तृष्णा की आंच
>> Tuesday, October 27, 2009
यादों के रेगिस्तान में
भटकता है मन यूँ ही
कि जैसे
कस्तूरी की चाह में
भटकता है कस्तूरी मृग
जंगल - जंगल ।
ख़्वाबों के तारे
छिप जातें हैं जब
निकलता है
हकीक़त का आफताब
और उसकी तपिश से
ख्वाहिशों का चाँद भी
नज़र नहीं आता ।
और इस मन का
पागलपन देखो
चाहता है कि
ख्वाहिशों को
हकीक़त बना दे
और
ख़्वाबों को आइना ।
पर ये आइना
टूट जाता है
छनाक से
चुभ जाती हैं किरचें
मन के हर कोने में
और सुलग जाता है मन
तृष्णा की आंच से .
16 comments:
बेहद खुबसूरती से उकेरा है मन घटित होने वाले कुछ लम्हो को जिनका दर्द तब होता है जब आप आपने करीब होते है .......मन को बहाकर ले गयी .......वह एहसासे जो एक अपना सा है........
Very beautiful portrayal of life's reality!
जब ख्वाब हकीकत नहीं बनते तो दूत जाते हैं और उनकी किरचे चुभती हैं .......... बहुत ही खूब लिखा है .......
दी ! जिन्दगी के रंगों को आपसे अच्छा और कोई नहीं अभिव्यक्त कर सकता एक और सुन्दर रचना
मन की दशा को कितनी सुन्दरता से बयान किया है आपने..
बहुत सच्ची बात त्रष्णा की आग में सब भस्म हो जाता है
bahut ji khoobsoorti se ukera hai aapne bhaavnaon ko........... bahut achchi lagi yeh kavita........
ख्वाहिशों को हकीकत बनाने की ख्वाहिश ..यही तो ज़िन्दगी है
ख्वाबो के तारे छुप जाते हैं
जब निकलता है
हकीकतों का आफ्ताब
लाजवाब संवेदनायों को सुन्दर उपमाओं से सजाया है बधाई
आदरणीया संगीता जी,
सुन्दर भावनाओं को आपने बहुत खूबसूरती से कविता में प्रस्तुत किया है।
पूनम
atyant sunder bhavo kee abhivyakti .dil per chap chod jane valee rachana |
badhai
तृष्णा की आंच बहुत पीडा पहुंचाती है। आपने उसे सलीके से एक शाहकार के रूप में सजा दिया है। बधाई।
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स्त्री के चरित्र पर लांछन लगाती तकनीक।
चार्वाक: जिसे धर्मराज के सामने पीट-पीट कर मार डाला गया।
तृष्णा की आंच में सुलगा मन फिर से...
पागलपन करता है और चाहता है खावाहिशो को हकीकत बना दे...आह संगीता जी यही चक्र चलता रहता है और फिर वाही तृष्णा की आंच..
मर्माहित कर देने वाली आपकी रचना बहुत अच्छी लगी.
तृष्णा की आंच आहत करती है; जलाती है
सुन्दर चित्रण
मंगलवार 24/09/2013 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
आप भी एक नज़र देखें
धन्यवाद .... आभार ....
bahut sunder rachna
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