वक्त बहुत बेरहम हो चला है
ख्वाहिशें भी पूरी होती नही हैं
दर्द को भी बढ़ना है यूँ ही
खुशी भी कोई मिलती नही है।
चाहतें भी बिखर सी गयीं हैं
समेटने के लिए दामन कहाँ से लाऊँ?
सूनापन है इन आंखों में छाया
कोई रोशनी भी मैं कहाँ से पाऊँ ?
मेरी तन्हाइयों की बात न छेडो तुम
यादें तक तनहा हो चली हैं
इन अंधेरों में किसको पुकारूं में
परछाई भी मेरा साथ छोड़ चली है ।
हाथ बढाती हूँ पकड़ने को दामन
तो कहीं कुछ खो सा जाता है
सहारा भी चाहूँ किसी का तो
खाली हाथ लौट कर आ जाता है।
सूना -सूना सा आंखों का काजल
कह रहा है अपनी ही कहानी सी
सुनने की भी ताब नही है
लगती है सब जानी - पहचानी सी ।
आँखें बंद कर आज देखती हूँ
अपना साया भी साथ नही है
सोचो तो कैसा मुकद्दर है
दर्द का भी कोई एहसास नही है .
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