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खलिश

>> Thursday, September 15, 2011




ज़िन्दगी से मुझे कोई 
शिकायत भी नहीं 
जिंदा रहने की लेकिन 
कोई चाहत भी नहीं |

भारी हो गयी है अब 
कुछ इस  तरह ज़िन्दगी 
बोझ  उठाने की जैसे 
अब ताकत भी  नहीं |

घर   की  सूरत में 
मिला था मुझे एक मकाँ
ढह गयीं सारी दीवारें 
अब कुछ निशाँ भी नहीं |


पसरा है एक सन्नाटा
संवादों के बीच 
गैरज़रूरी संवादों का 
कोई  सिलसिला भी नहीं |

सारे  ख्वाब झर गए हैं 
बन कर बूंद -  बूंद
भीगी पलकों को इसका 
कुछ  एहसास भी नहीं |  

72 comments:

रविकर 9/15/2011 4:28 PM  

देखी रचना ताज़ी ताज़ी --
भूल गया मैं कविताबाजी |

चर्चा मंच बढाए हिम्मत-- -
और जिता दे हारी बाजी |

लेखक-कवि पाठक आलोचक
आ जाओ अब राजी-राजी |

क्षमा करें टिपियायें आकर
छोड़-छाड़ अपनी नाराजी ||
http://charchamanch.blogspot.com

Unknown 9/15/2011 4:30 PM  

बहुत ही भावपूर्ण अन्तःस्थल को स्पर्श करती रचना... भौतिकता के इस युग में सचमुच
हम अपने आप से कितने बेगाने हो गए हैं ..
चार दिवारियाँ ही अब घर के मायने हो गए हैं...
आपका कोटि कोटि अभिनन्दन ..!!!

shikha varshney 9/15/2011 4:38 PM  

तेरे बिना जिंदगी से कोई शिकवा तो नहीं ....
लेकिन ये जिंदगी भी तो कोई जिंदगी नहीं..
ऐसे ही याद आ गया ये गीत.
बहुत ही भावपूर्ण. एक एक शब्द रग में समाता हुआ.

सदा 9/15/2011 4:43 PM  

भावमय करते शब्‍दों के साथ्‍ा बेहतरीन अभिव्‍यक्ति ।

संजय भास्‍कर 9/15/2011 4:56 PM  

सारे ख्वाब झर गए हैं
बन कर बूंद - बूंद भीगी पलकों को इसका कुछ एहसास भी नहीं |
.....बहुत खूबसूरत ....बेहतरीन शब्द संचयन, कविता अच्छी लगी ।

Rajendra Swarnkar : राजेन्द्र स्वर्णकार 9/15/2011 5:11 PM  

.


सारे ख्वाब झर गए हैं बन कर बूंद - बूंद
भीगी पलकों को इसका कुछ एहसास भी नहीं

बहुत भावप्रवण !

आपकी रचनाओं के विविध रंग प्रभावित करते हैं ।

हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं !

prerna argal 9/15/2011 6:38 PM  

सारे ख्वाब झर गए हैं
बन कर बूंद - बूंद
भीगी पलकों को इसका
कुछ एहसास भी नहीं
बहुत ही अनोखे शब्द रचना के साथ लिखी अनूठी और बहुत ही अद्दभुत रचना/बहुत बधाई आपको /

Er. सत्यम शिवम 9/15/2011 6:50 PM  

पसरा है एक सन्नाटा
संवादों के बीच
गैरज़रूरी संवादों का
कोई सिलसिला भी नहीं |

बहुत ही सुंदरता से भावों का प्रवाह बनाया है आपने आंटी...इस रचना के लिए बहुत बहुत धन्यवाद।

Maheshwari kaneri 9/15/2011 6:57 PM  

भावमयी सुन्दर अभिव्यक्ति.....

प्रतिभा सक्सेना 9/15/2011 7:07 PM  

'जिंदा रहने की लेकिन
कोई चाहत भी नहीं '
यह भी कोई बात हुई भला !
अरे, हाथ में क़लम पकड़े बैठी हैं -एक समर्थ हथियार .आराम से चलाती रहिये.

