आज मैं अपनी बहुत पुरानी रचना आप सबके साथ बाँटना चाहती हूँ....ये तब लिखी गयी थी जब मैंने कुछ यूँ ही लिखना शुरू किया था...कॉलेज के अंतिम वर्ष में थी....१९७४ की लिखी ये रचना आज भी शायद कमोवेश वही कह रही है....हालात में कोई खास
परिवर्तन नहीं आया है....
सोचा मैंने एक दिन , इस जगत में सैर करूँ
अपनी कल्पना की लहरों पर धीरे धीरे तैर चलूँ
तभी विचार आया मन में ,कल्पना से उपर उठूँ
खुद चलते चलते इस धरती पर पग रखूं |
जब धरा पग मैंने पृथ्वी पर
एहसास हुआ ऐसा
ज़िन्दगी के चार दिन औ
फिर भी जीवन है कैसा ?
इधर निगाह उठी तो पाया
कृषक श्रमदान कर रहा था
ज़रा हाथ रुके नहीं थे
ऐसी मेहनत कर रहा था
आँखें धंसी हुईं थी अन्दर
भूखा पेट पिचक रहा था
पसीने की कंचन बूंदों से
तन उसका चमक रहा था .
देख उसकी ये हालत
एक आघात हुआ यूँ मन पर
जीवन पाला जग का जिसने
रक्त दीखता उसके तन पर .
कुछ पग और चले थे आगे
एक आलिशान भवन खड़ा था
श्रमिकों का शोषण कर कर के
खुद को गर्वित समझ रहा था .
कहा गर्व से उसने ऐसे
ये सब मेरे कर्मो का फल है
करा ज़िन्दगी भर श्रम उसने
लेकिन फिर भी निष्फल है .
तब पूछा मैंने उससे
सुन तेरे कर्म कैसे हैं
हँस कर बोला मुझसे यूँ
सब धन की आड़ में छिपे हैं
सोचा मैंने धन कैसा है
जो सब कुछ छिपा लेता है
पाप को पुण्य और
पुण्य को पाप बना देता है .
सोचते सोचते घर की ओर बढ़ चले कदम
कि लोगों को धन का है कैसा भरम
एक दिन फिर उस ओर कदम बढ़ गए
जहाँ पर कृषक और भवन थे मिले
देखा वहाँ जा कर कि
कृषक मग्न हो काम कर रहा था
पसीना पोंछ वो खेत जोत रहा था
दृष्टि गयी भवन पर तो मैंने ये पाया
कि मात्र एक खंडहर वहाँ खड़ा था .
उसे देख मुझे उसी की बात का ख्याल आया
कि कर्मों के अनुसार आज तूने ये फल पाया
मेरे मुंह से उस वक़्त ये शब्द निकल गए
ना फंसना तू इस भ्रम जाल में
वरना इन्सां तो यहाँ यूँ ही छले गए ...
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