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शापित थी ....... शापित है ...

>> Tuesday, September 17, 2013




उद्गम था कंस का 
एक पापाचार 
नारी पर किया नर ने 
वीभत्स  अत्याचार , 
उग्रसेन की भार्या 
पवनरेखा थीं पतिव्रता 
रूप धर कर  पति का 
द्रुमिल ने था उसको छला , 
भान जब उसको हुआ तो 
विक्षिप्त सी वो हो गयी 
दुर्मिल के इस अंश को 
वो यूं शापित  कर गयी । 
बोया है जो तूने 
मुझमें अपना अंश 
खत्म करेगा उसे 
यादव का ही वंश  
समाज ने भी निर्दोष को 
तिरस्कृत  कर दिया 
पति ने भी उसे स्वयं से 
उपेक्षित कर दिया । 
ज्यों ज्यों बढ़ा बालक 
अचंभित होता रहा 
माँ के एकांतवास पर 
गहनता से सोचता रहा , 
सुन कर ऋषि नारद से 
अपने जन्म की कथा 
भर गया उसका हृदय 
सुन माँ की अंतर व्यथा । 
सबल हुआ जब यही बालक 
लिया बदला अत्याचार का 
पिता को उसने दिखाया 
मार्ग  कारागार  का । 
समाज से उसको कुछ ऐसी 
वितृष्णा सी जाग गयी 
प्रजा पर अत्याचार कर 
धधकती ज्वाला शांत की । 
बच नहीं पाया वो  लेकिन 
माँ के दिये श्राप से 
मुक्ति मिली कृष्ण हाथों 
उसके किए सब पाप से । 
अंतिम समय में  बस उसने 
कृष्ण से ये निवेदन किया 
गर स्वीकारता  समाज माँ को 
तो ये न होता , जो मैंने किया । 
नियति से शापित था वो 
इसलिए ये सब होना ही था 
अंत पाने के लिए   उसे 
ये  सब करना ही था । 

छोड़ दें इतिहास को तो 
आज भी नारी शापित है 
छल से या बल  से 
उसकी अस्मिता लुट जाती है । 
निर्दोष होते हुये भी समाज 
ऐसी नारी को नहीं स्वीकारता 
हृदय पर लगे ज़ख़्मों की 
गहराई को नहीं  नापता । 



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खिड़कियाँ

>> Wednesday, September 4, 2013



ये खुलती और  बंद
होती खिड़कियाँ 
उन पर टंगी 
दो आँखें 
फैलाती हैं 
कितना प्रवाद 
कुछ तर्क 
कुछ कुतर्क 
कर देती हैं 
पास के घरों का 
चीरहरण 
ये खुलती और बंद 
होती खिड़कियाँ , 

नहीं खोलते हम 
मन की खिड़कियाँ 
सारी कुंठाओं से ग्रस्त 
रहते हैं मन ही मन त्रस्त
नहीं करते परिमार्जन 
चलते रहते हैं 
पुरानी लीक पर 
परम्पराओं के नाम 
संस्कारों के नाम 
और धकेल देते हैं 
स्वयं को बंद 
खिड़कियों के पीछे .


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मन के प्रतिबिंब ( काव्य - संग्रह ) / शिखा वार्ष्णेय ........ पुस्तक परिचय

>> Wednesday, August 14, 2013


लंदनवासी शिखा वार्ष्णेय  का नाम किसी परिचय का मोहताज  नहीं   है । उनकी पुस्तक " स्मृतियों में रूस " ( संस्मरण ) काफी सराही गयी है । वो अनेक विधाओं में लेखन करती हैं । आज    " मन के प्रतिबिंब " उनका काव्य संग्रह हाथ में आने पर एक अलग ही अनुभूति का एहसास हुआ ..... ..मन के प्रतिबिंब से शिखा के मन को पढ़ा जा सकता है  जहां वो अपने मन की संवेदनाओं को समेट  काव्य रूप में प्रस्तुत करती हैं । इनकी कवितायें किसी विशेष विषय पर आधारित नहीं हैं ...हर वो विषय वस्तु जो किसी भी संवेदनशील मन को अंदर तक छू जाए इस पुस्तक में संकलित है ।

समसामयिक विषयों पर एक  प्रश्न  चिह्न लगाती कवितायें सोचने पर मजबूर कर देती हैं ...   चीखते प्रश्न --  ऐसी ही कविता है जहां उत्तर की जगह मौन है  और स्तब्धता है । व्यवस्था पर तीखे प्रश्न हैं ...

