शून्यता
>> Tuesday, February 24, 2009
जब कभी मन में
शून्यता घर कर जाती है
तो सोचें सब कुंद हो
मन को जलाती हैं
चाहूँ भी इस जलन से
बाहर आना
सोच फिर मुझे
शून्यता में ले जाती हैं ।
सोचो तो -
क्यों हो जाती है
ज़िन्दगी में नीरसता
क्या है जो मुझे
मन ही मन कचोटता है
शायद मन का है
ये एकाकीपन
जो ऐसा सोचने पर
मुझे विवश करता है ।
फिर आँख बंद कर
मैं ध्यान लगाती हूँ
लगता है कि -
मेरी सोचों को
पंख मिल गए हैं
बंद आँखों से
आसमां दिखता है
शून्य भी सारे
न जाने कहाँ खो गए हैं
छंट जाती हैं सारी निराशाएं
और मिल जाता है
मन से मन मेरा
सारा ब्रह्माण्ड समां जाता है
शून्यता में
जलन को भी
मिल जाती है शीतलता .