SANDEEP PANWAR 9/15/2011 7:33 PM  

अभी बहुत कुछ देखना बाकि है।

प्रवीण पाण्डेय 9/15/2011 7:34 PM  

मन के गहरे भाव समेटे।

udaya veer singh 9/15/2011 7:38 PM  

ज़िन्दगी से मुझे कोई
शिकायत भी नहीं
जिंदा रहने की लेकिन
कोई चाहत भी नहीं |
उलझती कड़ी के सुलझते सोपान ...... गंतव्य तो मिलना ही है , अंतर्द्वंद को सकारात्मक रूप देती
रचना प्रभावशाली है ..... शुक्रिया जी /

मनोज कुमार 9/15/2011 7:50 PM  

रचना पढ़कर एक शे’र याद आ गया

पहले ज़मीन बांटी थी, फिर घर भी बट गया,
इंसान अपने आप में कितना सिमट गया।
पारिवारिक संबंधों की निजता और उष्णता आज के दौर-दौरा में गंवा रहा है, यही इस रचना का मूल भाव है।

मनोज कुमार 9/15/2011 7:50 PM  

रचना पढ़कर एक शे’र याद आ गया

पहले ज़मीन बांटी थी, फिर घर भी बट गया,
इंसान अपने आप में कितना सिमट गया।
पारिवारिक संबंधों की निजता और उष्णता आज के दौर-दौरा में गंवा रहा है, यही इस रचना का मूल भाव है।

रचना दीक्षित 9/15/2011 8:15 PM  

ज़िन्दगी से मुझे कोई
शिकायत भी नहीं
जिंदा रहने की लेकिन
कोई चाहत भी नहीं |
लाजवाब प्रस्तुति,सुन्दर भाव बेहतरीन अभिव्यक्ति

अनामिका की सदायें ...... 9/15/2011 8:19 PM  

samwaad banaye rakhiye jindgi jeene ki chahat bani rahegi.

sunder, ekaki bhavo se sarobor abhivyakti.

रविकर 9/15/2011 8:35 PM  

FRIDAY
http://charchamanch.blogspot.com/

Roshi 9/15/2011 8:37 PM  

sunder bhavprad rachna ,dard ko bahut khoobsoorti se ukera hai.....

ashish 9/15/2011 8:57 PM  

निराशा जन्य परिस्थितियां मन को बवंडर में डाल देती है . भावपूर्ण कविता

Unknown 9/15/2011 9:20 PM  

घर की सूरत में
मिला था मुझे एक मकाँ
ढह गयीं सारी दीवारें
अब कुछ निशाँ भी नहीं |

भावनाओं से ओतप्रोत एक सार्थक काव्य , संगीता जी आपकी काव्य प्रस्तुति गहरे भाव लिए होती है .बेहतरीन काव्य के लिए बधाई

रश्मि प्रभा... 9/15/2011 9:22 PM  

घर की सूरत में
मिला था मुझे एक मकाँ
ढह गयीं सारी दीवारें
अब कुछ निशाँ भी नहीं |
koi khalish hai hawaon mein

उपेन्द्र नाथ 9/15/2011 10:02 PM  

सभी एक से बढ़कर एक है.... सुंदर प्रस्तुति.

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद 9/15/2011 10:48 PM  

ज़िंदगी में हमने गम सहा इतना
कि ज़िंदगी में कोई खलिश भी नहीं

Sadhana Vaid 9/15/2011 11:08 PM  

बेहद खूबसूरत रचना है संगीता जी ! हर शब्द जैसे दर्द में डूबा हुआ बहुत कुछ कहता सा ! हर आह जैसे कविता से बाहर निकल कर पाठक को उदासी की गिरफ्त में लपेटती सी ! बहुत सुन्दर !

Amit 9/15/2011 11:42 PM  

जिंदगी शिकायतों से आगे
चाहतो से परे कही....
....खूबसूरत-वेदना से पूर्ण रचना....

monali 9/16/2011 12:03 AM  

Lovely lines... :)

Udan Tashtari 9/16/2011 7:04 AM  

बहुत सुन्दरता से पिरोया है....

