दिवस का अवसान
>> Thursday, October 8, 2009
भोर का कुछ यूँ आगमन हुआ
रवि रश्मि - रथ पर सवार हुआ
कर रहा था
अपने तेज से प्रहार
तारावली छिप गयी
और रजनीकर भी
गया था हार ।
दिनकर के आते ही
महक उठा
चमन - चमन
प्रफुल्लित हो गया
सारा वातावरण ।
कलरव से गुंजरित थीं
चहुँ दिशाएं
धरती के जीवन में
अंकुरित थीं
नयी आशाएं।
त्रण- त्रण पर
सोना बरस रहा था
पात - पात पर
चांदी थी
प्रकृति की सारी चीजें
जैसे सूरज ने
चमका दी थीं।
कर्मठ
छोड़ चुके थे आलस
निशा की
निद्रा त्याग चुके थे
हर चेतन में
अब जीवन था
सब अपने कार्यों में
क्रियान्वित थे ।
जैसे जैसे रथ बढ़ता था
प्रचंड धूप सताती थी
पर रवि की सवारी तो
आगे ही बढ़ती जाती थी।
फिर हुआ सिंदूरी आसमां
दिवाकर ने किया प्रस्थान
चेतन के भी थक गए प्राण
यूँ हुआ दिवस का अवसान ।
5 comments:
भोर से दिवस के आवसान के सफर मे यू लगा कि मै सत्तर के दशक की कोई रचना पढ रहा हूँ,कहने का तात्पर्य कविता जो बिल्कुल शुध्द हिन्दी भाषा से बनी है जो निर्मल भावो मे बहे जा रही हो .....आभार!
नयी किरण,नयी सुबह,नया विश्वास,नयी आशाएं........सुन्दर जीवन का क्रम
bahut hee bhor kee sundarta aur prakyuti se judee pyaree kavita .
bhor se diwas k awasan tak ka sunder shabdo se saja ek sunder chakrr ...bhagwan se prarthna he ki sabka din bhi itna hi sunder saja hua ho.
लाजवाब लिखा है ..... बहुत KHOOB KALPANA
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