उम्र यूं ही तमाम होती है
>> Monday, August 27, 2012
विलुप्त हैं कहीं
मेरी सारी भावनाएं ,
न किसी बात से
मिलती है खुशी
और न ही
होता है गम ,
मन के समंदर में
न कोई लहर
उठती है ,
और न ही
होती हैं आँखें नम ,
लगता तो है कि
पलकों पर
बादलों ने डाला है
डेरा गहन ,
लेकिन
न जाने क्यों
महसूस होती है
बेहद थकन ,
शिथिल सी ज़िंदगी
जैसे जीती चली जाती हूँ ,
अपने अंतस में
एक शून्य रचाती हूँ ,
और अक्सर किसी का कहा
गुनगुनाती हूँ ---
सुबह होती है , शाम होती है
उम्र यूं ही ,तमाम होती है ॥
64 comments:
कई दिन कई शाम यूँ ही गुजर जाती है
सन्नाटा भी खुद से बेखबर कहीं और चला जाता है
लेकिन
न जाने क्यों
महसूस होती है
बेहद थकन ,
शिथिल सी ज़िंदगी
जैसे जीती चली जाती हूँ ,
अपने अंतस में
एक शून्य रचाती हूँ ,
सुंदर
भावमय करते शब्द ... मन को छूती प्रस्तुति आभार
जीवन कभी इतनी तेज़ गति से गुज़रता है कि कुछ अहसास करने का समय नहीं देता और कभी इस कदर ठहर जाता है कि कुछ अहसास होने नहीं देता. ऐसा लगता है जैसे हमारे अंदर एक महाशून्य उभरता जा रहा है. शायद इसी मनोदशा की अभिव्यक्ति है इस नज़्म में....बढ़िया लगी मनोवैज्ञानिक धरातल की यह कविता..
भावमय प्रस्तुति
शिथिल सी ज़िंदगी
जैसे जीती चली जाती हूँ ,
अपने अंतस में
एक शून्य रचाती हूँ ,
कभी-कभी ऐसा क्यूँ हो जाता है ?
मेरे लिए भी ये मनन का विषय है !
लेकिन
न जाने क्यों
महसूस होती है
बेहद थकन ,
शिथिल सी ज़िंदगी
जैसे जीती चली जाती हूँ ,
अपने अंतस में
एक शून्य रचाती हूँ ,
...... सुंदर प्रस्तुति
क्या कहा जाए.. जिन्दगी इसी का नाम है या ये नियति का फरमान है..अति सुन्दर रचना..
जितना हो सके, समेट लें...
बहुत सुंदर! बेहतरीन पंक्तियाँ....
रिश्तों में बंधे रहना, रिश्तों को ढोना या फिर अपने हिसाब से रिश्तों को खुद बनाना इन्हीं बिन्दुओं पर यह कविता रची गई है। जीवन के अंतर्द्वन्द्व, जीवन की टूटन, घुटन, निराशा, उदासी और मौन के बीच मानवता की पैरवी करती मन के आवेग की कहानी है यह कविता।
ऐसी मनस्थिति हो जाती है कभी-कभी,लेकिन इससे उबरना ज़रूरी है.
कविता सुन्दर है.अब अपने आपसे बाहर निकल कर प्रकृति और बच्चों के बीच चली आइये,संगीताजी !
लेकिन
न जाने क्यों
महसूस होती है
बेहद थकन ,
शिथिल सी ज़िंदगी
जैसे जीती चली जाती हूँ ,
अपने अंतस में
एक शून्य रचाती हूँ ,
Bahot sundar..
यूं ही देखा किये ,दृष्टा भाव से हम, ज़िन्दगी ,.सुबह होती है शाम होती है ,उम्र यूं ही तमाम होती है -दो तर्ज़े बयाँ और भी हैं -पूछना है गर्दिशे ऐयाम से ,अरे !हम भी बैठेंगे कभी आराम से और एक अंदाज़ ये भी है ज़िन्दगी को देखने भालने का -
जाम को टकरा रहा हूँ ,जाम से ,
खेलता हूँ गर्दिशे ऐयाम से ,
उनका गम ,उनका तसव्वुर ,उनकी याद
अरे!
कट रही है ज़िन्दगी आराम से .बहुत बढ़िया भाव चित्र को शब्दों ने मूर्त किया है .
.. .कृपया यहाँ भी पधारें -
सोमवार, 27 अगस्त 2012
अतिशय रीढ़ वक्रता (Scoliosis) का भी समाधान है काइरोप्रेक्टिक चिकित्सा प्रणाली में
http://veerubhai1947.blogspot.com/
घनेरी उदासी परिलक्षित हो रही है . उदास कर देती हो आप . निकलो आप वहा से.
gaharee udaasee----- ,achchhee rachanaa
बहुत अच्छी रचना मैम...प्रत्येक अक्षर गहराई लिए..
