बसंत नहीं आता
>> Monday, February 18, 2013
मेरे इस शहर में
बसंत नहीं आता ,
न गमकती
बयार चलती है
और न ही
महकते फूल
खिलते हैं
कंकरीट के उद्यानों से
छनती हुई
विषैली हवा
घोट देती है दम
हर शख्स का ।
मेरे इस शहर में
बसंत नहीं आता ...
एक खौफ है जो
घेरे रहता है मन को
कब , कहाँ कोई भेड़िया
दबोच लेगा
अपने शिकार को
और वह तोड़ देता है दम
निरीह भेड़ सा बना
मेरे इस शहर में
बसंत नहीं आता ।
अट्टालिकाओं से
निकले कचरे में
फटेहाल बच्चे
बीनते हुये कुछ
शमन करते हैं
अपनी भूख का
और यह दृश्य
निकाल देता है दम
हमारी संवेदनाओं का
बसंत नहीं आता ।
गाँव की गंध छोड़
जो आ बसे शहरों में
दिहाड़ी के चक्र में
घूमती है ज़िंदगी
सपने जो लाया था साथ अपने
निकल जाता है उनका दम
रह जाती है तो
बस एक हताशा
मेरे इस शहर में
बसंत नहीं आता ।