भ्रामक सच..
>> Tuesday, March 16, 2010
सच है कि
सर्द रातों में
गुदगुदे बिस्तर पर
लिहाफ़ की गर्मी में
बहुत सुकून भरी
नींद आती है .
और सच ये भी है कि
सारी रात अलाव के पास
मात्र एक चीथड़े में
हाथ तापते हुए
वो सर्द रात
किसी के द्वारा
गुज़ारी जाती है.
सच है कि -
अनगिनत पकवानों को
सामने देख
क्षुग्धा है कि
मर सी जाती है
और सच ये भी है कि
कहीं - कहीं , कभी - कभी
कचरे से बीन कर
कुछ खाते हुए
भूख मिटाई जाती है .
ये सब सोचते हुए
स्वयं के लिए
एक वितृष्णा सी जागती है
कि-
हमारी निगाह में
ऐसे सारे सच
मात्र एक घटना क्रम हैं
और खुद की ज़रा सी
पीड़ा का
हमे कितना बड़ा भ्रम है .
कोई भी उसमें खुश नही रहता
जितना उसे मिला है
हर शख्स को भगवान से
क्यों शिकवा - गिला है .
काश-
हम हर सच का सही
आंकलन कर पाते
तो अपनी भ्रामक पीड़ा से
खुद को बचा पाते..
18 comments:
हमारी निगाह में
ऐसे सारे सच
मात्र एक घटना क्रम हैं
और खुद की ज़रा सी
पीड़ा का
हमे कितना बड़ा भ्रम है .
आपकी इस कविता में निराधार स्वप्नशीलता और हवाई उत्साह न होकर सामाजिक बेचैनियां और सामाजिक वर्चस्वों के प्रति गुस्सा, क्षोभ और असहमति का इज़हार बड़ी सशक्तता के साथ प्रकट होता है।
एक एक पंक्ति के साथ उभारा गया चित्रों से भ्रामक सच...बेहद प्रभावशाली अभिव्यक्ति
और सच ये भी है कि
कहीं - कहीं , कभी - कभी
कचरे से बीन कर
कुछ खाते हुए
भूख मिटाई जाती है .
हाँ यह भी सच है पर कड़्वा कितना है
और फिर हम कड़वाहट में जीने के जो आदी हैं
बेहतरीन रचना
"भावुक रचना........"
amitraghat.blogspot.com
बहुत ही प्रभावशाली रचना..समाज की विसंगतियां दर्शाती हुई...
बहुत ही बढ़िया अभिव्यक्ति
कई रंगों को समेटे एक खूबसूरत भाव दर्शाती बढ़िया कविता...बधाई
प्रभावशाली...
aapke bhavon ko chitro ne bhee zuba dedee..........
aapne vo kahanee sunee hai na raja ko neend nahee aatee thee kisee ne sujhaya kisee sukhee aadmee kee shirt pahane bahut talash hui ek mast aadmee mila par usake paas kameez hee nahee thee..........
सभी का आभार....
प्रकाश गोविन्द जी,
आपने सही कहा है कि बस हम केवल सोचते भर हैं....पर यहाँ मेरा कथन गरीबी दिखाना नहीं है....ये बिम्ब इस लिए दिए हैं कि लोग विषमताओं में जीते हैं और संपन्न लोग फिर भी ज़रा से दुःख को या थोड़ी सी पीड़ा को लेकर रोते रहते हैं...एक भ्रामक पीड़ा कि सोच में जीते हैं...जिसको जितना मिलाता है उसमें संतुष्ट नहीं रहते हर वक्त खुद को या ईश्वरीय शक्ति को कोसते रहते हैं....
आप यहाँ आये और अपने विचार रखे शुक्रिया
sangeeta ji
ati uttam abhivyakti........ye sirf kavita nhi hai manviya trasdi ka jwalant udaharan hai.
समाज की
विसंगतियां दर्शाती हुई
प्रभावशाली रचना
.....बधाई
satya kaha apne
umda post
हा हा हा हा ..आपको पता है मैं क्यों हंस रही हूँ...यहाँ लोग बोल तो जाते हैं पर फिर डर भी जाते हैं ..बूता तो है नहीं ...हा हा हा
chitro dwara ukera gaya kadva sach prabhaav shali to ban hi pada hai aur hame bhi jhinjhode deta hai...lekin M. Verma ji ki hi baat ka samarthan karungi ki ham log in kadvahto ke sath jine k kitne aadi ho gaye hai..
sahi kaha aapne ki amiro ko to chhota dukh bhi bada lagta hai..
acchhi rachna.
badhayi.
मन को कहीं कचोटती है यह कविता...आपने इस कविता में बड़ी खूबी से दार्शनिक अंदाज में जीवन के कड़वे यथार्थ को दर्शाया है.का़बिले तारीफ.
wah di jeevan satye bayan kar diya
mene kabhi 2 line likhi thi
"kyun dukhi hota he apne se upar wale ko dekh kar,
jara ik najar apne neeche bhi to dal"
समाज में फैली विषमता को बहुत प्रभावी तरीके से रक्खा है आपने इस रचना में .... बहुत बधाई ......
Post a Comment