धर्मराज युधिष्ठिर
>> Sunday, February 21, 2021
युधिष्ठिर ,
तुम नहीं रहे कभी भी
मेरी जिज्ञासा के पात्र
रहे तुम केवल
पांडवों में से एक मात्र ।
तुम्हारे पूरे जीवन मे
बस एक ही प्रसंग
याद आता है
जहाँ तुम्हारे होने का
महत्त्व दर्शाता है ।
यक्ष प्रश्नों के उत्तर दे
अपने भाइयों को
जीवन दान दिया था
बाकी तो तुमने हमेशा
उनका हर अधिकार हरा था ।
पासों की बिसात पर
तुमने कौन सा रूप
दिखाया था
एक एक कर
सारे भाइयों को
दाँव पर लगाया था
यहाँ तक कि खुद के साथ
द्रोपदी भी हार गए थे
जीतने की धुन में
एक एक को जैसे मार गए थे
भरी सभा में चीर हरण पर
तुम्हें शर्म नहीं आयी
भाइयों की क्रोधाग्नि पर भी
तुमने ही रोक लगाई ।
द्रोपदी के मन में भी
कभी सम्मानित न हुए होंगे
उसके मन में तो हमेशा ही
कुछ तीक्ष्ण प्रश्न रहे होंगे
यूँ तो तुम
कहलाये धर्मराज
लेकिन एक बात बताओ आज
जब तुम स्वयं को
हार चुके थे
जुए के दाँव पर
फिर क्या अधिकार बचा था
तुम्हारा द्रौपदी पर ?
खैर,
तुमसे करूँ भी तो
क्या करूँ प्रश्न
क्योंकि हर बार की तरह
बीच में धर्म का पाठ पढ़ा दोगे
और तर्क कुतर्क से
खुद को सही बता दोगे ।
ऐसे लोगों के लिए
कहते हैं आज कल के लोग
"जस्ट इग्नोर "
मैं भी नही चाहती
तुमसे पूछना कुछ और ।
Labels:
( सर्वाधिकार सुरक्षित ),
महाभारत पात्र
34 comments:
कहते हैं आज कल के लोग
"जस्ट इग्नोर "
मैं भी नही चाहती
तुमसे पूछना कुछ और ।
आपकी इस रचना ने मन हर लिया मेरा...मेरे पास यह सदा मेरी संग्रहणीय रचनाओं में से एक रहेगी ।
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" सोमवार 22 फरवरी 2021 को साझा की गयी है.... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
इस तरह की परिस्थितियों से, यदा कदा आज भी हमें सामना करना पड़ता है और सिवाय उसे भूलने या सहने के अलावा कोई रास्ता नहीं सूझता..आपका ये सृजन बिल्कुल अंतर्मन को छू गया..
एक ही प्रश्न में छिपे अनेक प्रश्न और सभी के प्रतिउत्तर में एक ही समान उत्तर .... खूबसूरत अभिव्यक्ति आपकी 👌
गजब...ये तो आपने मेरे भावों को शब्द दे दिए हों जैसे...काहे क धर्मराज युधिष्ठिर 🙄
एक और काम किया था उन्होंने,अश्वस्थामा हतो नरो वा कुंजरो भी बोला था। प्रणाम।
यह प्रश्न तो युधिष्ठर से हमेशा पूछे जाएंगे।
कहते हैं आज कल के लोग
"जस्ट इग्नोर "
मैं भी नही चाहती
तुमसे पूछना कुछ और ।
यथार्थ को रेखांकित करती दमदार कविता...
साहसिक एवं सटीक अभिव्यक्ति । नमन आपकी लेखनी को ।
बहुत सुंदर कविता
बहुत सुंदर और सटीक रचना
वाह!बेहतरीन सृजन !
बहुत सही और सटीक व्याख्या लगी युधिष्ठर की .
बहुत बहुत सुन्दर
बात अपनी जगह सही है पर साथ ही यह भी याद रखना होगा इस युद्ध को होने देने के लिए यह आवश्यक था, जैसे कैकेयी ने स्वयं पर दोष लेकर रावण के अंत के लिए राम को वन भेजा था, जरासंध जैसे अत्याचारी राजा दुर्योधन के साथ थे, उनका अंत करने के लिए ही संभवत: यह घटनाक्रम रचा गया था।
सभी पाठकों का आभार ।
@ अनिता जी ,
आप सही कह रहीं हैं कि किसी न किसी कारण से ये घटना क्रम रचे गए होंगे । ये प्रश्न तो आम जन के मन में उठने वाली जिज्ञासा मात्र है । आभार ।
विचारों की गहन प्रस्तुति।
बिल्कुल, सही विश्लेषण
युधिष्ठिर का किरदार वाकई में धर्मराज उपनाम का कभी मान ना रख सका..बेहतरीन प्रसंग..उत्तम रचना
बहुत कॉम्प्लिकेटेड हैं हमारे इतिहास के पात्र। उस समय काल और आज में बहुत फर्क है। बहुत से प्रश्न उपजते हैं मन में। जिन्हें नायक कहा गया क्या सच में वे थे। अच्छा लिखा है आपने।
कितनी सहजता से कितनी गहनतम बात कह दी, बहुत ही सटीक और सशक्त लिखा आपने।
युधिष्ठिर की धर्मपरायणता को लेकर ऐसे कितने ही सवाल जनमानस में रहे हैं. आपने उनको उचित शब्द दिये@
महाभारत के पात्रों से उभरती हुई एक असाधारण काव्य सृजन मुग्धता बिखेरती है - - साधुवाद सह।
सही जिज्ञासा और अंतर्मन की उथलपुथल
युद्धिष्ठिर, यानी युद्ध में स्थिर ! क्या सचमुच ? मौन और अपने सत्य के आगे असत्य को आगे रहने दिया, जब यह किया तो भरी सभा में क्या परेशानी थी ?
