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पुस्तक समीक्षा .... बदलती सोच के नए अर्थ .... वंदना गुप्ता

>> Tuesday, January 20, 2015



हिंदी अकादमी दिल्ली के  सौजन्य से प्रकाशित सुश्री  वंदना गुप्ता जी का काव्य संग्रह “ बदलती सोच के नए अर्थ “ सोच को बदलने की पूर्ण क्षमता  रखता है . इस काव्य संग्रह को पढ़ते हुए कई बार ये महसूस हुआ कि आज मात्र सोच ही नहीं बदल रही है वरन उसके अर्थ भी बदल रहे हैं . वंदना  के लेखन की एक अलग ही विशेषता है . वो अपनी  रचनाओं के मध्यम से एक ही विषय पर  अपने मन में उठने वाले संशयों  को विस्तार से रखती हैं और  फिर उन संशय के उत्तर खोजती हुई अपना एक पुख्ता विचार रखती हैं और  पाठक उनकी प्रवाहमयी शैली से बंधा उनके प्रश्न उत्तर को समझता हुआ उनके विचार से सहमत  सा होता प्रतीत होता है . इस  काव्य संग्रह में काव्य सौन्दर्य से परे विचार और भाव की  महत्ता है इसीलिए  इसका नाम “बदलती सोच के नए अर्थ”  सार्थक है .
अपने इस काव्य संग्रह को वंदना जी  ने चार भागों में विभक्त  किया है ... प्रेम , स्त्री विषयक , सामजिक  और दर्शन . प्रेम एक  ऐसा विषय जिस पर न जाने कितना कुछ लिखा गया है लेकिन वंदना जी जिस प्रेम की तलाश में है वो मन की उड़ान और गहराई दोनों ही दिखाता है . वह प्रेम में देह को गौण  मानते  हुए लिखती हैं ...
जानते हो / कभी कभी ज़रूरत होती है / देह से इतर प्रेम की ... राधा कृष्ण सा /

एक अनदेखा अनजाना सा व्यक्तित्त्व जिसके माध्यम से प्रेम की पराकाष्ठा का अहसास होता है –

चलो आज तुम्हे एक बोसा दे ही दूँ ....उधार समझ कर रख लेना /कभी याद आये तो .. तुम उस पर अपने अधर  रख देना / मुहब्बत निहाल हो जाएगी . 

कुछ ऐसे विषय जिन्हें आज भी लोग वर्जित समझ लेते हैं  उस पर इन्होने अपनी बेबाक  राय देते हुए अपने विचार  रखे हैं इसी कड़ी में उनकी एक रचना है प्रेम का अंतिम लक्ष्य  क्या .... सैक्स ? अपने विचारों को पुख्ता तरीके से रखते हुए उनका कहना  है कि सैक्स  के लिए  प्रेम का होना ज़रूरी नहीं  तो दूसरी ओर जहाँ आत्मिक प्रेम होता है वहां देह का भान भी नहीं होता .

उनका प्रेम सदाबहार है .... तभी कहती हैं कि प्रेम कभी प्रौढ़ नहीं होता .

स्त्री विषयक  रचनाओं में उन्होंने सदियों से स्त्री के मन में घुटे , दबे भावों को शब्द दिए हैं . पुरुष प्रधान समाज में स्त्रियाँ अब अपने वजूद की तलाश में हैं और शोषित होते होते  अघा गयी हैं .... अब विस्फोट की स्थिति  आ गयी है तो विद्रोह तो होना ही है ....
मर्दों के शहर की अघाई औरतें / जब उतारू हो जाती हैं विद्रोह पर / तो कर देती हैं तार तार / साडी लज्जा की बेड़ियों को / उतार देती हैं लिबास हया का / जो ओढ़ रखा था बरसों से  , सदियों ने / और अनावृत हो जाता है सत्य / जो घुट रहा होता है औरत की जंघा और सीने में . 

