घरौंदा
>> Sunday, April 25, 2010
गम की तपिश हो
या सोचों का बवंडर हो
शोला हो मन का
या आंखों का समंदर हो ,
डूब जाता है जैसे सब
जब तैरना भी आता हो
मंझदार नही मिलती
किनारे पर चला आता हो ।
डूबना भी क्या डूबना
जो गहरे पानी में डूबा हो
डूबो तो वहां जा कर
जहाँ पानी का निशां न हो ।
ये सोचता है मन मेरा कि
हर दिल रेत का घरौंदा है
अचानक किसी लहर ने आ कर
जैसे इस घरौंदे को रौंदा है।
फिर बनाते हैं घरौंदा हम
अपने ही हाथों से
जान भी डालते हैं जैसे
अपनी ही साँसों से ।
हर लहर से टकरा कर जैसे
मेरा ख्वाब लौट आता है
ये घरौंदे और लहर का
कुछ ऐसा ही नाता है ।
निर्निमेष आंखों से फिर मैं
आकाश निहारा करती हूँ
शून्य में न जाने क्यों मैं
ख़ुद को तलाशा करती हूँ.