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उम्र यूं ही तमाम होती है

>> Monday, August 27, 2012




विलुप्त  हैं कहीं 
मेरी सारी भावनाएं ,
न किसी बात से 
मिलती है खुशी 
और न ही 
होता है गम ,
मन के समंदर में
न कोई लहर 
उठती है ,
और न ही 
होती हैं  आँखें नम ,
लगता तो है कि
पलकों पर 
बादलों ने डाला है 
डेरा गहन ,
लेकिन 
न जाने क्यों 
महसूस होती है 
बेहद थकन ,
शिथिल  सी ज़िंदगी 
जैसे जीती चली जाती हूँ ,
अपने  अंतस में 
एक शून्य  रचाती हूँ ,
और अक्सर किसी का कहा 
गुनगुनाती हूँ ---

सुबह होती है , शाम होती है 
उम्र यूं ही ,तमाम होती है ॥ 



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काफी है ......

>> Saturday, August 4, 2012


तम हो घनेरा 
और जाना हो 
मंज़िल तक 
तो जुगनू  का 
एक दिया ही 
काफी है 
मंज़िल पाने को 
तपिश हो मन की 
और चाहते हो ठंडक 
तो अश्क  का 
एक कतरा ही 
काफी है 
अदना सा झोंका ही 
भर देता है 
प्राणवायु 
जीवित रहने के लिए 
एक सांस ही 
काफी है , 
भले ही हो 
अस्फुट सा स्वर 
पर है वो 
प्रेमसिक्त 
मन में सिंचित 
कटुता को 
धो डालने के लिए 
काफी है , 
मुँदी हुई पलकें 
आभास देती हों 
निष्प्राण देह का 
उसमें स्पंदन के लिए 
गहन मौन ही 
काफी है ...




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खिल उठे पलाश / पुस्तक परिचय / सारिका मुकेश

>> Thursday, August 2, 2012


गर्भनाल पत्रिका के अगस्त  अंक में  प्रकाशित  पुस्तक परिचय  --- 
खिल उठे पलाश 


" खिल उठे  पलाश "   काव्य संग्रह है  कवयित्रि सारिका मुकेश जी का जो इस समय वी॰ आई॰ टी॰ यूनिवर्सिटी  वैल्लोर ( तमिलनाडु) में अँग्रेजी  की असिस्टेंट प्रोफेसर ( सीनियर ) के रूप में कार्य रात हैं . इससे पहले भी इनके दो काव्य संग्रह पानी पर लकीरें और एक किरण उजाला प्रकाशित हो चुके हैं । कवयित्रि के विचारों की एक झलक मिलती है जो उन्होने अपनी पुस्तक की भूमिका में कही है -
 वैश्वीकरण ने भारत को दो हिस्सों में बाँट  दिया है --एक जो पूरी तरह से वैश्वीकरण  का आर्थिक लाभ ( ईमानदारी से ,भ्रष्टाचार  से या फिर दोनों से ) उठा कर अमीर बन चुका है ; जिसे हम शाइनिंग  इंडिया  के नाम से जानते हैं  और दूसरा  जहां वैश्वी करण  की आर्थिक वर्षा की एक - दो छींट ही पहुँच सकी हैं और जो भारत ही बन कर रह गया है ... 
मन के दरवाजे पर  संवेदनाओं की  आहटें  ही कविता को विस्तार देती हैं  जिनमें जीवन की धड़कनें  समाहित होती हैं
सच ही इस पुस्तक की संवेदनाओं ने  मन के दरवाजे पर  ज़बरदस्त  दस्तक दी है ..... यूं तो हर रचना अपने आप में मुकम्मल  है  लेकिन जिन रचनाओं ने  मन पर विशेष प्रभाव छोड़ा है वो हैं --
मिलन --- जहां वृक्ष  लता को एक दृढ़  सहारा देने को दृढ़ निश्चयी है  जैसे कह रहा हो  मैं हूँ न । 
फिर जन्मी लता / पली और बढ़ी / और फिर एक दिन /लिपट गयी वृक्ष से / औ वृक्ष भी / कुछ झुक गया / करने को आलिंगन / लता का /

सामाजिक सरोकारों को उकेरती कुछ कवितायें एक प्रश्न छोड़ जाती हैं जो मन को मथते रहते हैं ---
तुमने देखा है कभी / कोई आठ साल का लड़का .....सीने में गिनती करती पसलियाँ ...
आज वक़्त बदल  रहा है .... लड़कियां भी कदम दर कदम  आगे बढ़ रही हैं –
प्रतियोगिता के स्वर्णिम सपनों को आँखों में लिए / कठोर परिश्रम कर  डिग्री पा कर / अपने मुकाम को पाने हेतु /
मनुष्य  को जो आपस में बांटना चाहिए उससे विमुख हो  कर धरती , आकाश यहाँ तक कि हवा पानी भी बांटने को तत्पर है । 
वर्जीनिया वुल्फ़ --- यह ऐसी रचना है जिसमे लेखिका के पूरे जीवन को ही उकेर कर रख दिया है ।

शब्दों का फेर  / नयी सदी का युवा ..... यह वो रचनाएँ हैं जो हंसी का पुट लिए हुये गहरा कटाक्ष करती प्रतीत होती हैं ।
एक हादसा /सफलता के पीछे वाला व्यक्ति / आधुनिकता का असर / दिल्ली में सफर करते हुये .... यह ऐसी कवितायें हैं जो सोचने पर मजबूर कर देती हैं .... आज इंसान की  फित्रत बदल रही है .... 
तुम पर ही नहीं पड़े निशान --- यह नन्ही नज़्म  बस महसूस करने की है  कुछ लिखना बेमानी है इस पर । 

और अंतिम पृष्ठ तो गजब  ही लिखा है एक सार्थक संदेश देते हुये .... मृत्यु जन्म से पहले नहीं घटती ... बहुत सुंदर

इस तरह इस पुस्तक के माध्यम से मैंने बीज से वृक्ष  तक का सफर किया ...... हर कविता को महसूस किया .... और क्यों कि  कविता निर्बाध गति से एक आँगन से दूसरे आँगन तक बहती है तो  मैं भी इसमें बही ..... पाठक भी नि: संदेह इस पुस्तक से स्वयं को जुड़ा हुआ महसूस करेंगे । पुस्तक की साज सज्जा और आवरण बेहतरीन है ।  रचनाकार को मेरी हार्दिक शुभकामनायें ।

पुस्तक का नाम ----    खिल उठे पलाश 
ISBN ------              978-8188464-49-4
मूल्य   ----------          150 /
प्रकाशक   ---            जाह्नवी प्रकाशन , ए - 71 ,विवेक विहार ,फेज़ - 2 , 
दिल्ली - 110095
ब्लॉग --- http://sarikamukesh.blogspot.in/

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