सुबह होती है , शाम होती है
उम्र यूं ही ,तमाम होती है ॥
यही जिन्दगी का फलसफा है ...
हर सुबह शाम में ढल जाता है
हर तिमिर धूप में गल जाता है
ए मन हिम्मत न हार
वक्त कैसा भी हो
बदल जाता है …....
सुबह होती है , शाम होती है
उम्र यूं ही ,तमाम होती है ॥
सच कहा ………ऐसी अनमन्यस्क ज़िन्दगी से हम सभी रोज दो चार होते हैं उन भावो को बखूबी संजोया है।
सूनी-२ सी है ये जिंदगी...
बहुत ही शानदार और सराहनीय प्रस्तुति....
बधाई
इंडिया दर्पण पर भी पधारेँ।
बहुत सुन्दर संगीता जी ! ऐसा लगता है कभी-कभी अलग-अलग शहरों में रहते हुए भी हम दोनों उदासी की इस डगर के हमकदम हमसफ़र हैं ! हर शब्द मन को छू रहा है और एक अकथ्य शिथिलता सी छाती जा रही है !
ख़ूबसूरत रचना ...
ये उदासी ये नैरश्य का भाव अच्छा नहीं ... आता है कभी कभी पर जैसा की आपने किया शब्दों के माध्यम से उतार के बाहर करना चाहिए ...
रचना सुंदर है पर आज ये निराशा क्यों ?
अंतस के शून्य को परिपूर्ण भी तो बनाया जा सकता है !
कुछ उलझन-सी महसूस होती है। बात भले स्थितप्रज्ञता की की जा रही हो,मगर मन स्थिर हुआ नहीं है। अन्यथा,अचानक न बादल आते,न थकान महसूस होती। इस उलझन से निकले बगैर ज़िंदगी यूं ही तमाम होती रहेगी जबकि ज़िंदगी बेशक़ीमती है,यों ही गंवाने के लिए नहीं।
ये ही तो जिंदगी भी हैं
हर दिन यूँ ही गुज़र जाएगा
समेट ले अपने पलों को
नहीं तो वो भी कल में मिल जाएगा ||
समय से सब सही होगा
हौले हौले धीरे धीरे
ना मन तू हो उदास
तू बैठा है यमुना तीरे ।
छा जाती है कभी ऐसी ही उदासी । इस उदासी को बेहद खूबसूरती से प्रस्तुत किया है आपने ।
लाज़वाब ......बेहतरीन रचना .
Umr to sach me yun hee tamaam ho gayee!
कभी कभी मेरे दिल में ख़याल आता है ....
पर कभी कभी ही ऐसा होता है..जरुरी है ये भी उन पलों के लिए जिन्हें हम चेरिश करते हैं.
कविता हमेशा की तरह भावपूर्ण है दी !! पर ये भाव आपकी कलम से अस्वीकार्य :).
aaj to aap udaas kar gayeen......agli baar khush kar dijiyega.
बहुत ही बढ़िया आंटी।
सादर
अरे दी ....किनारे से दूर होने पर समुद्र शांत दिखने लगता है ...लेकिन मन के समुन्दर में तो लहरें उठती ही रहतीं हैं ..... अभी कहाँ की थकन ...??अभी तो बहुत सारा काव्य रचना है :))
वैसे शांत मन के शांत से ...कोमल भाव ....!!
इसी शून्य में एक अनुभूति भी है.. सर्व-व्यापकता की... इसी मौन में चित्त का परित्राण भी तो हो रहा है...
सादर
मधुरेश
सुंदर..!!!
जीवन इसी क्रम का नाम है,शून्य में एक अनुभूतिभी मिलती है,,,,,
MY RECENT POST ...: जख्म,,,
मन की इस उहापोह का नाम ही है जिंदगी..तभी तो मन को विश्राम चाहिए..
mere man ki baat hai ye to..
गहरे भाव लिए बेहतरीन रचना...
:-)
बहुत गहरे भाव हैं...बधाई
धरा,समय गतिशील हैं,जीवन भी गतिमान |
केवल मन की सोच है ,कहते जिसे थकान ||
भाव पूर्ण रचना................
कभी कभी मेरे दिल में भी ये ख़याल आता है....
दिल को छू गए हर लफ्ज़ ....
बहुत सुन्दर दी.