Rakesh Kumar 9/16/2011 7:08 AM  

सारे ख्वाब झर गए हैं बन कर बूंद - बूंद भीगी पलकों को इसका कुछ एहसास भी नहीं |

आपकी प्रस्तुति भावपूर्ण व गहन आहत होने का अहसास कराती हुई दिल को छूती है.

सुन्दर प्रस्तुति के लिए आभार.

मेरे ब्लॉग पर आईयेगा.

Vandana Ramasingh 9/16/2011 7:38 AM  

पसरा है एक सन्नाटा
संवादों के बीच
गैरज़रूरी संवादों का
कोई सिलसिला भी नहीं |

समसामयिक और गज़ब की सोच ....अभिनन्दन

वाणी गीत 9/16/2011 8:00 AM  

खुशियों के बीच एक दौर ऐसा भी आता है ...गुजर जाता है !
उदास कर देती है है मगर अच्छी लगी!

Dr.NISHA MAHARANA 9/16/2011 8:29 AM  

पसरा एक सन्नाटा संवादों के बीच।बहुत अच्छा ।
मन को बाँधने वाली रचना।

पूनम श्रीवास्तव 9/16/2011 11:03 AM  

sangeta di
dil ko ek sach anubhav sa laga.man ko jhakjhor dene wali aapki yah prstuti yatharta liye hue hai bhavo se paripurn is rachna ke liye
hardik badhai
sadar naman
poonam

shephali 9/16/2011 11:09 AM  

सारे ख्वाब झर गए हैं
बन कर बूंद - बूंद
भीगी पलकों को इसका
कुछ एहसास भी नहीं |



ख्वाबों का टूटना बहुत दुखता है

ZEAL 9/16/2011 11:38 AM  

जिंदगी में अक्सर इस तरह की उदासीनता आ जाती है
बहुत तरीके से अभिव्यक्त किया है।

vandana gupta 9/16/2011 12:39 PM  

कल पहला कमेंट करती मगर कमेंट बाक्स ही नही खुला मेरे यहाँ नेट की प्राब्लम चल रही थी अब सही हुआ है………पढ तो कल ही ली थी।

सारे ख्वाब झर गए हैं बन कर बूंद - बूंद
भीगी पलकों को इसका कुछ एहसास भी नहीं

उफ़ मार ही डाला……………यही है ज़िन्दगी की तल्ख सच्चाई…………कुछ खलिश कांटा बनकर उम्रभर चुभती हैं।

कुमार राधारमण 9/16/2011 1:09 PM  

नैराश्य को इस क़दर हावी हो जाने देना ही आत्महत्या का कारण बनता है। हैं और भी ग़म ज़माने में.....

Anita 9/16/2011 1:10 PM  

आपकी कविता पढकर यह गीत याद आ रहा है जिंदगी, तुझसे नाराज नहीं हैरान हूँ मैं..बहुत भावपूर्ण कविता !

Suman 9/16/2011 2:09 PM  

बहुत सुंदर भाव पिरोये है
पर इतनी निराशा क्यों ?

Sonroopa Vishal 9/16/2011 4:06 PM  

शब्द और भाव का अदभुद सामंजस्य ......

Aruna Kapoor 9/16/2011 6:00 PM  

चंद लब्जों में...कितना कुछ बयाँ कर दिया आपने!...बहुत खूब संगीताजी!

Minakshi Pant 9/16/2011 6:25 PM  

बहुत खूबसूरत रचना |

Dr Varsha Singh 9/16/2011 7:19 PM  

घर की सूरत में
मिला था मुझे एक मकाँ
ढह गयीं सारी दीवारें
अब कुछ निशाँ भी नहीं |


मन को उद्वेलित करने वाली मार्मिक रचना.... आपको मेरी हार्दिक शुभकामनायें.

