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शंखनाद

>> Friday, March 26, 2010



अंतर द्वन्द कर बैठा



मन पर चोट


उस अन्तर नाद का शोर


किसी ने नहीं सुना


रख लिए हैं मैंने


कानों पर दोनों हाथ


लगा की घुल गया है


सीसा जैसे पिघला हुआ .




तन्हा हूँ मैं


भरी महफ़िल में


और भीड़ में भी हूँ


अकेली छिटकी सी हुई


कर लेती हूँ खुद को


खुद में ही बंद


सबकी नज़रों में


थोड़ा विक्षिप्त सी हुई




फ़ैल गयी है


मेरे चारों ओर जैसे


एक चादर सन्नाटे की


सहेज लीं हैं


मैंने उसमें मानो


सारी की सारी


अपनी खामोशियाँ .



पर


चाहती हूँ झाड कर


छिटक दूँ मैं


सारी की सारी मायूसियाँ


चीर कर रख दे


तम अंतरमन का


मैं कोई ऐसा


एक दीप जलाऊं


गूंज उठें सारी खामोशियाँ


ऐसा ही कोई शंख नाद सुनाऊं ...
 
 

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एक मुलाक़ात ...शहीद की आत्मा से

>> Tuesday, March 23, 2010



कल रात



एक विचित्र बात हो गयी


स्वप्न में भगत सिंह की


आत्मा से


मेरी मुलाकात हो गयी




ज़र- ज़र थी बहुत


पीड़ित थी वेदना से


लहू लुहान थी वो


अपनों की प्रताड़ना से


विस्मित सी बस मैं


देखे जा रही थी


उस आत्मा ने मुझ पर


जैसे दृष्टि जमा दी थी


बोली हौले से -


ऐ मेरे भारतवासी


चाहती हूँ बांटना मैं


अपनी थोड़ी सी उदासी


भूलो तुम शहीदों को तो


कोई बात नहीं है


रखो वतन की याद


बस हमारे लिए


यही बहुत है .


आज़ादी के लिए


जांबाजों ने


ना जाने कितने


आन्दोलन चलाये


पर आज ना जाने देश में


कहाँ से इतने "वाद "


उभर आए


कहीं आतंकवाद है तो


कहीं नक्सलवाद


क्या इन सबके साथ ही


करते हैं आज़ादी को याद ?


गर हो शत्रु बाहर का तो


उससे लड़ा जा सकता है


जब भेदी हो घर का


तो लंका भी ढहा सकता है


ये सुन मेरे मन पर


छा गयी स्तब्धता की स्थिति


पूछा मैंने कि


क्या कर सकता है


कोई अदना सा कवि ?




बोली वो सहज कि -

तेरे पास तो है


वह हथियार जो


तख़्त राजाओं के


पलट सकता है


तेरी कलम में


वो  ताकत है


जो सरकार


बदल सकता है


बस अपने गीतों में


ज़रा नया जोश लाओ


इसकी धार में


थोड़ी रवानी मिलाओ


ऐसे गीत रचो


जो हर जुबान गाये


एक एक गीत तुम्हारा


नया इतिहास रच जाये...




हतप्रभ सी हो मैं


सब सुन रही थी


मेरी आत्मा जैसे


मुझ को ही


कचोट रही थी


क्या सच में ही


हमने अपना कोई


धर्म निभाया है ?


या बस स्वयं से


स्वयं को भरमाया है?


http://charchamanch.blogspot.com/search?updated-max=2010-03-24T22%3A00%3A00%2B05%3A30&max-results=1



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बाज़ी दर बाज़ी

>> Thursday, March 18, 2010



जिंदगी की बिसात पर



रिश्तों की बाज़ी


लगी होती है


हर रिश्ता


अपनी अहमियत लिए


होता है खड़ा


आमने सामने .


कोई प्यादा तो


कोई वजीर


सब चलते रहते हैं


अपनी चालें


आड़ी - तिरछी


एक दूसरे को


शह और मात


देने की होड़ में


और जब


मिल जाती है


किसी रिश्ते को मात


तो मन


भर जाता है


अवसाद से


और रह जाती है


मात्र एक घुटन .


फिर


घुटन से


उबरने के लिए


बिछ जाती है


नयी बाज़ी


एक नया रिश्ता लिए


ज़िन्दगी की बिसात पर .



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भ्रामक सच..