सादर
अनु
इन्ही उलझनों में से कुछ पल जीवन के ऐसे होते हैं जो जीवन को मायने देते हैं ................हमेशा की तरह इस बार भी बढ़िया रचना !
jab man aur vichar bahut bahut soch kar thak jate hain tab vo shoony ki sthiti me pahunch jate hain aur shoony me pahuchne par insaan ko zindgi kya ehsas deti hai iska bahut sundarta se apne apni rachna se varnan kiya hai. sach kaha aisi sthiti shithil si to hoti hai, thakaan bhi hoti hai.....lekin dard ka ehsaas bhi thak kar shoony ho jata hai.
bauhat sunder!!
शिथिल सी ज़िंदगी
जैसे जीती चली जाती हूँ ,
अपने अंतस में
एक शून्य रचाती हूँ ,
और अक्सर किसी का कहा
गुनगुनाती हूँ ---
सुबह होती है , शाम होती है
उम्र यूं ही ,तमाम होती है ॥
ज़िंदगी का खूबसूरत फ़लसफ़ा.
वक़्त के तेज गुजरते लम्हों में कई बार मन कहता है इसी तरह ...दिन गुजरता है ,शाम होती है ...उम्र यूँ ही तमाम होती है !
ज़िन्दगी यूं बे -पर्दा ,सुबह शाम होती है
पर्देदारी का एहतराम होती है ,
किसी का फरमान ,किसी का एहसान होती है .आपकी द्रुत टिपण्णी के लिए आभार .बेश कीम्तीं हैं हमारे लिए ये टिपण्णी .
विलुप्त हैं कहीं
मेरी सारी भावनाएं ,
न किसी बात से
मिलती है खुशी
शिथिल सी ज़िंदगी
जैसे जीती चली जाती हूँ ,
अपने अंतस में
एक शून्य रचाती हूँ ,
और अक्सर किसी का कहा
गुनगुनाती हूँ ---
सुबह होती है , शाम होती है
उम्र यूं ही ,तमाम होती है ॥
hoom sahi hai kabhi kabhi aesa hi hota hai
rachana
संवेदनशील पंक्तियाँ...
बहुत ख़ूब!
एक लम्बे अंतराल के बाद कृपया इसे भी देखें-
जमाने के नख़रे उठाया करो
शायद सभी के जीवन में अवसाद के पल आते हैं। मिर्जा गालिब ने भी लिखा है...
पहले आती थी हर इक बात पर हंसी
अब किसी बात पर नहीं आती
..मुझे लगता है विचार शून्यता के यही वे पल हैं जब नये सूत्र थमा देती है जिंदगी। ये पल अनमोल हैं इसे महसूस करना चाहिए।
संवेदनशील पंक्तियाँ.....
sari rachnaayen padhi maine sangeeta jee sabhi acche hain internet sath nahi de pata hai jisse blog par aana nahi ho pata hai....
शिथिल सी ज़िंदगी
जैसे जीती चली जाती हूँ ,
अपने अंतस में
एक शून्य रचाती हूँ ,
....आँखों के समक्ष चलता एक चलचित्र..बहुत मर्मस्पर्शी भावमयी रचना जो अंतस को छू जाती है..
सुबह होती है , शाम होती है
उम्र यूं ही ,तमाम होती है ॥
.....संवेदनशील पंक्तियाँ...
ऊपर जब यह पढ़ा कि
न किसी बात से
मिलती है खुशी
और न ही
होता है गम ,
मन के समंदर में
न कोई लहर
उठती है ,
और न ही
होती हैं आँखें नम ,
...
तो लगा कि वाह दीदी भी शायद संबोधि की ओर बढ़ रही है ...
कविता के अंत में आकर लगा कि नहीं दीदी यहीं हैं एक आम इंसान की तरह हमारे साथ ही
आज केवल चरण स्पर्श करने आया हूँ आशीर्वाद में काल यही चाहूँगा कि यहीं आकर सदैव प्रणाम करता रहूँ !
दीदी अंतिम पंक्ति में "आशीर्वाद में केवल यही चाहूँगा* पढ़िए !
बेहतरीन पंक्तियाँ....
संगीता जी यूँ तमाम मत कीजिये ...
अभी तो आपके अगले संग्रह का इन्तजार है .....:))
शिथिल सी ज़िंदगी
जैसे जीती चली जाती हूँ ,
अपने अंतस में
एक शून्य रचाती हूँ ,
अनुभूतियों के पौधे से एक सुंदर श्वेत पुष्प चुना है आपने।
संगीता जी..बहुत दिन बाद आपके ब्लॉग पर आया ..बहुत अच्छा लगा..वहीँ पुराणी सुन्दर और भावपूर्ण अनुभूतियाँ....सुन्दर रचना के लिए साधुवाद..नमस्कार.
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