अपने किसी नागरिक की क्या / कोई जिम्मेदारी लेती है सरकार ? /क्यों एक भी मासूम को नहीं बचा पाती / दुश्मनों के खूनी शिकंजे से ? / कैसे वे मार दिए जाते हैं निर्ममता से / उनकी जेलों में ईंटों से / क्या होते है वहां पुलिस स्टेशन? / क्या बने हैं कानून और अदालतें?

बलात्कार जैसी घटनाओं से व्यथित मन आखिर पूछ ही बैठता है -- प्रलय बाकी है ? इसी संदर्भ में एक कली भी उनकी सशक्त रचना है --

खिलती है वो कली भी  /पर इस हद  तक कि  / एक एक पंखुरी झड़ कर  / गिर जाती है भू पर  / जुदा हो कर  / अपनी शाख से ....

नारी विमर्श पर शिखा अपनी रचनाओं से एक अलग ही दृष्टिकोण रखती हैं ..... हे स्त्री ,  नारी , सौदा इसी क्रम  में ऐसी कुछ रचनाएँ हैं जो मन पर अमिट छाप छोड़ती हैं ....

ज़िंदगी पर अपना उनका एक फलसफा है जो उनकी बहुत सी रचनाओं में झलकता है -

तराजू के दो पलड़ों सी हो गई है जिंदगी.
एक में संवेदनाएं है दूसरे में व्यावहारिकता॥
****************
अपनी जिंदगी की
सड़क के
किनारों पर देखो
मेरी जिंदगी के
सफ़े बिखरे हुए पड़े हैं
**********
काश जिन्दगी में भी
गूगल जैसे ऑप्शन होते
जो चेहरे देखना गवारा नहीं
उन्हें "शो नैवर" किया जा सकता
और अनावश्यक तत्वों को "ब्लॉक "

इस क्षणिका में सोशल साइट्स का प्रभाव बहुत सहजता से ज़िंदगी में उतार दिया है ...

ऐसी ही कुछ रचनाएँ हैं -- करवट लेती ज़िंदगी  , किस रूप में चहुं तुझे मैं , धुआँ  - धुआँ ज़िंदगी  , एक नज़र ज़िंदगी  , भीड़ , पर्दा धूप पे -- जो ज़िंदगी  की हकीकत से रु ब रु कराती हैं । 

ज़िंदगी पर जिस यथार्थता से शिखा की कलम चली है उतनी ही बेबाकी से प्रेम पर भी बहुत कुछ लिखा है .... वैसे भी कवि हृदय में प्रेम का एक विशिष्ट स्थान होता है और इसे शिखा ने अपने अनुभव से और भी विशिष्ट बना दिया है उनकी कुछ रचनाएँ सच ही मन को भावुक कर जाती हैं ... इस शृंखला में मुझे इनकी पुरानी कमीज़  , अब और क्या ?  , ऐ  सुनो बहुत पसंद आयीं ... पुरानी कमीज़ की जगह नयी कमीज़ आ जाती हैं लेकिन शिखा का प्रेम पुरानी कमीज़ के बिम्ब से पहले जैसा ही बना रहता है।  ऐसे ही सब कुछ अर्पण करने के बाद वह सोचती हैं कि अब और क्या अर्पण करूँ ।

रूह अर्पितजान अर्पित
जिस्म में चलती सांस अर्पित
कर दिए सारे अरमान अर्पित
अब और क्या मैं अर्पण करूँ।

