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अनोखी शब्दावली

>> Friday, September 21, 2012


शब्दों का अकूत भंडार 
न जाने कहाँ तिरोहित हो गया 
नन्हें से अक्षत के शब्दों पर 
मेरा मन तो मोहित हो गया । 

बस  को केवल " ब "  बोलता 
साथ बोलता कूल 
कहना चाहता है  जैसे 
बस से जाएगा स्कूल । 

मार्केट  जाने को गर कह दो 
पाकेट - पाकेट कह शोर मचाता 
झट दौड़ कर कमरे से फिर 
अपनी  सैंडिल  ले आता . 

घोड़ा  को वो घोआ  कहता 
भालू  को कहता है भाऊ 
भिण्डी  को कहता है बिन्दी
आलू को कहता वो आऊ । 

बाबा की तो माला जपता 
हर पल कहता बाबा - बाबा 
खिल खिल कर जब हँसता है 
तो दिखता जैसे काशी -  काबा । 

जूस  को कहता है जूउउ 
पानी को कहता है पायी 
दादी नहीं कहा जाता  है 
कहता काक्की  आई । 

छुक - छुक को वो तुक- तुक कहता 
बॉल  को कहता है बो 
शब्दों के पहले अक्षर से ही 
बस काम चला लेता है वो । 

भूल गयी हूँ कविता लिखना 
बस उसकी भाषा सुनती हूँ 
एक अक्षर की शब्दावली को 
मन ही मन मैं गुनती हूँ । 


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होड़.......

>> Thursday, September 13, 2012




पैसे की चमक ने 
चौंधिया दी हैं 
सबकी आँखें 
और हो गए हैं 
लोंग अंधे 
अंधे - आँख से नहीं 
दिमाग से 
पैसे की अथाह चाह ही 
राहें खोलती है 
भ्रष्टाचार  की 
काले बाज़ार की 
अपराध की 
पर क्या 
एक पल भी उनका 
बीतता है सुकूं से 
जो पैसे को 
भगवान बनाये बैठे हैं ? 

जितना कमाते हैं 
उससे ज्यादा पाने की 
लालसा में 
भूल गए हैं 
परिवार के प्रति दायित्व 
इसी लिए नहीं रहा 
संस्कारों में स्थायित्व 
दौड रहे हैं सब 
एक ही दिशा में  बस 
राहें  कोई भी हों 
कैसी भी हों 
मंजिल तक पहुंचना चाहिए 
किसी भी रास्ते बस 
पैसा आना चाहिए 

हो रहें हैं 
खत्म सारे रिश्ते 
भावनाएं मर चुकी हैं 
दिखावे की होड़ में 
संवेदनाएं ढह चुकी हैं 
भूल चुके हैं हम 
नीतिपरक कथ्यों को 
जो मन के द्वार खोलता है 
आज बस सबके  सिर 
पैसा चढ कर बोलता है 
जानते हैं  सब कि
नश्वर  है यह जहाँ 
जाते हुए सब कुछ 
रह जाएगा यहाँ 

फिर भी बाँध कर 
पट्टी अपनी आँखों पर 
भाग रहे हैं 
बस भाग रहे हैं 
सो रहे हैं मन से 
पर कहते हैं कि 
हम जाग रह हैं 
जब नींद खुलेगी तब 
मन बहुत पछतायेगा 
व्यर्थ हुआ सारा जीवन 
हाथ नहीं कुछ आएगा ...


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हमारी वाणी

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