तुम, तुम्हारा नाम - बस एक संधि विच्छेद हैं और एक कहानी कि तुम सत्य बोलते थे
स्वयं कृष्ण ने गीता में पांडवों मे अर्जुन को श्रेष्ठ माना है,युठिष्ठिर को नहीं.
रामायण काल में धर्म के प्रतीक पुरुष मर्यादा पुरुषोत्तम राम द्वारा स्थापित धर्म के स्वरूप में कहीं महाभारर काल विचलन की प्रवृति को तो नहीं उजागर करता है। अछि रचना।
खैर,
तुमसे करूँ भी तो
क्या करूँ प्रश्न
क्योंकि हर बार की तरह
बीच में धर्म का पाठ पढ़ा दोगे
और तर्क कुतर्क से
खुद को सही बता दोगे ।
ऐसे लोगों के लिए
कहते हैं आज कल के लोग
"जस्ट इग्नोर "
मैं भी नही चाहती
तुमसे पूछना कुछ और ।
बहुत ही बढ़िया,इस रचना की जितनी तारीफ की जाये कम है, सतयुग और द्वापर युग की कहानी कुछ पात्रों को कठघरे में लाकर खड़ा कर ही देती हैं , खास तौर पर स्त्रियों के मामले में, आज तक नारी से सीता बनने की आशा की जाती हैं, उदाहरण भी उन्हीं का दिया गया जो भरी सभा में अपमानित हुई , युग बदला संगीता जी परंतु धारणा नही बदली, मैं भी इसी तरह के सवाल उठाते हुए कुछ लिखी हूँ रामायण के किरदारों को लेकर ,प्रभावशाली अद्भुत रचना, फिर से पढ़ने आऊँगी, बहुत ही अच्छी है , शुभ प्रभात नमस्कार संगीता जी।
हमारी समृद्ध संस्कृति के वाहक इतिहास के मुख्य पात्रों के प्रति जिज्ञासा और उनके तात्कालिक परिस्थितियों में किये गये कर्मों से उपजे प्रश्न के फलस्वरूप उपजी मंथन एवं विमर्श को प्रेरित करती सुंदर कृति।
सादर।
बहुत ही अच्छी कविता |चिंतन मनन करने को विवश भी करती है |सादर प्रणाम
धर्मराज युधिष्टर के चरित्र के संदर्भ में आपका यह दृष्ठकोण भी महत्वपूर्ण है। उस काल में ज्येष्ठपुत्र होने के अधिकारों और कर्तव्यों के साथ-साथ उनके अपने वंश की मर्यादाओं और उत्तम आचार-व्यवहार की ज्योति को जलाए रखने के उत्तरदायित्वों के परिप्रेक्ष्य में बाकी पांडवों और उनकी भार्या द्रौपदी ने अपनी मर्यादा में रहते हुए युधिष्ठर से अपनी असहमति व्यक्त की है। इसकी झलक महाभारत में मिलती है।
...................काफी दिनों बाद ब्लॉग जगत में आपका सक्रिय होना नये-पुराने सभी ब्लॉगरों को प्रेरणा प्रदान करेगी। एक सुंदर और अलग सी काव्य रचना के लिए आपको ढेरों शुभकामनाएँ। सादर बधाई।
जी नमस्ते ,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (०९-०३-२०२१) को 'मील का पत्थर ' (चर्चा अंक- ४,००० ) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
--
अनीता सैनी
एक यक्ष प्रश्न है जो फिर उठ रहा है अंगुलियों के मुहाने पर
और सदियों उठता रहेगा अलग-अलग तरह से।
बहुत सुंदर सृजन।
हिन्दी ब्लॉगिंग के मंदी के दौर में भी इतनी पाठकीय टिप्पणियाँ :) .... सुखद एहसास हुआ. स्वागत आपका. अब बनी रहिएगा यहाँ.
Post a Comment