copyright. Powered by Blogger.

तृष्णा की आंच

>> Tuesday, October 27, 2009



यादों के रेगिस्तान में

भटकता है मन यूँ ही

कि जैसे

कस्तूरी की चाह में

भटकता है कस्तूरी मृग

जंगल - जंगल ।


ख़्वाबों के तारे


छिप जातें हैं जब

निकलता है

हकीक़त का आफताब

और उसकी तपिश से

ख्वाहिशों का चाँद भी

नज़र नहीं आता ।


और इस मन का


पागलपन देखो

चाहता है कि

ख्वाहिशों को

हकीक़त बना दे

और

ख़्वाबों को आइना ।

पर ये आइना

टूट जाता है

छनाक से

चुभ जाती हैं किरचें

मन के हर कोने में

और सुलग जाता है मन

तृष्णा की आंच से .



16 comments:

ओम आर्य 10/27/2009 1:33 PM  

बेहद खुबसूरती से उकेरा है मन घटित होने वाले कुछ लम्हो को जिनका दर्द तब होता है जब आप आपने करीब होते है .......मन को बहाकर ले गयी .......वह एहसासे जो एक अपना सा है........

Anonymous,  10/27/2009 1:36 PM  

Very beautiful portrayal of life's reality!

दिगम्बर नासवा 10/27/2009 5:22 PM  

जब ख्वाब हकीकत नहीं बनते तो दूत जाते हैं और उनकी किरचे चुभती हैं .......... बहुत ही खूब लिखा है .......

shikha varshney 10/27/2009 8:39 PM  

दी ! जिन्दगी के रंगों को आपसे अच्छा और कोई नहीं अभिव्यक्त कर सकता एक और सुन्दर रचना

वन्दना अवस्थी दुबे 10/27/2009 11:08 PM  

मन की दशा को कितनी सुन्दरता से बयान किया है आपने..

शोभना चौरे 10/27/2009 11:45 PM  

बहुत सच्ची बात त्रष्णा की आग में सब भस्म हो जाता है

डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali) 10/28/2009 9:37 AM  

bahut ji khoobsoorti se ukera hai aapne bhaavnaon ko........... bahut achchi lagi yeh kavita........

रश्मि प्रभा... 10/28/2009 2:41 PM  

ख्वाहिशों को हकीकत बनाने की ख्वाहिश ..यही तो ज़िन्दगी है

निर्मला कपिला 10/28/2009 8:51 PM  

ख्वाबो के तारे छुप जाते हैं
जब निकलता है
हकीकतों का आफ्ताब
लाजवाब संवेदनायों को सुन्दर उपमाओं से सजाया है बधाई

पूनम श्रीवास्तव 10/29/2009 8:28 AM  

आदरणीया संगीता जी,
सुन्दर भावनाओं को आपने बहुत खूबसूरती से कविता में प्रस्तुत किया है।
पूनम

Apanatva 10/30/2009 4:53 PM  

atyant sunder bhavo kee abhivyakti .dil per chap chod jane valee rachana |
badhai

Arshia Ali 10/31/2009 4:33 PM  

तृष्णा की आंच बहुत पीडा पहुंचाती है। आपने उसे सलीके से एक शाहकार के रूप में सजा दिया है। बधाई।
--------
स्त्री के चरित्र पर लांछन लगाती तकनीक।
चार्वाक: जिसे धर्मराज के सामने पीट-पीट कर मार डाला गया।

अनामिका की सदायें ...... 10/31/2009 10:58 PM  

तृष्णा की आंच में सुलगा मन फिर से...
पागलपन करता है और चाहता है खावाहिशो को हकीकत बना दे...आह संगीता जी यही चक्र चलता रहता है और फिर वाही तृष्णा की आंच..

मर्माहित कर देने वाली आपकी रचना बहुत अच्छी लगी.

M VERMA 11/02/2009 4:12 PM  

तृष्णा की आंच आहत करती है; जलाती है
सुन्दर चित्रण

विभा रानी श्रीवास्तव 9/24/2013 5:57 AM  

मंगलवार 24/09/2013 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
आप भी एक नज़र देखें
धन्यवाद .... आभार ....

poonam 9/24/2013 6:42 AM  

bahut sunder rachna

Post a Comment

आपकी टिप्पणियों का हार्दिक स्वागत है...

आपकी टिप्पणियां नयी उर्जा प्रदान करती हैं...

आभार ...

हमारी वाणी

www.hamarivani.com

About This Blog

आगंतुक


ip address

  © Blogger template Snowy Winter by Ourblogtemplates.com 2009

Back to TOP