब लगता है कि तुम 
यहीं - कहीं हो 

बंद पलकों पर भी जब 
अश्रु- बिंदु चमकते हैं 
मन के बादल   घुमड़ - घुमड़ 
जब इन्द्रधनुष सा रचते हैं 
तब लगता है कि तुम 
यहीं कहीं हो ...यहीं कहीं हो .


* शाद्वल --- नखलिस्तान 

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विषधर

>> Thursday, September 22, 2011




शहरी हवा 
कुछ इस तरह चली है 
कि इन्सां सारे 
सांप हो गए हैं ,
साँपों की भी होती हैं 
अलग अलग किस्में 
पर इंसान तो सब 
एक किस्म के हो गए हैं .
साँप देख लोंग 
संभल तो जाते हैं 
पर इंसानी साँप 
कभी दिखता भी नहीं है ..
जब चढ़ता है ज़हर 
और होता है असर 
तब चलता है पता कि
डस  लिया है किसी 
मानवी विषधर ने 
जितना विष है 
इंसान के मन में 
उसका शतांश  भी नहीं 
किसी भुजंग में 
स्वार्थ के वशीभूत हो 
ये सभ्य कहाने वाले 
पल रहे हैं विषधर 
शहर शहर में .

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खलिश

>> Thursday, September 15, 2011




ज़िन्दगी से मुझे कोई 
शिकायत भी नहीं 
जिंदा रहने की लेकिन 
कोई चाहत भी नहीं |

भारी हो गयी है अब 
कुछ इस  तरह ज़िन्दगी 
बोझ  उठाने की जैसे 
अब ताकत भी  नहीं |

घर   की  सूरत में 
मिला था मुझे एक मकाँ
ढह गयीं सारी दीवारें 
अब कुछ निशाँ भी नहीं |


पसरा है एक सन्नाटा
संवादों के बीच 
गैरज़रूरी संवादों का 
कोई  सिलसिला भी नहीं |

सारे  ख्वाब झर गए हैं 
बन कर बूंद -  बूंद
भीगी पलकों को इसका 
कुछ  एहसास भी नहीं |  

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लक्ष्मण रेखा

>> Tuesday, September 6, 2011


आधुनिक युग में 
आधुनिकता का 
लिबास पहन कर 
चाहती हो तुम 
आधुनिक बनना 
लेकिन भूल जाती हो 
अपने मन की 
शक्ति को 
दैदीप्यमान करना 


सीता जी ने 
लांघी थी 
लक्ष्मण रेखा 
क्यों कि उन्हें 
करना था सर्वनाश 
रावण का 
उस समय तो 
रावण  की भी 
कोई मर्यादा थी 
उसे रोकने के लिए 
एक तृण  की ही 
ओट  काफी थी .
आज जब तुम 
अपने मन की 
लक्ष्मण रेखा 
लांघती हो 
तो घिर जाती हो 
एक नहीं 
अनेक रावणों से 
जिनकी नहीं होती 
कोई मर्यादा 


गर चाहती हो 
अपनी सुरक्षा 
तो तुमको 
स्वयं ही 
खींचनी होगी 
कोई लक्ष्मण रेखा 
जिससे तुम्हें 
कोई आधुनिकता 
के नाम पर 
शिकार न बना सके 
अपनी हवस का ...


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