स्त्रियों  में जो प्राकृतिक शारीरिक परिवर्तन होते हैं और उसके कारण होने वाले बदलाव पर भी वंदना जी ने अपनी लेखनी चलाई है ... ऋतुस्राव से मीनोपाज़  तक का सफ़र . ... ये  ऐसे विषय हैं जिन पर शायद ही इससे पहले किसी रचनाकार का ध्यान गया हो . स्त्री विषयक रचनाओं में विद्रोह के स्वर मुखरित हुए हैं . “कागज़ ही तो काले करती हो “ में स्पष्ट रूप से इंगित कर दिया है कि ये लिखना लिखाना बेकार है जब तक कोई अर्थ ( पैसा )  नहीं मिलता . अंतिम पंक्तियों में भावनाओं को निचोड़ कर रख दिया है ...
ये वो समाज है / जहाँ अर्थ ही प्रधान है / और स्वांत: सुखाय का यहाँ कोई महत्तव  नहीं / शायद इसीलिए / हकीकत की  पथरीली ज़मीनों पर पर पड़े फफोलों  को रिसने की इजाज़त  नहीं होती ...

विद्रोह के स्वर की एक बानगी ये भी  ----
हाँ बुरी औरत हूँ मैं / मानती हूँ ../ क्यों कि जान  गयी हूँ /  अपनी तरह / अपनी शर्तों पर जीना

इनकी  कविताओं के शीर्षक से ही विद्रोह का स्वर गूंजने लगता है ... जैसे ... खोज में हूँ  अपनी प्रजाति के अस्तित्व  की , आदिम पंक्ति की एक क्रांतिकारी रुकी हुई बहस हूँ मैं ... क्यूँ कि तख्ता पलट यूँ ही नहीं हुआ करते . 

कवयित्री की लेखनी जहाँ प्रेम , समाज और स्त्री विषयक  विषयों  पर चली है वहीँ कुछ दार्शनिक भावों को भी समेटे हुए है .जीवन दर्शन के लिए मन  को मथना पड़ता  है बिलकुल उसी तरह जैसे मक्खन   निकालने के लिए दूध को .... "प्रेम , आध्यात्म और जीवन दर्शन”  में इस भाव को वंदना जी ने बखूबी वर्णित किया है .
“सम्भोग से समाधि  तक “ ने इन शब्दों के शाब्दिक अर्थ और परिभाषा को समझाते हुए ईश्वर तक पहुँचने का मार्ग प्रशस्त किया है . कुछ पंक्तियाँ देखिये ...
जीव रूपी यमुना का / ब्रह्म रूपी गंगा के साथ / सम्भोग उर्फ़  संगम होने पर / सरस्वती में लय हो जाना ही / आनंद या समाधि है . ...
कभी कभी शब्दों के तात्विक अर्थ इतने गहन होते हैं जो समझ से परे होते हैं और उन्होने उन्ही अर्थों को खूबसूरती से विवेचित किया है और ऐसा तभी संभव है जब कोई उन लम्हात से गुजरा हो या गहन चिन्तन मनन किया हो ।

कवयित्री ने वैज्ञानिक दृष्टिकोण को भी दर्शन में समा लिया है ...ईश्वर की खोज जिसे सब खोज रहे हैं मात्र एक अणु.... और एक अणु ही तो है “मैं  “ इसी की खोज में प्रयासरत है .

इस काव्य संग्रह की एक दो रचनाओं को छोड़ दें तो सभी लम्बी  कविताओं का रूप लिए हैं . और इनका लम्बा होना लाज़मी भी था क्योंकि  सभी विचार प्रधान रचनाएँ हैं . हो सकता है कि पाठक लम्बी कविताओं को पढ़ने का हौसला न रखे  पर मैं ये दावे से कह सकती हूँ कि ...   वंदना जी की प्रवाहमयी शैली और उनके तर्क वितर्क पाठकों को बांधे रहेंगे  और पाठक कविता ख़त्म करते करते उस विषय से जुदा महसूस करेगा . यह काव्य संग्रह  पाठक की भावनाओं को उद्द्वेलित  करने में पूर्णत:  सक्षम है .
वंदनाजी के ब्लॉग की  नियमित पाठिका हूँ और उनके लेखन की प्रशंसिका भी . इस काव्य संग्रह में ब्लॉग से इतर भी रचनाओं का संकलन है ... इस काव्य सग्रह के लिए मैं उनको हार्दिक बधाई देती हूँ  और कामना करती हूँ कि उनके ये स्वर यूँ ही बुलंद रहें और जो उन्होंने एक ख्वाहिश इस संग्रह में रखी है (  विद्रोह के स्वर सहयोग के स्वर में परिवर्तित हों )  पूरी हो . शुभकामनाओं के साथ ...

