मौन
>> Wednesday, November 4, 2009
जब व्यापता है
मौन मन में
बदरंग हो जाता है
हर फूल उपवन में
मधुप की गुंजार भी
तब श्रृव्य होती नहीं
कली भी गुलशन में
कोई खिलती नहीं ।
शून्य को बस जैसे
ताकते हैं ये नयनअगन सी धधकती है
सुलग जाता है मन ।
चंद्रमा की चांदनी भी
शीतलता देती नहीं
अश्क की बूंदें भी
तब शबनम बनती नहीं ।
पवन के झोंके आ कर
चिंगारी को हवा देते हैं
झुलसा झुलसा कर वो
मुझे राख कर देते हैं
हो जाती है स्वतः ही
ठंडी जब अगन
शांत चित्त से फिर
होता है कुछ मनन
मौन भी हो जाता है
फिर से मुखरित फूलों पर छा जाती है इन्द्रधनुषी रंजित अलि की गुंजार से मन गीत गाता है विहग बन अस्मां में उड़ जाना चाहता है ..
9 comments:
man kee sthiti man hee jane .kabhee kabhee antaermukhee hone me badee sheetalata milatee hai .
bahut achha likha hai... aabhar
बहुत ही प्यारी कविता जो सिर्फ और सिर्फ मन के आंगन से ही उठ सकती है ऐसी भावे ! अतिसुन्दर!
कभी कभी मौन में पूरा जीवन ही व्याप्त हो जाता है ......... गहरे एहसास हैं इस रचना मैं ............
bahut achchi lagi yeh kavita......... bahut hi gahre ehsaas hain ismein.........
maun ka avlokan accha hai...
जब मौन मुखर होता है तो बहुत कुछ कह देता hai
भीतर कहीं छू गयी आपकी कविता...आभार
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श्रीमती के नाम ghazal
achhci hai di...prabhvshali rachna hai...par u know mujhe aapka kaun sa rang priy hai :)
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