युधिष्ठिर , तुम नहीं रहे कभी भी
मेरी जिज्ञासा के पात्र
रहे तुम केवल
पांडवों में से एक मात्र ।
तुम्हारे पूरे जीवन मे
बस एक ही प्रसंग
याद आता है
जहाँ तुम्हारे होने का
महत्त्व दर्शाता है ।
यक्ष प्रश्नों के उत्तर दे
अपने भाइयों को
जीवन दान दिया था
बाकी तो तुमने हमेशा
उनका हर अधिकार हरा था ।
पासों की बिसात पर
तुमने कौन सा रूप
दिखाया था
एक एक कर
सारे भाइयों को
दाँव पर लगाया था
यहाँ तक कि खुद के साथ
द्रोपदी भी हार गए थे
जीतने की धुन में
एक एक को जैसे मार गए थे
भरी सभा में चीर हरण पर
तुम्हें शर्म नहीं आयी
भाइयों की क्रोधाग्नि पर भी
तुमने ही रोक लगाई ।
द्रोपदी के मन में भी
कभी सम्मानित न हुए होंगे
उसके मन में तो हमेशा ही
कुछ तीक्ष्ण प्रश्न रहे होंगे
यूँ तो तुम
कहलाये धर्मराज
लेकिन एक बात बताओ आज
जब तुम स्वयं को
हार चुके थे
जुए के दाँव पर
फिर क्या अधिकार बचा था
तुम्हारा द्रौपदी पर ?
खैर,
तुमसे करूँ भी तो
क्या करूँ प्रश्न
क्योंकि हर बार की तरह
बीच में धर्म का पाठ पढ़ा दोगे
और तर्क कुतर्क से
खुद को सही बता दोगे ।
ऐसे लोगों के लिए
कहते हैं आज कल के लोग
"जस्ट इग्नोर "
मैं भी नही चाहती
तुमसे पूछना कुछ और ।