>> Tuesday, March 16, 2010


सच है कि

सर्द रातों में
गुदगुदे बिस्तर पर
लिहाफ़ की गर्मी में
बहुत सुकून भरी
                                      नींद आती है .



और सच ये भी है कि
सारी रात अलाव के पास
मात्र एक चीथड़े में
हाथ तापते हुए
वो सर्द रात
किसी के द्वारा
गुज़ारी जाती है.




सच है कि -
अनगिनत पकवानों को
सामने देख
क्षुग्धा है कि
मर सी जाती है




और सच ये भी है कि
कहीं - कहीं , कभी - कभी
कचरे से बीन कर
कुछ खाते हुए
भूख मिटाई  जाती है .


ये सब सोचते हुए
स्वयं के लिए
एक वितृष्णा सी जागती है
कि-




हमारी निगाह में
ऐसे सारे सच
मात्र एक घटना क्रम हैं
और खुद की ज़रा सी
पीड़ा का
हमे कितना बड़ा भ्रम है .
कोई भी उसमें खुश नही रहता
जितना उसे मिला है
हर शख्स को भगवान से
क्यों शिकवा - गिला है .


काश-
हम हर सच का सही
आंकलन कर पाते
तो अपनी भ्रामक पीड़ा से
खुद को बचा पाते..

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खामोशियाँ

>> Thursday, March 11, 2010

खामोशियाँ



जब बोलती हैं


ज़ेहन का

वर्क  -  दर- वर्क


खोलती हैं


होठ हिलते नहीं हैं


मगर


मन ही मन


ना जाने कितने


राज़ खोलती हैं






आँखों में


उतर आते हैं


कितने ही सैलाब


जब खामोश लब


बोलते हैं


लफ्ज़ जुबां से


निकलते नहीं


फिर भी


तास्सुरात


चेहरे के


बोलते हैं .






आज मेरे तुम्हारे

दरमियान

पसरी है

सन्नाटे की चादर


जिस पर


मेरी खामोशी ने


लिख दी है


एक इबारत .






इबारत की खामोशी को


खामोश ही रहने दो


मुझे आज खुद से


खुद को कुछ कहने दो







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महिला दिवस पर एक दृष्टिकोण ये भी....

>> Monday, March 8, 2010

ये  रचना मेरी छोटी बहन  मुदिता  ने आज महिला दिवस पर मुझे भेजी थी ...इसे मैं आप सभी के साथ बाँटना चाहती  हूँ....
आप इस रचना को इस ब्लॉग पर भी पढ़ सकते हैं --

http://roohshine-lovenlight.blogspot.com/2010/03/blog-post_07.html

नारी दिवस के परिपेक्ष्य में अक्सर अभिव्यक्ति की अतिवादी विचारधारा देखने को मिलती है ..नारी को हमेशा एक सहज मानुष ना समझ कर एक रहस्यमय पहेली माना गया है..हमारे साहित्यकारों ने भी नारी की प्रशंसा या अवमानना में अतिवादी दृष्टिकोण अपनाया है..
कुछ उदहारण..
"त्रिया चरित्रं पुरुषस्य भाग्यम
देवो न जानाति कुतो मनुष्य: "
"न नारी स्वातन्त्र्यमर्हती !"
और एक अति ..
"यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमंते तत्र देवता !!!"

या तो उसे इतना तुच्छ मानना कि उसकी तुलना तुलसीदास जी ने ढोर गंवार शूद्र और पशु से करी या पूजनीय ,देवी स्वरूप, ..उसको एक सहज इंसान क्यूँ समझा नहीं जाता .. पौराणिक संस्कृति में राधा -कृष्ण जैसा सखा भाव देखने को मिलता है..उन दोनों में कोई श्रेष्ठ या हीन नहीं था ..कृष्ण श्रेष्ठतम पुरुष होते हुए भी कभी ये प्रतिपादित करते नज़र नहीं आये कि वो नारी जाति से श्रेष्ठ हैं. उनके लिए हर गोपी उनकी सखी थी, उनके सामने नारी अपने भावों की सहज अभिव्यक्ति करने में सक्षम थी .परन्तु अपनी स्वार्थ साधना के लिए पुरुष उनका उदहारण देते हुए कभी नजर नहीं आते.. मनुस्मृति से उद्धृत या तुसलीदास जी के कहे हुए दोहों से नारी को ये एहसास दिलाते हैं कि जब इतने बड़े ज्ञानी नारी के लिए ऐसा कह गए हैं तो सत्य ही होगा ..


