सख्त ज़मीन
>> Tuesday, November 17, 2009
अहम् जब
जमा लेता हैं जड़ें
सोच के वृक्ष पर
और
हर टहनी से
निकलने लगती हैं
छोटी - छोटी जड़ें
जो तेजी से
बढ़ती हैं
धरती की ओर
अन्दर धंसने के लिए .
जब ये
धंस जाती हैं
पूरी तरह से तो
धरती सख्त हो जाती है
और इन जड़ों को
निकालने की हर कोशिश
व्यर्थ हो जाती है
क्यों कि ये
मन की ज़मीन के
अन्दर ही अन्दर
एक दूसरे से
इस कदर उलझ जाती हैं
कि एक को
निकालने की कोशिश में
दूसरी बाहर आ जाती है
फिर इस वृक्ष को
अपने हाल पर ही
छोड़ना होता है
हर टहनी पर उगी
जड़ का बोझ
इसे स्वयं ही
ढोना होता है
वक़्त के साथ - साथ
ये जड़ें भी
सूख जाती हैं और
सख्त होती ज़मीन
कुछ नर्म भी हो जाती है
13 comments:
बहुत ही खूबसूरत रचना , सच्चाई को उकेरती बढ़िया रचना . बधाई
सच है अहम जब हद से ज़्यादा हो जाता है तो अपने आप को ही खोखला करने लगता है ...... कुछ भी देख सुन नही पाता ..... सख़्त आवरण उड़ जाता है अपनी ज़मीन पर ......... बहूत गहरा लिखा है .......
wahhhhhhh geet
kya baat kahi hai.
sundar ati sundar
जिन्दगी के बहुत करीब और खूबसूरत रचना
वाह........जितनी भी तारीफ़ करूँ, कम होंगे.कितनी सशक्तता से अहम् के ज़हर को बोझ में परिवर्तित किया है.......वाह
आदरणीया संगीता जी,
सबसे पहले तो माफ़ी मांगूंगी कि इधर मैं नियमित आपके ब्लाग पर नहीं आ पा रही थी।
आपकी यह रचना तो जीवन की एक कटु सच्चाई को बयान कर रही है।
सचमुच आपने जीवन की सच्चाइयों को बहुत करीब से अनुभव किया है।
हार्दिक बधाई इस रचना के लिये।
पूनम
अहम मजबूत हो जाये तो जिन्दगी तहस नहस कर देता है
जिन्दगी का कटु सत्य
बहुत ही बेहतरीन रचना बधाई
संगीता जी,
सर्वप्रथम ह्रदय से आभार व्यक्त करना चाहूंगी आप मेरे ब्लॉग पर आई और मेरा मान बढाया...
गीत-संगीत तो मैं ये चार दिनों से ही डाल रही हूँ, जब कविता अथवा आलेख के लिए मेरे भाव और शब्द - संसार कुछ सिमटते से लगे .....
बस ये एक छोटा सा विराम लिया है.....और सोचा इतनी गंभीर बातें हमेशा हम करते ही रहते हैं क्यूँ न ...कुछ हल्का फुल्का सा भी माहौल बनाया जाए...अच्छा लगा जान कर की आपको पसंद आया..
आपकी कविता में आपने जो तुलनात्मक बिम्ब प्रस्तुत किया है अद्वितीय है.......आपने एक सन्देश दिया है....वह अनुपम है....
बहुत सुन्दर लिखा है...
बधाई..
bahut hee acche bhav aur usase sunder unakee abhivyaktee .
ye aham hamse kitana kuch cheen leta hai komalta , nirmalta isaka ehsaas bhee hum aham ke hote nahee kar paate .
वाहवा... सुंदर कविता...
bahut acchha chitran...aur ant ki lines ek such ko ujagar karti hui...such me aisa hi hota hai waqt apne badlaav k saath saath chezo,halaato aur socho ko bhi badal deta hai aur usi prakar fitrat aur pravartiyo me badlaav aata chala jata hai...khoobsurti se apne bhaavo ko piroya hai.badhayi.
wah di! 16 aane sachchi baat bahut hi prabhavi dhang se kah di aapne.bahut badhai.
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