Dr (Miss) Sharad Singh 9/16/2011 7:47 PM  

पसरा है एक सन्नाटा
संवादों के बीच
गैरज़रूरी संवादों का
कोई सिलसिला भी नहीं |


हमेशा की तरह बहुत गहराई है आपकी कविता में...
गहन अनुभूतियों से परिपूर्ण इस कविता के लिए बधाई।

Asha Joglekar 9/16/2011 9:18 PM  

पसरा है एक सन्नाटा
संवादों के बीच
गैरज़रूरी संवादों का
कोई सिलसिला भी नहीं |

सारे ख्वाब झर गए हैं
बन कर बूंद - बूंद
भीगी पलकों को इसका
कुछ एहसास भी नहीं |

बढती उम्र का एक सच यह भी । पर कम उम्र वालों को हौसला और हिम्मत दोनों की आवश्यकता है । सुंदर, बहुत सुंदर ।

S.M.HABIB (Sanjay Mishra 'Habib') 9/16/2011 9:28 PM  

जिन्दगी कैसी है पहेली हाये...
प्रसन्न है वो जो इसे सुलझाये...

सुन्दर अभिव्यक्ति दी....
सादर...

डॉ. मोनिका शर्मा 9/16/2011 10:36 PM  

गहरे भाव समेटे बेहतरीन अभिव्‍यक्ति ....बधाई

अरुण कुमार निगम (mitanigoth2.blogspot.com) 9/17/2011 12:37 AM  

केवल सन्नाटा ही सन्नाटा.
सपने झरे फूल से, मीत चुभे शूल से
लुट गये सिंगार सभी, राह में बबूल से
...........................
कारवाँ गुजर गया गुबार देखते रहे.

Sapna Nigam ( mitanigoth.blogspot.com ) 9/17/2011 7:36 AM  

अंतर्मन की पीड़ा का शब्द-रूप , सन्नाटे में भी बहुत कुछ कह गया.

मुदिता 9/17/2011 8:42 AM  

दीदी..

शब्द संयोजन उम्दा है..कविता में अंतर्मन के भाव भी खूब उभर कर आये हैं...

पसरा है एक सन्नाटा संवादों के बीच गैरज़रूरी संवादों का कोई सिलसिला भी नहीं |

घुटन भरी स्थिति होती है यह... लेकिन कभी ना कभी आ ही जाती है...

बाकी जो मैं नहीं लिख रही हूँ वो आप जानती हैं :) :)... लव यू

चन्द्र भूषण मिश्र ‘ग़ाफ़िल’ 9/17/2011 10:53 AM  

बहुत सुन्दर प्रस्तुति...वाह!

दर्शन कौर धनोय 9/17/2011 11:18 AM  

सारे ख्वाब झर गए हैं
बन कर बूंद - बूंद
भीगी पलकों को इसका
कुछ एहसास भी नहीं |

वाह ! क्या बात हें ..? दी. माफ़ी ! काफी दिनों बाद आना हुआ ? डेशबोर्ड के बंद रहने से कुछ पता ही नहीं चला ...
खेर ,आज की कविता न जाने क्यों मेरे दिल के करीब लगी ...बहुत सुंदर भावनाए हें ... धन्यवाद !

दिगम्बर नासवा 9/17/2011 2:33 PM  

कुछ उदासी लिए है ... अंतर्मन को छूती हुयी है आज की रचना ...

विनोद कुमार पांडेय 9/17/2011 6:24 PM  

पसरा है एक सन्नाटा संवादों के बीच गैरज़रूरी संवादों का कोई सिलसिला भी नहीं |

संगीता जी, सुंदर अभिव्यक्ति... उपर्युक्त लाइन मुझे बहुत ही अच्छी लगी वैसे पूरी कविता कमाल की है..धन्यवाद!

महेन्‍द्र वर्मा 9/18/2011 9:03 AM  

ख़्वाब तो झरने के लिए ही होते हैं।
पलकों को पता न चले- इस पंक्ति ने कविता को गहराई दी है।

www.navincchaturvedi.blogspot.com 9/18/2011 10:09 AM  

ग़ैर ज़रूरी संवादों से वाक़ई चिड़ ही होती है, सुंदर कविता के लिए बधाई।

Suresh kumar 9/18/2011 3:53 PM  

भावपूर्ण बहुत ही खुबसूरत रचना ....

Vaanbhatt 9/18/2011 11:36 PM  

ये खलिश ही है...जो लिखवाती है...रोज़ कुछ...पहले से बेहतर...