आज ऐसे ही एक दोहे को आधार बना कर एक रचना प्रस्तुत कर रही हूँ ..आशा है प्रयास को पसंद किया जाएगा
****************************************

रामचरित मानस में रावण मंदोदरी से कहता है-

नारी सुभाऊ सत्य सब कहहिं
अवगुन आठ सदा उर रहहिं
संशय,अनृत ,चपलता,माया
भय,अविवेक,अशौच,अदाया !


***********************************
पुरुष प्रधान समाज ने जिन मान्यताओं को नारी के लिए प्रतिपादित किया उनके लिए ये भावाभिव्यक्ति..

किया भ्रमित
नारी को तूने
अवगुण दिए
गिनाय
आठ भाव
ये सहज रूप में
हर मानुस ही पाय ..


१) संशय-
दमित वासना
करने पूरी
राह रहे निर्द्वंद
कह संशय
अवगुण है तेरा
दिया नारी को
द्वन्द ..


२)अनृत (झूठ)-
नहीं दिया
विश्वास उसे जो
कह पाए
वह सत्य
डरी दबी सकुची
नारी का
अवगुण बना
असत्य ...


३) चपलता-
रहे सहज चंचला
यदि तरुणी
उच्छंऋखल  वह
कहलाती
सपना बन
रह गयी चपलता
जो बचपन की
थी थाती ..


४) माया-
कहा सभी ने
माया उसको
बन गयी
एक पहेली
कभी ना समझा
कभी ना जाना
निज की
एक सहेली......


५)भय-
भय तुझको
अस्तित्व का
अपने
कर जाता है
छोटा
बता बता
भय अवगुण
उसमें
निर्भय क्या
तू होता.......??


६) अविवेक-
कर उपेक्षा
विवेक की उसके
दिया हीन एहसास
काट सके ना
बात को तेरी
रहा यही प्रयास


७) अशौच -
सहज खिले
नारीत्व को तू ने
दिया
अशौच का नाम
जगजाहिर कर
निजता उसकी
उचित किया
क्या काम .....??


८) अदया -
अदया
उसका अवगुण
कह कर
खुद को
झुठला बैठा
दया भाव
नारी से ज्यादा
कौन हृदय में
पैठा.....??




इन भावों का
कर अनुरोपण
बाँधा नारी को ऐसे
छोड़ के इनको
जीना उसको
पाप लगे है जैसे.....


सिंचित कर
स्नेह सहज से
जीवन की
फुलवारी को
तुच्छ-श्रेष्ठ का
भाव नहीं
बस
समझ संगिनी
नारी को ...

 
मुदिता गर्ग
http://roohshine-lovenlight.blogspot.com/2010/03/blog-post_07.html



http://charchamanch.blogspot.com/2010/03/blog-post_5252.html

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अवचेतन मन की चेतना

>> Friday, March 5, 2010


मन के
अवचेतन में
कुछ चेतन सा
चलता रहता है
एक आग लगी हो

सीने में
और मन
धधकता रहता है
सोचों से परे कोई
चिंगारी
भड़कती रहती है
खुद के
वजूद की तलाश में
एक आग
सुलगती रहती है
टूट टूट कर
बिखर गयी
और हर कण
कण में समा गया

फिर भी
कोई मुझ पर
बेगैरत की तोहमत
लगा गया
अब मैं
तपती रेत बनी
खुद को
झुलसाती रहती हूँ
शबनम की बूंदों को भी
धुआँ बनाती रहती हूँ
कुछ था
जो मन में
दरक गया
पल - पल का
एहसास गया
अब खाली हाथ
खड़ी हूँ मैं
वक़्त हाथ से
निकल गया |

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आखिर बुरा क्या है ?

>> Tuesday, March 2, 2010




मन के दरख्त पर



जमा ली हैं


ख्वाहिशों ने अपनी जड़ें


और जा रही हैं


फलती फूलती


अमर बेल की तरह


उत्तरोत्तर .




रसविहीन दरख्त


मौन है


बना हुआ पंगु सा


जब होगा एहसास


हकीकत का


तो हो जाएँगी


सारी बेलें


धूल धूसरित .




मन ने सोचा कि


ख्वाहिशों की ख्वाहिश


पलने दो


अंत में तो


मिटटी ही नसीब है


कुछ पल खुश होने में


आखिर बुरा क्या है ?


 
 
 

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हमारी वाणी

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