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सीमायें

>> Wednesday, November 26, 2008



रिश्तों की गांठें खोल दो
और
आजाद हो जाओ सारे रिश्तों से
फिर देखो
ज़िन्दगी कितनी
सुकून भरी हो जाती है
एक तरफ़
न तुम किसी के होंगे
और न कोई तुम्हारा
दूसरी तरफ़
तुम सबके होंगे
और सारा जग तुम्हारा
फिर तुम उम्मीदों को
सीमाओं में नही बाँधोगे
और दूसरे की कमियां गिनाने की
सीमा नहीं लांघोगे .

5 comments:

निर्झर'नीर 11/26/2008 4:18 PM  

man ko bhav vibhor karne vale ahsas
bahot khoobsurti se piroya hai aapne lafzo ko bhavo ki dor mai

daad hazir hai ..

Dev 11/29/2008 6:43 PM  

Bahut khubshurat rachana hai..
Badhai

yashoda Agrawal 9/27/2021 3:02 PM  

आपकी लिखी रचना  ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" सोमवार 27 सितम्बर    2021 को साझा की गयी है....
पाँच लिंकों का आनन्द पर
आप भी आइएगा....धन्यवाद!

Sweta sinha 9/27/2021 9:31 PM  

वाह दी...बेहतरीन रचना।
क्या गज़ब लिखा है
तुम उम्मीदों को
सीमाओं में नही बाँधोगे
और दूसरे की कमियां गिनाने की
सीमा नहीं लांघोगे।
-----
सादर।

रेणु 9/27/2021 11:49 PM  

बहुत सुंदर प्रिय दीदी | अपेक्षाएं किसी भी रिश्ते को बोझिल और दूभर बना देती हैं | निर्बंध रिश्ते एक सहज,सरल निकटता होती है | भगवान् कृष्ण ने भी कहा और ओशो ने भी | प्रेम में बन्धनहीन रहना और दूसरों को रखना ही सच्चा प्रेम है | बहुत भाई आपकी ये भावपूर्ण रचना | मेरा प्यार और शुभकामनाएं|

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