तृष्णा की आंच
>> Tuesday, October 27, 2009
यादों के रेगिस्तान में
भटकता है मन यूँ ही
कि जैसे
कस्तूरी की चाह में
भटकता है कस्तूरी मृग
जंगल - जंगल ।
ख़्वाबों के तारे
छिप जातें हैं जब
निकलता है
हकीक़त का आफताब
और उसकी तपिश से
ख्वाहिशों का चाँद भी
नज़र नहीं आता ।
और इस मन का
पागलपन देखो
चाहता है कि
ख्वाहिशों को
हकीक़त बना दे
और
ख़्वाबों को आइना ।
पर ये आइना
टूट जाता है
छनाक से
चुभ जाती हैं किरचें
मन के हर कोने में
और सुलग जाता है मन
तृष्णा की आंच से .