शंखनाद
>> Friday, March 26, 2010
अंतर द्वन्द कर बैठा
मन पर चोट
उस अन्तर नाद का शोर
किसी ने नहीं सुना
रख लिए हैं मैंने
कानों पर दोनों हाथ
लगा की घुल गया है
सीसा जैसे पिघला हुआ .
तन्हा हूँ मैं
भरी महफ़िल में
और भीड़ में भी हूँ
अकेली छिटकी सी हुई
कर लेती हूँ खुद को
खुद में ही बंद
सबकी नज़रों में
थोड़ा विक्षिप्त सी हुई
फ़ैल गयी है
मेरे चारों ओर जैसे
एक चादर सन्नाटे की
सहेज लीं हैं
मैंने उसमें मानो
सारी की सारी
अपनी खामोशियाँ .
पर
चाहती हूँ झाड कर
छिटक दूँ मैं
सारी की सारी मायूसियाँ
चीर कर रख दे
तम अंतरमन का
मैं कोई ऐसा
एक दीप जलाऊं
गूंज उठें सारी खामोशियाँ
ऐसा ही कोई शंख नाद सुनाऊं ...
20 comments:
ये कविता एक मन की तीन अवस्थाओं को दर्शाती है ....जहाँ ये पंक्तिया-.
अंतर द्वन्द कर बैठा
मन पर चोट
उस अन्तर नाद का शोर
किसी ने नहीं सुना
रख लिए हैं मैंने
कानों पर दोनों हाथ
लगा की घुल गया है
सीसा जैसे पिघला हुआ
झकझोरती हैं कुछ करने और कहने को तत्पर लगती हैं ...
वहीँ ये -
तन्हा हूँ मैं
भरी महफ़िल में
और भीड़ में भी हूँ
अकेली छिटकी सी हुई
कर लेती हूँ खुद को
खुद में ही बंद
सबकी नज़रों में
थोड़ा विक्षिप्त सी हुई चाहती हूँ
एक तरह कि मजबूरी ,मायूसी और दुःख का अहसास कराती हैं.
परन्तु फिर जैसे एक तूफान सा आता है ..और ये पंक्तियाँ-
झाड कर
छिटक दूँ मैं
सारी की सारी मायूसियाँ
चीर कर रख दे
तम अंतरमन का
मैं कोई ऐसा
एक दीप जलाऊं
गूंज उठें सारी खामोशियाँ
ऐसा ही कोई शंख नाद बजाऊं
मानो एक नया उत्साह ,और सकारात्मक दृष्टिकोण लेकर आती हैं ..और यही पंक्तियाँ मुझे बहुत बहुत पसंद आईं...
मास्टर पीस लिखा है दी ! बहुत सुन्दर
कर लेती हूँ खुद को
खुद में ही बंद
सबकी नज़रों में
थोड़ा विक्षिप्त सी हुई
ओह गहरे तक छू गयी ये पंक्तियाँ...
और फिर यह शंखनाद...
मैं कोई ऐसा
एक दीप जलाऊं
गूंज उठें सारी खामोशियाँ
ऐसा ही कोई शंख नाद बजाऊं
स्त्री मन की अच्छी मनोदशा वर्णित की है..
मैं कोई ऐसा
एक दीप जलाऊं
गूंज उठें सारी खामोशियाँ
ऐसा ही कोई शंख नाद बजाऊं
सुन्दर संकल्पित रचना
अंतर्द्वंद से घबराती ....सन्नाटे की चादर में सिमटती और अंत में उस खोल को चीर कर बहार निकल आने की स्थिति को सुन्दर शब्दों में ढाल कर अच्छी रचना लिखी है. बधाई.
चीर कर रख दे
तम अंतरमन का
मैं कोई ऐसा
एक दीप जलाऊं...
...दिल को छो लेने वाली कविता....
बहुत गहरी रचना...सीधे हृदय के तार झंकृत करती है. बधाई.
तन्हा हूँ मैं
भरी महफ़िल में
और भीड़ में भी हूँ
अकेली छिटकी सी हुई
कर लेती हूँ खुद को
खुद में ही बंद
सबकी नज़रों में
थोड़ा विक्षिप्त सी हुई..