सामाजिक सरोकारों से और अपनी मिट्टी से जुड़ी शिखा का मन अमृत रस जैसी कविता के माध्यम से बरस जाता है  जिसमें वर्षा को देख किसान खुश है और सोच रहा है कि इस साल बेटी के हाथ पीले कर देगा .... यतीम , उसका - मेरा  चाँद बच्चों की मासूमियत को कहती बेहतरीन रचनाएँ हैं । 
अपने ख़यालों को , खुद से अनुभव हुये अहसासों को भी उन्होंने  इस पुस्तक में शामिल किया है बर्फ के फाहे , यूं ही कभी कभी , गूंगा चाँद , ख्याली मटरगश्ती , रुकते - थमते से कदम , अपने हिस्से का आकाश ऐसी कुछ कवितायें हैं जो शिखा के मन के अंतर द्वंद्व  को बखूबी कहती हैं ।

भले ही कितना ही मन भावुक हो पर उम्मीद का साथ उनके साथ हमेशा बना रहता है - उम्मीदों  का सूरज , एक बुत मैडम तुसाद में , आज इन बाहों में , चाँद और मेरी गांठ , सीले सपने , उड़ान , उछलूं लपकूँ और छू लूँ  कुछ रचनाएँ हैं जो सकारात्मक सोच को दिखाती हैं । 

कुल मिला कर यह काव्य संग्रह हर रस को आप्लावित करता है माँ को समर्पित उनकी रचनाएँ ... मैं तेरी परछाईं हूँ  और तुझ पर क्या लिखूँ  ऐसी  रचनाएँ हैं जो मन पर गहरा प्रभाव डालती हैं साथ ही पिता के स्नेह में डूबी कवयित्री पुकार उठती है - पापा तुम लौट आओ न ... ।

मन का प्रतिबिंब पढ़ते हुये एक काल्पनिक इन्द्र धनुष प्रकट हो जाता है  जिसमें हर रंग समाया हुआ है .... आशा है इसी तरह के अनुभव हर पाठक महसूस करेगा । पुस्तक को सुरुचि पूर्ण सजाया गया है । कवर पृष्ठ शिखा कि बेटी सौम्या  द्वारा बनाया गया है जो बहुत सुंदर है और इससे यह भी पता चलता है कि उनका परिवार भी उनके कार्यों में रुचि लेता है । शिखा की कविताओं की भाषा सहज , सरल और ग्राह्य है जो हर पाठक को बहुत अपनी सी लगती है ... भले ही हिन्दी विद्व इसे उसकी कमी कहें पर जो कविता पाठकों के हृदय को छू  ले वही असल में रचनाकार का धर्म है । और यह काव्य संग्रह इस बात पर खरा उतरता है । 
मन के प्रतिबिंब के लिए मैं  शिखा को बहुत बहुत बधाई और हार्दिक शुभकामनायें प्रेषित करती हूँ ।



पुस्तक का नाम ---- मन के प्रतिबिंब 
कवयित्री  --- शिखा वार्ष्णेय
पुस्तक का मूल्य - हार्ड बाउंड 170/- और पेपर बैक 100/- रु है जो क्रमश: 10% और 20% की छूट पर उपलब्ध है. 
पृष्ट संख्या - १०४ 
पुस्तक आपको VPP द्वारा भेजी जाएगी.
Subhanjali Prakashan
28/11, Ajitganj Colony, T. P. Nagar, Kanpur-208023, 
Email : subhanjaliprakashan@gmail.com
Mobile : 09452920080

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खोज सत्य की

>> Tuesday, July 9, 2013





सत्य की खोज में
दर बदर  भटकते हुये 
मिली सूर्य रश्मि से 
पूछा क्या तुम सत्य हो 
मिला जवाब ...हाँ हूँ तो 
पर सूर्य से निर्मित हूँ 
यूं ही कुछ मिले जवाब 
चाँद से तो कुछ तारों से 
दीये की लौ  से तो 
जगमगाते जुगनुओं से 
यानि कि
जहां भी उजेरा था 
या रोशनी का बसेरा था 
नहीं था खुद का वजूद 
किसी और के ही द्वारा था 
जब की बंद आँखें 
तो घना अंधेरा था 
अब सत्य को जान गयी 
अंधकार को पहचान गयी 
गर न हो किसी और की रोशनी 
तो --- 
ये तम ही तो सत्य है 
जो कि  सर्वत्र   है । 



