रे ! मन
>> Thursday, December 22, 2022
रे मन !
तू है क्यों एकाकी !
ये भव -सागर मोह - माया
अब तलक तुझे
समझ न आया ?
मोह की गठरी तूने
क्यों काँधे पर उठा ली ?
रे मन ! तू है क्यों एकाकी ?
ये रिश्ते - नाते सब
बंधन हैं सामाजिक
मन के बन्ध नहीं दीखते
क्यों भटके मन बैरागी
भ्रम में जीना छोड़ रे मन
बन जा तू सन्यासी
रे मन ! चल तू एकाकी !
कौन यहाँ किसका साथी है
जान न पाया कोई
कर्म बंधन से बंधे हुए सब
कैसे पाएँ आज़ादी ?
नित बंधन ही काट- काट
मन होगा आह्लादी।
रे मन ! चल तू एकाकी !
क्यों बाँधा मन को तूने है
और पीड़ा को पाया
मेरा - तेरा कुछ नहीं जग में
सब भ्रम की है छाया ।
इस छाया को हटा नैनों से ,
बन जा तू वीतरागी ,
रे मन ! अब तो चल एकाकी ! .
18 comments:
सादर नमन
कभी मैं इस समय पढ़ने नहीं निकलती
आज पता नहीं कैसे भटक गई
क्यों बाँधा मन को तूने है
और पीड़ा को पाया
मेरा - तेरा कुछ नहीं जग में
सब भ्रम की है छाया ।
सादर
ये रिश्ते - नाते सब
बंधन हैं सामाजिक
मन के बन्ध नहीं दीखते
क्यों भटके मन बैरागी
सांसारिक मोह-माया से दूर निस्पृह भाव से ओतप्रोत गहन सृजन । मन पर गहराई से असर करते भाव ।अत्यंत सुन्दर और हृदयस्पर्शी भावाभिव्यक्ति ।सादर सस्नेह वन्दे आ. दीदी!
जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना शुक्रवार २३ दिसंबर २०२२ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
कौन यहाँ किसका साथी है
जान न पाया कोई
कर्म बंधन से बंधे हुए सब
कैसे पाएँ आज़ादी ?
नित बंधन ही काट- काट
मन होगा आह्लादी।
रे मन ! चल तू एकाकी !
.. इतनी सुंदर पंक्तियां.. प्रश्न का उत्तर भी समाहित है जिनमें। आज के इस दिखावे के दौर में आह्लादित होना भी कठिन हो गया है, तृष्णा में भटका मन सच्ची खुशी ही भूल गया है । बहुत ही सुंदर, प्रेरक रचना । बधाई और शुभकामनाएं दीदी ।
अब तलक तुझे
समझ न आया ?
मोह की गठरी तूने
क्यों काँधे पर उठा ली ?
रे मन ! तू है क्यों एकाकी ?
ये समझना ही तो बहुत मुश्किल है,समझ आ जाए तो सारा निदान मिल जाए
काफी दिनों बाद आपकी लेखनी बोली है मगर जब बोली तो अन्तःकरण को छू गई,वैराग भाव जागृत करता हृदय स्पर्शी सृजन,सादर नमन दी 🙏
बहुत सुंदर ...जीवन दर्शन सी पंक्तियाँ
क्यों बाँधा मन को तूने है
और पीड़ा को पाया
मेरा - तेरा कुछ नहीं जग में
सब भ्रम की है छाया ।
सच में…बहुत खूब👌
सार्थक जीवन दर्शन - बेहतरीन
बेहद सुंदर जीवन दर्शन
वाह
मन की माया को कौन समझ पाया है, मन की कथा-व्यथा को बुनती सुंदर रचना !
क्यों बाँधा मन को तूने है
और पीड़ा को पाया
मेरा - तेरा कुछ नहीं जग में
सब भ्रम की है छाया ।
इस छाया को हटा नैनों से ,
बन जा तू वीतरागी ,
रे मन ! अब तो चल एकाकी ! .
वीतरागी मन ही एकाकी चल पायेगा
वरना बस बंधन और भ्रम हैं
गहन चिंतनपरक लाजवाब सृजन ।
सब जानते हुए भी हम मन को कहाँ मना पाते हैं कि वह दुनियादारी की बातों में मत पड़ जाय कर
बहुत बढ़िया
क्यों बाँधा मन को तूने है
और पीड़ा को पाया
मेरा - तेरा कुछ नहीं जग में
सब भ्रम की है छाया ।
इस छाया को हटा नैनों से ,
बन जा तू वीतरागी ,
रे मन ! अब तो चल एकाकी ! . ////
अगर ये चंचल मन वीतरागी हो जाता तो सारे दुख- दर्द मिट जाते पर पारे सी प्रकृति ये मूढ इतना ज्ञानी हर्गिज नहीं हो सकता ।विचलित मन को एक गम्भीर उद्बोधन जो शायद हर परिस्थिति के बाद इसी पथ पर अग्रसर हो जाता है।सादर 🙏
मन एकाकी कहता तो बहुत कुछ है पर सम्भव नहीं होता ऐसा कर पाना … जाने क्या होता है पर होता है जिसे ढूँढता है मन … क्यों, कहाँ …
गागर में सागर समाती बहुत खूबसूरत रचना।
आदरणीया संगीता जी , प्रणाम !
बहुत समय बाद आपके ब्लॉग पर उपस्थिति का अवसर मिला , सरल शब्दों में "वीतराग" का आमंत्रण मन को छू गया !
अभिनन्दन ! मैरी क्रिसमस ! जय भारत ! जय भारती !!
बेहतरीन अभिव्यक्ति
मंगलमयी कामनाओं के साथ आपको नव वर्ष की बहुत बहुत बधाई एवं असीम शुभकामनाएं आदरणीया दीदी 🌷🌷
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