कुसुम चाहत के
>> Thursday, January 29, 2009
वृथा ही मैंने
चाहत के कुसुम चुन लिए ,
जिनमें कोई गंध नही थी ।
मात्र मन लुभाने का
हुनर था।
कुछ ताज़गी थी ,
कुछ रंग थे
जिन्हें देख कर
मन हुआ कि
उठा कर
अंजुरी भर लूँ ,
और मैं -
मंत्रमुग्ध सी
मन की अंजुरी
भर लायी ।
पर थे तो पुष्प ही न
मुरझा गए
कुम्हला कर हो गए
बेरंग से ,
और अब न
सहेजते बनता है
और न फेंकते ,
ज़िन्दगी !
ज़िन्दगी भी आज
बेरौनक सी हो गई है।
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