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दरकार रोशनी की

>> Monday, June 17, 2013




मैंने खींच रखा  है 
अपने चारों ओर एक वृत 
और सजा रखा है 
चाँद सूरज को 
सितारे भी 
टिमटिमा रहे हैं 
अपनी मध्यम  रोशनी में
फिर भी 
सारे ग्रह ग्रसित हैं 
अंधेरी सी स्याही से 
इन ग्रहों की दशा और 
ब्रह्मांड  का चक्कर 
कब मनोकूल होगा 
कर रही हूँ 
बस इसका इंतज़ार 
अपने खींचे वृत में 
बस है झीनी सी 
रोशनी की दरकार ...


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पुस्तक परिचय --- " मन पखेरू उड़ चला फिर " / सुनीता शानू

>> Sunday, May 19, 2013



 सुनीता शानू ब्लॉग जगत में  कोई  अनचीन्हा  नाम नहीं है । कल उनकी पुस्तक " मन पखेरू उड़ चला फिर " काव्य संग्रह का विमोचन  दिल्ली में हुआ । सुनीता जी का यह पहला काव्य संग्रह है , उनके मन पखेरू का एक पंख जिसने बहुत संतुलित अंदाज़ में उड़ान लगाई है  और यह उड़ान मात्र कल्पना के आकाश की नहीं है बल्कि यथार्थ के धरातल पर चलते हुये अपनी भावनाओं को विस्तार दिया है । 

    जीवन में आई कठिनाइयों से संघर्ष करते हुये आगे बढ़ना ही जिजीविषा  है । जिसे सुनीता जी ने बड़ी सहजता से जिया है । उनकी कवितायें  इस बात को प्रमाणित भी करती हैं । संवेदनशील मन मात्र अपनी ही व्यथा कथा नहीं कहता , इनसे जुड़े हर शख़्स की भावनाओं को कवयित्री ने कविता में बुन डाला है । 
सुनीता जी " अपनी बात " में लिखती हैं कि वो रोज़ जागती आँखों से सपने देखती थीं और क्रमश: लगा देती थीं जिससे अगले दिन फिर उसके आगे सपने बुन सकें । यह बात उनकी सकारात्मक सोच को परिलक्षित करती है । 

कर्तव्य की  वेदी पर जब मन बंधन महसूस कर रहा हो , उस समय किसी के नेह से मन परिंदा बन उड़ने लगे , मन की  भावनाओं को शब्द मिलें और लेखन के रूप में रचनाएँ सृजित होने लगें तो यही महसूस होगा ----
नेह की नज़रों से मुझको 
ऐसे देखा आपने 
मन पखेरू उड़ चला फिर 
आसमां  को नापने । 

सुनीता जी की अधिकांश रचनाएँ प्रेम - पगी हैं । संघर्षमय  जीवन में यदि प्रेम की भावना प्रबल हो तो कठिनाइयों  से पार पाना मुश्किल नहीं -

राहों में तुम्हारी हम , जब जब भी बिखर जाते 
हम खुद को मिटा देते , हम मिट के सँवर जाते । 

प्रेम - रस से सराबोर कुछ रचनाएँ मन को छू जाती हैं --- प्रिय बिन जीना कैसा जीना , एक अजनबी ,ये कौन है ,प्यार में अक्सर , मैं और तुम ,श्याम सलोना ऐसी ही कुछ रचनाएँ हैं ....तस्वीर तुम्हारी कविता की एक बानगी देखिये --

दिल के कोरे कागज़ पर 
खींच कर कुछ 
आड़ी - तिरछी लकीरें 
जब देखती हूँ मैं 
बन जाती है 
तस्वीर तुम्हारी । 

"मैं रूठ पाऊँ " एक ऐसी रचना जहां प्रेम की पराकाष्ठा है -- इसकी अंतिम पंक्तियाँ देखिये -

