शंखनाद
>> Friday, March 26, 2010
अंतर द्वन्द कर बैठा
मन पर चोट
उस अन्तर नाद का शोर
किसी ने नहीं सुना
रख लिए हैं मैंने
कानों पर दोनों हाथ
लगा की घुल गया है
सीसा जैसे पिघला हुआ .
तन्हा हूँ मैं
भरी महफ़िल में
और भीड़ में भी हूँ
अकेली छिटकी सी हुई
कर लेती हूँ खुद को
खुद में ही बंद
सबकी नज़रों में
थोड़ा विक्षिप्त सी हुई
फ़ैल गयी है
मेरे चारों ओर जैसे
एक चादर सन्नाटे की
सहेज लीं हैं
मैंने उसमें मानो
सारी की सारी
अपनी खामोशियाँ .
पर
चाहती हूँ झाड कर
छिटक दूँ मैं
सारी की सारी मायूसियाँ
चीर कर रख दे
तम अंतरमन का
मैं कोई ऐसा
एक दीप जलाऊं
गूंज उठें सारी खामोशियाँ
ऐसा ही कोई शंख नाद सुनाऊं ...