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स्याह रात

>> Tuesday, July 27, 2010



मेरी ज़िंदगी में,


अमावस क्यों है


स्याह रात की ये 


तन्हाईयां क्यों हैं


चाँद भी आसमाँ पर


दिखता नही है


चाँदनी का भी कोई


नामों निशाँ नही है


तारों की झिलमिलाहट ही


सुखद लग रही है


जैसे कि ना जाने


कितने स्वप्न


आसमाँ पे टंग गये हैं 


यहाँ से खड़ी मैं


देखती हूँ जब


जैसे कि सपने सब 


जीवंत हो उठे हैं


सुकून मिलता है


उन सपनों को देखने से


लगता है कि ज़िंदगी में


पूर्णिमा आ गयी है


पर ----


सपने तो बस सपने हैं


हक़ीकत में तो--


ये स्याह रात आ गयी है..





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बलात्कार ??????????????????

>> Friday, July 23, 2010




बलात्कार,

केवल नहीं होता 

नारी देह का ,

और ना ही 

यह शब्द 

बंधा है 

मात्र 

नारी की ही 

संवेदनाओं से ,


असीमित है 

इस शब्द की 

परिभाषा ,

नर और नारी 

दोनों ही 

चाहे - अनचाहे 

अभिशप्त हो जाते हैं 

इस शब्द की 

परिधि में .



बस होता है यूँ 

कि

भुगतना पड़ता है 

परिणाम 

मात्र नारी देह को 

पुरुष देह तो 

परिणाम से परे है



जब भी 

अनचाही इच्छा 

थोप दी जाती है 

एक पक्ष की 

दूसरे पक्ष पर 

तो - 

हो जाता है 

बलात्कार ....






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ज़रा मैं भी तो देखूं ! ..

>> Tuesday, July 20, 2010


चाँद हूँ वो  

जो अँधेरी रातों से 

मुहब्बत करता है

अंधकार  हूँ  वो 

जो गगन के तारों से 

मुहब्बत करता है

तन्हां हूँ 

खुद जिसे 

तन्हाई से मुहब्बत है

और 

उजाला भी हूँ 

जिसे किरण से 

मुहब्बत है

मौसम की 

नजाकत को तो 

समझ नहीं पाया 

ये दिल

बस बादल की तरह 

बरस धरती से 

गया मिल

समंदर हूँ 

वो जिसकी 

हर लहर प्यासी है

नदी हूँ वो  

जो पानी के लिए 

उदासी  है

मौज  हूँ वो 

जो हर तूफ़ान से 

टकराती  है

तितली  नहीं  हूँ 

जो हर फूल पर 

मंडराती है

वो  गुलाब   हूँ 

जो हमेशा 

काँटों का साथ 

निभाता है

कमल हूँ ऐसा 

जो कीचड़ में भी 

खुद को खिलाता है

तो  ऐ 

मुहब्बत करने वाले    

कभी   तू   हमसे भी तो 

आ कर मिल

मैं भी तो देखूं  

ज़रा कैसा होता है 

मुहब्बत भरा दिल  |







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ज़िंदगी का गणित

>> Wednesday, July 14, 2010


Life quotes



ज़िन्दगी ,

गणित के 

सवालों की  तरह 

कहीं जोड़  है 

तो कहीं घटाना ,

कभी गुणा है 

तो कभी भाग ,

और जब 

आ जाती है 

भिन्न  की परिस्थिति 

तो  होता है सामना 

कठिनाइयों का ,

न जाने 

कितनी तरह के 

कोष्ठों  में बंटीं 

ज़िन्दगी 

उलझ - उलझ 

जाती है ,

क्रमवार  हल 

न किया जाए 

तो हर बार 

मिलते हैं 

कुछ गलत आंकड़ें,

कोणों में बंटी 

ज़िंदगी 

कब कितने 

डिग्री का एंगल

बन जाती है 

पाईथागोरस  प्रमेय 

की तरह .


लोग 

यूँ ही तो 

नहीं कहते 

कि  गणित 

कठिन होता है  |

pythagoras theorem



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कविता यूँ बनती है....

>> Tuesday, July 6, 2010





भावों  की सरिता 

बह कर जब 

मन के सागर में 

मिलती है 

शब्दों के मोती 

से  मिल कर 

फिर कविता बनती है .


व्यथित से 

मन में जब 

एक अकुलाहट 

उठती है 

मन की 

कोई लहर जब 

थोड़ी सी 

लरजती है 

मन मंथन 

करके फिर 

एक कविता बनती  है..


अंतस की 

गहराई में 

जब भाव 

आलोडित होते हैं 

शब्दों के फिर 

जैसे हम  

खेल रचा करते हैं 

खेल - खेल में ही 

शब्दों की 

रंगोली सजती है 

इन रंगों से ही फिर 

एक कविता बनती है ...

.


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स्व अस्तित्व

>> Friday, July 2, 2010







बोली के दंशों में 
कितना विष रखते हो 
ज़ेहन के हर कोने में 
गरल  पैबस्त करते हो .

क्यों नहीं सीखते तुम 
कुछ गुड़ की सी बातें करना
आसान हो जाता फिर 
इस कड़वाहट  को पीना .

अहम् तुम्हारा  जब भी 
सिर चढ़ कर बोलेगा 
मेरा निज अस्तित्व  
यूँ ही डग मग डोलेगा .

नहीं चाहती हूँ कि
यूँ टूट बिखर मैं जाऊं 
इस बिखरन से बचने की
कौन शक्ति कहाँ से पाऊं ?   

बस मूँद  कर 
मैं पलकों को 
स्व - अस्तित्व    
एकत्र  करती हूँ 
और फिर से मैं इस 
मैदान ऐ जिंदगी  में 
उतर पड़ती हूँ . 



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