हश्र ......
>> Tuesday, May 6, 2014
ज़र्द पत्तों की तरह
सारी ख्वाहिशें झर गयी हैं
नव पल्लव के लिए
दरख़्त बूढ़ा हो गया है
टहनियां भी अब
लगी हैं चरमराने
मंद समीर भी
तेज़ झोंका हो गया है
कभी मिलती थी
छाया इस शज़र से
आज ये अपने से
पत्र विहीन हो गया है
अब कोई पथिक भी
नहीं चाहता आसरा
अब ये वृक्ष खुद में
ग़मगीन हो गया है
ये कहानी कोई
मेरी तेरी नहीं है
उम्र के इस पड़ाव पर
हर एक का यही
हश्र हो गया है ।