सुरेन्द्र सिंह " झंझट " 9/19/2011 1:02 PM  

जीवन से विरक्ति का बहुत प्रभावी चित्रण
चित्र संयोजन ......प्रभाव को.द्विगुणित कर देता है

जन सुनवाई @legalheal 9/20/2011 12:01 AM  

respected sangeetaji,

कुछ ऐसे ब्लॉग हैं जिन्हें बहुत से लोग पसंद करते हैं और हम भी अपवाद नहीं हैं, जैसे ही हमें यह सुखद समाचार मिला कि जन सुनवाई से जुड़े लेखकों व प्राप्त आपबीतियों का संकलन छापने के लिए एक प्रकाशन गृह सहर्ष सहमत है,

हमने कुछ सम्मानित लेखकों को सादर आमंत्रित किया कि वे अपनी किसी एक रचना को, चाहे वह किसी भी विषय पर हो पर रचनाकार स्वयं उसे विशिष्ट एवं प्रकाशन योग्य मानते हों jansunwai@in.com पर भेजें, ताकि उनकी सर्वश्रेष्ठ रचना इस नये प्रकाशन में स्थान पा सके, हालांकि हम स्वीकार करते हैं कि किसी भी लेखक के लिए अपनी सर्वश्रेष्ठ कृति का चुनाव हमेशा मुश्किल होता है.


आगामी प्रकाशन के बारे में यदि आप हमें कोई अमूल्य सलाह या सुझाव देना चाहते हैं जिस से कोई नया आयाम इस से जुड़ सके तो आपका स्वागत है.

मित्रों, शुभचिंतकों व सुधि पाठकों के आशीर्वाद की अभिलाषा में...

Kailash Sharma 9/20/2011 6:25 PM  

घर की सूरत में
मिला था मुझे एक मकाँ
ढह गयीं सारी दीवारें
अब कुछ निशाँ भी नहीं |

....बहुत भावमयी रचना..एक एक पंक्ति अंतस को छू जाती है..आभार

Arvind Jangid 9/20/2011 8:26 PM  

बहुत ही भावपूर्ण रचना, आभार

Kunwar Kusumesh 9/20/2011 9:46 PM  

ये रचना भी प्यारी है और इसकी हेडिंग भी बहुत सटीक है.

जयकृष्ण राय तुषार 9/21/2011 4:54 AM  

आदरणीय संगीता जी बहुत ही खूबसूरत कविता बधाई और शुभकामनाएं |

जयकृष्ण राय तुषार 9/21/2011 4:54 AM  

आदरणीय संगीता जी बहुत ही खूबसूरत कविता बधाई और शुभकामनाएं |

Indranil Bhattacharjee ........."सैल" 9/21/2011 6:08 AM  

घर की सूरत में
मिला था मुझे एक मकाँ
ढह गयीं सारी दीवारें
अब कुछ निशाँ भी नहीं |

अक्सर ऐसा होता है की बसा बसाया घर बस एक मकान में तब्दील हो जाता है ... तो कहीं मुहब्बत के छाँव में कोई मकान घर बन जाता है ...

Suman Sinha 9/21/2011 1:43 PM  

जब मैं फुर्सत में होता हूँ , पढ़ता हूँ और तहेदिल से इन भावनाओं का शुक्रगुज़ार होता हूँ ....

Rakesh Kumar 9/22/2011 9:26 AM  

एक बार फिर से
नई पुरानी हलचल से

आपसे प्यारभरी शिकायत करने कि
आपने सुन्दर हलचल तो मचाई
पर मेरे ब्लॉग पर अभी तक भी आप क्यूँ
नहीं आयीं.

सुन्दर प्रस्तुति के लिए बहुत बहुत आभार.

Amrita Tanmay 9/22/2011 11:08 AM  

समेट लिया है मन के सारे भावों को जो सुन्दर बन पड़ा है.

Dr.NISHA MAHARANA 10/03/2011 9:33 PM  

सारे ख्वाब झर गए हैं
बन कर बूंद - बूंद
भीगी पलकों को इसका
कुछ एहसास भी नहीं |
lajbav.

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