जा रहे हो कौन पथ पर.....??????
>> Tuesday, December 9, 2008
ज्ञान चक्षु खोल कर
विज्ञान का विस्तार कर
जा रहे हो कौन पथ पर
देखो ज़रा तुम सोच कर।
कौन राह के पथिक हो
कौन सी मंजिल है
सही डगर के बिना
मंजिल भी भटक गई है।
अस्त्र - शस्त्र निर्माण कर
स्वयं का ही संहार कर
क्या चाहते हो मानव ?
इस सृष्टि का विनाश कर ।
विज्ञान इतना बढ़ गया
विनाश की ओर चल दिया
धरा से भी ऊपर उठ
ग्रह की ओर चल दिया ।
हे मनुज ! रोको कदम
स्नेह से भर लो ये मन
लौट आओ उस पथ से
हो रहा जहाँ मनुष्यता का पतन।
19 comments:
BHUT HI SUNDAR RACHNA HAI AAP KI
संगीता जी
शुभ कामनाए
आप की मासूम सोच और वैश्विक परिदृश्य
अभी तो अलग-अलग ही हैं
vigyan manav ke liye hai na ki manav vigyan ke liye.....sukoon aaur aman ke liye agar loutna bhi ho to koyee gham ki baat nahin, humen apne antar ki taraf loutna hoga kyonki dilon ki ashanti vidhwanskari hai.
achhi rachna ke liye badhai.
iski tareef main kar chuki hoon bahut hi shashakt rachna hai Di!
vigyaan itna bad gaya.......ye char lines to jabardast hain.
aapki kavita bahut acchhi hai...title bahut acchha select kiya hua hai..
bt main thora masti k mood me hu to socha thora iska chithrafication kar k kaam chalaya jaye....
aur haa.n ye bas maine apne indian maanav per hi likhi he
ज्ञान चक्षु खोल कर
विज्ञान का विस्तार कर
जा रहे हो कौन पथ पर
देखो ज़रा तुम सोच कर
khud hi maanii
tumne ye baat ki..
gyan chakshu khol kar..
vigyan ka vistar kiya
aur kya ab main sochu..??
coz path me to vistaar hai...(ha.ha.ha.)
कौन राह के पथिक हो
कौन सी मंजिल है
सही डगर के बिना
मंजिल भी भटक गई है।
vistar ke path ka
main pathik hu..
yahi to manzil he meri..
fir kaha main bhatak gaya hu..??
अस्त्र - शस्त्र निर्माण कर
स्वयं का ही संहार कर
क्या चाहते हो मानव ?
इस सृष्टि का विनाश कर ।
aster-shaster na ho to
duniya beendh dalegi mujhe
apni raksha ki hi khatir
aster-shaster ka nirman hai
khud hi dekho....
ab talak maine koi
durupyog to kiya nahi
varna pak ki kya bisat
jo aatank ham tak faila rahe.
gar sanhaar hi karna hota
to chutki me ud jate vo..!!
dekh lo ki bade pancho me bhi
apni sakh itni acchhi hai
kaise kehte ho ki
main kar raha srishti vinash..!!
विज्ञान इतना बढ़ गया
विनाश की ओर चल दिया
धरा से भी ऊपर उठ
ग्रह की ओर चल दिया ।
abhi vigyan kaha badha
abhi to insan bimariyo se mar raha
kaha abhi vistar hua
abhi to greh per hai pag dhara
abhi to khakholna use baaki hai
srishti ka suspese baki hai
chanda mama ek dhara per bhi lana hai
abhi to bahut vistaar baki hai
हे मनुज ! रोको कदम
स्नेह से भर लो ये मन
लौट आओ उस पथ से
हो रहा जहाँ मनुष्यता का पतन।
kaise roku apne kadam
sneh k liye abhi to waqt nahi
man me bahut sawal hai
jawab unke paa lu jara
laut jaau kaise is path se
abhi agli peedhi ko bhi
to samjhaana hai
main patan karta nahi
main to bas vigyan padh raha
na padha to peecchhe reh jaunga
aur backward kehlaunga..
sangeeta ji all is just kidding...dont take it seriously in any way...if u feel bad to read this type of review...pls. tell me... i will nvr write this type in future...
ok bye take care
bahut hi achha likha hai,sach kahun,jayshankar prasad ji ki shailly ki yaad aa gai........
bahut jwalant prashn,jo har kisi ke andar hai,har un aankhon me- jo vyathit hain
ज्ञान चक्षु खोल कर
विज्ञान का विस्तार कर
जा रहे हो कौन पथ पर
देखो ज़रा तुम सोच कर...........
sach kahti ho aap
soch kar dekho zara
accha chintan
इस ओजस्वी प्रस्तुति के लिए बहुत बहुत बधाई दीदी
बेहतरीन!
सादर
sunder soch aur bhavon ka prabhav kamal
badhi
rachana
ओजस्वी कविता!
विज्ञान इतना बढ़ गया
विनाश की ओर चल दिया
धरा से भी ऊपर उठ
ग्रह की ओर चल दिया ।//_
विज्ञान के दुरुपयोग से कितनी हानि हो चुकी और हो सकती है,इसकी चिन्ता से मुक्त इन्सान विनाश के पथ पर बराबर अग्रसर है।कहाँ ले जायेगी और पाने और उँचाई की शुरुआत,समझ में नहीं आता।एक सार्थक रचना जिसके प्रश्न सार्थक और सटीक है।
हे मनुज ! रोको कदम
स्नेह से भर लो ये मन
लौट आओ उस पथ से
हो रहा जहाँ मनुष्यता का पतन।
इतने समय पहले की रचना आज के माहौल में भी सटीक एवं सार्थक सिद्ध ह़ो रही है...
लाजवाब सृजन।
प्रिय रेणु , प्रिय सुधा जी
आज आपकी प्रतिक्रिया पा कर यह सृजन सार्थक हुआ । सृजन वही सार्थक जो हर काल खंड में सटीक प्रश्न करे
आभार
सार्थक चिंतन देता यथार्थवादी सृजन।
हर पहलू पर गहन दृष्टि घड़े में समंदर।
बहुत सुंदर।
पुनः पढ़ना सुखद रहा,हर बार सोचने को बाध्य करती है ये रचना,सादर नमन दी 🙏
सारगर्भित भावों से भरी संदेशयुक्त रचना दी।
आपकी रचना पढ़ते हुए-
मनुष्यता की कीमत पर विकास मोलना
मनुष्य को स्थानांतरित कर मशीन मोलना
सुनो! उन्नति की परिभाषा संवेदनहीन न हो
सृजनपथ पर भाव एवं यंत्र का संतुलन मोलना।
---//---
प्रणाम दी
सादर।
जी दीदी, आज के माहौल के लिए प्रासंगिक सृजन।जितनी प्रगति हुई सत्ता पर बैठे लोग निरंकुश होते जा रहे हैं। युद्धोन्मादी लोगों ने और भी रही-सही कसर पूरी कर दी है।ना जाने कब से सँवारी जा रही है दुनिया को तहस नहस करने में उन्हें ज़रा भी हिचक नहीं हो रही।काश! इन्सान दो घड़ी रुक कर चिन्तन करे कि क्या उसके हित में है क्या नहीं! एक हमेशा ही प्रासंगिक रचना के लिए बधाई और शुभकामनाएं 🙏
बहुत सुन्दर विचार !
'केला तबहिं न चेतिया, जब ढिंग लागी बेर,
अब चेते ते का भया, काँटा लीन्हे घेर'
जब तक दुनिया वाले संभलेंगे तब तो दुनिया तबाह हो चुकी होगी.
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