हिंदी चेतना पत्रिका के जनवरी से मार्च अंक में प्रकाशित पुस्तक समीक्षा . 


18 comments:

vandana gupta 1/20/2015 1:08 PM  

दी आपके द्वारा की गयी समीक्षा दिल में उतर गयी ..........किन लफ़्ज़ों में शुक्रिया अदा करूँ समझ ही नहीं आता .

दिगम्बर नासवा 1/20/2015 1:11 PM  

विस्तृत और बहुत ही सुन्दर समीक्षा .. पुस्तक के हर पहलू को बारीकी से देहा और लिखा है आपने ... वंदना जी को बधाई इस पुस्तक प्रकाशन पर और आपको भी बधाई इस लाजवाब समीक्षा की ...

सदा 1/20/2015 5:45 PM  

वंदना जी की लेखनी और आपकी समीक्षा दोनो ही जबरदस्‍त ............ वंदना जी को बहुत-बहुत बधाई आपका आभार

Neeraj Neer 1/20/2015 7:15 PM  

बहुत ही सुंदर समीक्षा ... वंदना जी को मेरी ओर से बधाई कहिएगा ...

डॉ. मोनिका शर्मा 1/21/2015 9:50 AM  

बेहतरीन समीक्षा ...वंदना जी का लेखन यकीनन प्रभावी है |
आप दोनों को शुभकामनायें

संजय भास्‍कर 1/21/2015 10:06 AM  

समीक्षा रचनाओं के अनुकूल ही है संगीता जी ... बधाई वंदना जी को इस प्रकाशन पर

संजय भास्‍कर 1/21/2015 10:07 AM  

वंदना जी को नियमित ब्लॉग पर पढता हूँ ... उनकी रचनाएं हमेशा भावपूर्ण और यथार्थ की धरातल पर होती हैं ... आप दोनों को शुभकामनायें

कविता रावत 1/21/2015 10:59 AM  

बहुत सुन्दर पुस्तक समीक्षा ..
वंदना गुप्ता जी को हार्दिक शुभकामनायें!

shikha varshney 1/21/2015 2:59 PM  

बढ़िया पुस्तक की बढ़िया समीक्षा.
वहाँ आते ही लेते हैं.

Himkar Shyam 1/24/2015 8:07 PM  

बहुत सुंदर समीक्षा...मंगलकामनाएँ!!

प्रसन्नवदन चतुर्वेदी 'अनघ' 1/29/2015 6:53 PM  

बेहतरीन समीक्षा...आपको बहुत बहुत बधाई...
नयी पोस्ट@मेरे सपनों का भारत ऐसा भारत हो तो बेहतर हो
मुकेश की याद में@चन्दन-सा बदन

Onkar 1/29/2015 9:41 PM  

सुन्दर प्रस्तुति

Ravikant yadav 1/30/2015 9:08 PM  

बहुत सराहनीय प्रयास कृपया मुझे भी पढ़े | :-)
join me facebook also ;ravikantyadava@facebook.com

Rajeev verma 4/13/2015 11:31 PM  

मंगलकामनाएँ!!

Asha Joglekar 5/01/2015 7:17 PM  

आपकी समीक्षा कविताओं को और गहराई से जानने की उत्सुकता बढाती है। वंदना जी और आप दोनों को बहुत बधाई।

Anju 5/14/2015 12:59 PM  

सुन्दर समीक्षा ...हर पहलू पर अवलोकन
बहुत बधाई आप को और वंदना जी को .....
चाह " राधा कृष्ण "से प्रेम की ......
राह दे कोई तो वो एक ही ..राह दे राधे !!

पूनम श्रीवास्तव 8/27/2015 11:12 AM  

samixha ke ek ek shabd bhavnaao v gaharaai se paripurn hain.prashansaa ke liye shabd nahi mil rahe hain.kya likhun. bahut bahut hipreranarthak post---poonam

जमशेद आज़मी 10/13/2015 9:48 PM  

हमारे सम्‍मुख बहुत ही अच्‍छी समीक्षा प्रस्‍तुत की है आपने।

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