बसन्त आगमन का दिन ही
चुन लिया था मैंने
बासंती जीवन के लिए .
पर बसंत !
तुम तो न आये ।
ऐसा नहीं कि
मौसम नहीं बदले
ऐसा भी नहीं कि
फूल नहीं खिले
वक़्त बदला
ऋतु बदली
पर बसन्त !
तुम तो न आये ।
सजाए थे ख्वाब रंगीन
इन सूनी आँखों में
भरे थे रंग अगिनत
अपने ही खयालों में
कुछ हुए पूरे
कुछ रहे अधूरे
पर बसन्त !
तुम तो न आये ।
बसन्त तुम आओ
या फिर न आओ
जब भी खिली होगी सरसों
नज़रें दूर तलक जाएंगी
और तुम मुझे हमेशा
पाओगे अपने इन्तज़ार में ,
बस बसन्त !
एक बार तुम आओ ।
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अचानक
ज़रा सी आहट हुई
खोला जो दरीचा
सामने बसन्त खड़ा था
बोला - लो मैं आ गया
मेरी आँखों में
पढ़ कर शिकायत
उसने कहा
मैं तो कब से
थपथपा रहा था दरवाजा
हर बार ही
निराश हो लौट जाता था
तुमने जो ढक रखा था
खुद को मौन की बर्फ से
मैं भी तो प्रतीक्षा में था कि
कब ये बर्फ पिघले
और
मैं कर सकूँ खत्म
तुम्हारे चिर इन्तज़ार को ।
और मैं -
किंकर्तव्य विमूढ़ सी
कर रही थी स्वागत
खिलखिलाते बसन्त का ।
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