सुनीता शानू ब्लॉग जगत में कोई अनचीन्हा नाम नहीं है । कल उनकी पुस्तक " मन पखेरू उड़ चला फिर " काव्य संग्रह का विमोचन दिल्ली में हुआ । सुनीता जी का यह पहला काव्य संग्रह है , उनके मन पखेरू का एक पंख जिसने बहुत संतुलित अंदाज़ में उड़ान लगाई है और यह उड़ान मात्र कल्पना के आकाश की नहीं है बल्कि यथार्थ के धरातल पर चलते हुये अपनी भावनाओं को विस्तार दिया है ।
जीवन में आई कठिनाइयों से संघर्ष करते हुये आगे बढ़ना ही जिजीविषा है । जिसे सुनीता जी ने बड़ी सहजता से जिया है । उनकी कवितायें इस बात को प्रमाणित भी करती हैं । संवेदनशील मन मात्र अपनी ही व्यथा कथा नहीं कहता , इनसे जुड़े हर शख़्स की भावनाओं को कवयित्री ने कविता में बुन डाला है ।
सुनीता जी " अपनी बात " में लिखती हैं कि वो रोज़ जागती आँखों से सपने देखती थीं और क्रमश: लगा देती थीं जिससे अगले दिन फिर उसके आगे सपने बुन सकें । यह बात उनकी सकारात्मक सोच को परिलक्षित करती है ।
कर्तव्य की वेदी पर जब मन बंधन महसूस कर रहा हो , उस समय किसी के नेह से मन परिंदा बन उड़ने लगे , मन की भावनाओं को शब्द मिलें और लेखन के रूप में रचनाएँ सृजित होने लगें तो यही महसूस होगा ----
नेह की नज़रों से मुझको
ऐसे देखा आपने
मन पखेरू उड़ चला फिर
आसमां को नापने ।
सुनीता जी की अधिकांश रचनाएँ प्रेम - पगी हैं । संघर्षमय जीवन में यदि प्रेम की भावना प्रबल हो तो कठिनाइयों से पार पाना मुश्किल नहीं -
राहों में तुम्हारी हम , जब जब भी बिखर जाते
हम खुद को मिटा देते , हम मिट के सँवर जाते ।
प्रेम - रस से सराबोर कुछ रचनाएँ मन को छू जाती हैं --- प्रिय बिन जीना कैसा जीना , एक अजनबी ,ये कौन है ,प्यार में अक्सर , मैं और तुम ,श्याम सलोना ऐसी ही कुछ रचनाएँ हैं ....तस्वीर तुम्हारी कविता की एक बानगी देखिये --
दिल के कोरे कागज़ पर
खींच कर कुछ
आड़ी - तिरछी लकीरें
जब देखती हूँ मैं
बन जाती है
तस्वीर तुम्हारी ।
"मैं रूठ पाऊँ " एक ऐसी रचना जहां प्रेम की पराकाष्ठा है -- इसकी अंतिम पंक्तियाँ देखिये -
और सोचती हूँ
आखिर झगड़ा
किस बात पर हो
कि मैं रूठ पाऊँ
और तुम मुझे मनाओ ।
" फागुन के दोहे " में भी कवयित्री के हृदय का प्रेम छलछला रहा है -
रंग अबीर गुलाल से , धरती हुई सतरंग ।
भीगी चुनरी पर चढ़ा , रंग पिया के संग ॥
तो कहीं प्रेम के अतिरेक से होने वाली दुश्चिंता भी नज़र आ रही है -
दीमक भी पूरा नहीं चाटती
ज़िंदगी दरख्त की
तुमने क्यों सोच लिया
कि ' मैं ' वजह बन जाऊँगी
तुम्हारी साँसों की घुटन
तुम्हारी परेशानी की ...
जीवन के यथार्थ को भोगते हुये इनकी कुछ रचनाएँ बहुत कुछ कह जाती हैं । अनुभव से उपजी रचनाएँ मन को सुकून देती हैं जैसे --- " माँ "
माँ बन कर जाना मैंने
माँ की ममता क्या होती है ?
" क्यों आते हैं गम " में कवयित्री ने बच्चों की मानसिकता को उजागर किया है कि माता -पिता की कड़वी बातें याद कर बच्चे उनसे दूरी बना लेते हैं और उनके प्यार दुलार को भुला बैठते हैं ....