और सोचती हूँ 
आखिर झगड़ा 
किस बात पर हो 
कि मैं रूठ पाऊँ 
और तुम मुझे मनाओ । 

" फागुन के दोहे " में भी कवयित्री के हृदय का प्रेम  छलछला रहा है - 

रंग अबीर गुलाल से , धरती हुई सतरंग ।
भीगी चुनरी पर चढ़ा , रंग पिया के संग ॥

तो कहीं प्रेम के अतिरेक से होने वाली दुश्चिंता भी नज़र आ रही है - 

दीमक भी पूरा नहीं चाटती 
ज़िंदगी दरख्त की
तुमने क्यों सोच लिया 
कि ' मैं ' वजह बन जाऊँगी 
तुम्हारी साँसों की  घुटन 
तुम्हारी परेशानी की ... 

जीवन के यथार्थ को भोगते हुये इनकी कुछ रचनाएँ बहुत कुछ कह जाती हैं । अनुभव से उपजी रचनाएँ मन को सुकून देती हैं जैसे --- " माँ " 

माँ बन कर जाना मैंने 
माँ की ममता क्या होती है ? 

" क्यों आते हैं गम " में कवयित्री  ने बच्चों की मानसिकता को उजागर किया है कि माता  -पिता की कड़वी बातें याद कर बच्चे उनसे दूरी बना लेते हैं  और उनके प्यार दुलार को भुला बैठते हैं .... 

"डोर " कविता में सुनीता जी ने समाज के सच को दर्शाया है । नारी को पतंग का बिम्ब दे कर कहा है कि यदि पतंग डोर से बंधन मुक्त होना चाहे तो क्या होता है -----

एक आह सुनी 
डोर तोड़ कर  गिरी
एक कटी पतंग की
जो अपना 
संतुलन खो बैठी थी 
लूट रहे थे 
हजारों हाथ 
कभी इधर कभी उधर 
अचानक 
नोच लिया उसको 
कई क्रूर हाथों ने ......

नारी विमर्श पर उनकी कवितायें बड़ी सहजता के साथ समाज के सम्मुख कई प्रश्न खड़े करती हैं ...." चिह्न " में उन्होने पूछा है कि नारी पर ही बंधन के सारे चिह्न क्यों आरोपित होते हैं ? 

किन्तु 
तुम पर 
क्यों नहीं 
नज़र आता 
मेरे , बस मेरे होने 
का एक भी चिह्न ? 

"कन्यादान " में अपनी बात कुछ इस तरह से रखी है --- 

कन्यादान एक महादान 
बस कथन यही एक सुना 
धन पराया कह कह कर 
नारी अस्तित्व का दमन सुना ....
**************
हर पीड़ा सह कर जिसने 
नव - जीवन निर्माण किया 
आज उसी को दान कर रहे 
जिसने जीवन दान दिया । 

"खबर दुनिया बदलने की" रचना बहुत मर्मस्पर्शी है । भ्रूण हत्या से ले कर बलात्कार तक की घटनाओं को समेटे हुये कवयित्री  का यह कथन ---

कहीं सुनी तो होगी खबर 
दुनिया बदलने की .... झकझोर जाता है । 

" वो सुन न सके " कविता नारी हृदय के क्रंदन को सशक्त रूप से उकेरती है । नारी का सारा जीवन पुरुष के दंभ के नीचे सिसकता रहा और जब सब्र का बांध टूटा और अपनी बात कहने  की हिम्मत आई तो----

उम्र की ढलान में 
दीवारें दरक गईं 
कालीन फट गए 
अब सब्र का दामन छूटा
घूँघट हटा 
पलकें उठीं 
वह झल्लाई 
चिल्लाई ज़ोर से ...