अद्भुत सुन्दर पंक्तियाँ! बहुत ही गहरे भाव और अभिव्यक्ति के साथ आपने इस रचना को प्रस्तुत किया है! दिल को छू गयी आपकी इस भावपूर्ण रचना!
अक्सर खुद के मान उठने वाला द्वंद ... अंतस का शोर घुल्ट रहता है मन में ..... मानसिक द्वंद से झूझती स्शक्त रचना ....
मैं कोई ऐसा
एक दीप जलाऊं
गूंज उठें सारी खामोशियाँ
ऐसा ही कोई शंख नाद बजाऊं ......
jab mann ki gati dard se ubarkar naya prakash dhundh leti hai to yahi vichaar jijivisha ban jate hain
एक नन्हा दीप अपने आप को जलाकर जिस तरह प्रकाश देता है कुछ इस तरह ही लगे इस कविता के भाव |
बहुत ही खूबसूरती से नारी के अंतर्द्वंद को उकेरा है आपने| एक से एक दीप को प्रज्वलित तो किया जा सकता है किन्तु जलना तो उसे अकेला ही है |
चीर कर रख दे
तम अंतरमन का
मैं कोई ऐसा
एक दीप जलाऊं
गूंज उठें सारी खामोशियाँ
ऐसा ही कोई शंख नाद बजाऊं
bahut prerak rachna hai Sangeeta ma'am.. abhar
चीर कर रख दे
तम अंतरमन का
मैं कोई ऐसा
एक दीप जलाऊं
गूंज उठें सारी खामोशियाँ
ऐसा ही कोई शंख नाद बजाऊं
बहुत सुन्दर
झाड कर
छिटक दूँ मैं
सारी की सारी मायूसियाँ
चीर कर रख दे
तम अंतरमन का
मैं कोई ऐसा
एक दीप जलाऊं
गूंज उठें सारी खामोशियाँ
ऐसा ही कोई शंख नाद बजाऊं
Harek pankti dohrana chah rahi hun..par dekh rahi hun, wo dohrayi ja chuki hain!Ab bas sirf 'wah!'
इसी शंखनाद से फूटी है उजाले की किरण ..तम को चीरती हुई .....
बहुत सुंदर रचना ...
गूंज उठें सारी खामोशियाँ
ऐसा ही कोई शंख नाद बजाऊं
बेहतरीन।
सादर
कर लेती हूँ खुद को
खुद में ही बंद
सबकी नज़रों में....सुन्दर भाव
आद संगीता दी,
बहुत सुन्दर रचना है....
झिझक हो रही है पर सादर क्षमा याचना सहित एक निवेदन...
शंखनाद के साथ 'बजाऊँ' शब्द का संयोजन...?
सादर...
संजय ,
झिझक जैसी कोई बात नहीं है ... शंखनाद के साथ करूँ आना चाहिए था न ?
जलाऊं के साथ मिलाते हुए बाजों शब्द का प्रयोग कर दिया ..
अभी सुनाऊं कर दिया है ...यह तो ठीक है न ? वैसे पाठक भी सलाह दे सकते हैं ..आभारी रहूँगी ..
आज तो आपने निशब्द कर दिया…………बेहद गहन अर्थ समेटे एक शानदार रचना दिल को छू गयी।
आद संगीता दी...
आपकी रचनाएं मुझे बहुत पसंद है... आपका चिंतन लाजवाब कर देता है...
'शंखनाद' को पढ़ते हुए रचना के शब्द संयोजन और भावबोध में एकदम डूब ही गया... अंत में तंद्रा एक प्रकार से भंग सी हुई... और निवेदन करने कि गुस्ताखी कर बैठा... सच तो यह है कि आप गुरु सदृश हैं... आपने मुझ अकिंचन पर तवज्जो देकर मेरे मन में अपनी गुरुता को और गहरे स्थापित कर दिया है... छोटे भाई पर स्नेह बनाए रखें... सादर...
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