"डोर " कविता में सुनीता जी ने समाज के सच को दर्शाया है । नारी को पतंग का बिम्ब दे कर कहा है कि यदि पतंग डोर से बंधन मुक्त होना चाहे तो क्या होता है -----
एक आह सुनी
डोर तोड़ कर गिरी
एक कटी पतंग की
जो अपना
संतुलन खो बैठी थी
लूट रहे थे
हजारों हाथ
कभी इधर कभी उधर
अचानक
नोच लिया उसको
कई क्रूर हाथों ने ......
नारी विमर्श पर उनकी कवितायें बड़ी सहजता के साथ समाज के सम्मुख कई प्रश्न खड़े करती हैं ...." चिह्न " में उन्होने पूछा है कि नारी पर ही बंधन के सारे चिह्न क्यों आरोपित होते हैं ?
किन्तु
तुम पर
क्यों नहीं
नज़र आता
मेरे , बस मेरे होने
का एक भी चिह्न ?
"कन्यादान " में अपनी बात कुछ इस तरह से रखी है ---
कन्यादान एक महादान
बस कथन यही एक सुना
धन पराया कह कह कर
नारी अस्तित्व का दमन सुना ....
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हर पीड़ा सह कर जिसने
नव - जीवन निर्माण किया
आज उसी को दान कर रहे
जिसने जीवन दान दिया ।
"खबर दुनिया बदलने की" रचना बहुत मर्मस्पर्शी है । भ्रूण हत्या से ले कर बलात्कार तक की घटनाओं को समेटे हुये कवयित्री का यह कथन ---
कहीं सुनी तो होगी खबर
दुनिया बदलने की .... झकझोर जाता है ।
" वो सुन न सके " कविता नारी हृदय के क्रंदन को सशक्त रूप से उकेरती है । नारी का सारा जीवन पुरुष के दंभ के नीचे सिसकता रहा और जब सब्र का बांध टूटा और अपनी बात कहने की हिम्मत आई तो----
उम्र की ढलान में
दीवारें दरक गईं
कालीन फट गए
अब सब्र का दामन छूटा
घूँघट हटा
पलकें उठीं
वह झल्लाई
चिल्लाई ज़ोर से ...
अब बाबूजी ऊंचा सुनते हैं ।
'कामवाली ' ' मासूमियत ' ' गरीब की बेटी ' ऐसी रचनाएँ हैं जो सोचने पर विवश कर देती हैं ।
हे अमलतास , धरती का गीत , पंछी तुम कैसे गाते हो , ओढा दी चूनर , ऐसी कवितायें हैं जो सुनीता जी के प्रकृति प्रेम को दर्शाती हैं ।
यूं तो इस पुस्तक की हर रचना मन को प्रभावित करती है लेकिन इनके द्वारा रचित " जन गीत :
मन मारा मारा फिरता है " मन को उदद्वेलित कर देती है । बिना किसी का नाम लिए ऐतिहासिक और धार्मिक पात्रों को लेकर जो गीत लिखा है वो अनेक प्रश्न छोड़ जाता है ... कवयित्री कल्पना कर रही हैं कि शायद इस दर्द को दूर करने कोई शिल्पकार आएगा ----
एक नारी ने एक नारी को
अपने बेटों में बाँट दिया
बेटों ने फिर उस नारी को
पासों में धन - सा छांट दिया ....
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यह हूक मिटाने की खातिर
कोई शिल्पकार यहाँ आएगा
और पथरीले इस जीवन को
नन्दन वन सा महकाएगा ।
पुस्तक में कविताओं के साथ ही रचनाकार की चित्रकारी भी है जो नारी की व्यथा को चित्रित करने में सक्षम रही है ।
कवयित्री सुनीता शानू जी को उनके " मन पखेरू उड़ चला फिर " काव्य संग्रह पर मेरी हार्दिक बधाई और शुभकामनायें । यही कामना है कि वो इसी तरह मानवीय और सामाजिक सरोकार से जुड़ निरंतर काव्य सृजन करती रहें ।
पुस्तक का नाम --- मन पखेरू उड़ चला फिर
कवयित्री ------ सुनीता शानू
ISBN - 978-93-81394-39-7
प्रकाशक - हिन्द - युग्म
मूल्य - 195 / Rs .