अब बाबूजी ऊंचा सुनते हैं । 

'कामवाली ' ' मासूमियत ' ' गरीब की बेटी ' ऐसी रचनाएँ हैं जो सोचने पर विवश कर देती हैं । 
हे अमलतास , धरती का गीत , पंछी तुम कैसे गाते हो , ओढा दी चूनर , ऐसी कवितायें हैं जो सुनीता जी के प्रकृति प्रेम को दर्शाती हैं । 

यूं तो इस पुस्तक की हर रचना मन को प्रभावित करती है लेकिन इनके द्वारा रचित " जन गीत : 
मन मारा मारा फिरता है " मन को उदद्वेलित कर देती है ।  बिना किसी का नाम लिए ऐतिहासिक और धार्मिक पात्रों को लेकर जो गीत लिखा है वो अनेक प्रश्न छोड़ जाता है ... कवयित्री कल्पना कर रही हैं कि  शायद इस दर्द को दूर करने कोई शिल्पकार आएगा ----

एक नारी ने एक नारी को 
अपने बेटों में बाँट दिया 
बेटों ने फिर उस नारी को 
पासों में धन - सा छांट दिया ....
****************
यह हूक  मिटाने की खातिर 
कोई शिल्पकार यहाँ आएगा 
और पथरीले इस जीवन को 
नन्दन वन सा महकाएगा । 

पुस्तक में कविताओं के साथ ही रचनाकार की चित्रकारी भी है जो नारी की व्यथा को चित्रित करने में सक्षम रही है । 
कवयित्री सुनीता शानू जी को उनके " मन पखेरू उड़ चला फिर " काव्य संग्रह पर मेरी हार्दिक बधाई और शुभकामनायें । यही कामना है कि वो इसी तरह मानवीय और सामाजिक सरोकार से जुड़ निरंतर काव्य सृजन  करती रहें । 

पुस्तक का नाम --- मन पखेरू उड़ चला फिर 

कवयित्री  ------ सुनीता शानू 

 ISBN - 978-93-81394-39-7

प्रकाशक - हिन्द - युग्म 

मूल्य - 195 / Rs . 

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माँ ..........

>> Saturday, May 11, 2013



माँ शब्द में ---  
मात्र  एक वर्ण 
और एक मात्रा 
जिससे शुरू होती है 
सबकी जीवन यात्रा 
माँ ब्रह्मा  की तरह 
सृष्टि  रचती है 
धरा की तरह 
हर बोझ सहती है 
धरणि बन  हर पुष्प 
पल्लवित  करती है 
सरस्वति बन 
संस्कार गढ़ती है 
भले ही खुद हो अनपढ़ 
पर ज़िंदगी की किताब को 
खुद  रचती है 
माँ हर बच्चे के लिए 
लक्ष्मी  रूपा  है 
खुद अभाव सहती है 
लेकिन बच्चे के लिए 
सर्वस्व देवा है ,
माँ बस जानती है देना 
उसे मान अपमान से 
कुछ नहीं लेना 
माँ के उपकारों का 
न आदि है न अंत 
जो  माँ को पूजे 
वही है सच्चा संत । 


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कविता कहाँ है ?????????

>> Friday, April 26, 2013




आठ - नौ साल की बच्ची 
माँ की उंगली थाम 
आती है जब मेरे घर 
और उसकी माँ 
उसके हाथों में 
किताब की जगह 
पकड़ा देती है झाड़ू 
तब दिखती है मुझे कविता ।



अंधेरी रात के 
गहन सन्नाटे को 
चीरती हुई 
किसी नवजात बच्ची की 
आवाज़ टकराती है 
कानो से 
जिसे उसकी माँ 
छोड़ गयी थी 
फुटपाथ पर 
वहाँ मुझे दिखती है कविता ॰


कूड़े  के ढेर पर 
कूड़ा बीनते हुये 
छोटे छोटे  बच्चे 
लड़  पड़ते हैं 
और उलझ जाते हैं 
पौलिथीन पाने के लिए 
उसमें दिखती है कविता ।


व्याभिचार  ही व्याभिचार 
बलात्कार ही बलात्कार 
सोयी हुई व्यवस्था 
अनाचार ही अनाचार 
मरी हुई  संवेदनाएं
भाषण पर भाषण 
भूख पर राशन 
निर्लज्ज प्रशासन 
लाचार कानून 
अब मुझे  नहीं दिखती 
कहीं कोई कविता । 



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हमारी वाणी

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