रे ! मन
>> Thursday, December 22, 2022
रे मन !
तू है क्यों एकाकी !
ये भव -सागर मोह - माया
अब तलक तुझे
समझ न आया ?
मोह की गठरी तूने
क्यों काँधे पर उठा ली ?
रे मन ! तू है क्यों एकाकी ?
ये रिश्ते - नाते सब
बंधन हैं सामाजिक
मन के बन्ध नहीं दीखते
क्यों भटके मन बैरागी
भ्रम में जीना छोड़ रे मन
बन जा तू सन्यासी
रे मन ! चल तू एकाकी !
कौन यहाँ किसका साथी है
जान न पाया कोई
कर्म बंधन से बंधे हुए सब
कैसे पाएँ आज़ादी ?
नित बंधन ही काट- काट
मन होगा आह्लादी।
रे मन ! चल तू एकाकी !
क्यों बाँधा मन को तूने है
और पीड़ा को पाया
मेरा - तेरा कुछ नहीं जग में
सब भ्रम की है छाया ।
इस छाया को हटा नैनों से ,
बन जा तू वीतरागी ,
रे मन ! अब तो चल एकाकी ! .