बसंत नहीं आता
>> Monday, February 18, 2013
मेरे इस शहर में
बसंत नहीं आता ,
न गमकती
बयार चलती है
और न ही
महकते फूल
खिलते हैं
कंकरीट के उद्यानों से
छनती हुई
विषैली हवा
घोट देती है दम
हर शख्स का ।
मेरे इस शहर में
बसंत नहीं आता ...
एक खौफ है जो
घेरे रहता है मन को
कब , कहाँ कोई भेड़िया
दबोच लेगा
अपने शिकार को
और वह तोड़ देता है दम
निरीह भेड़ सा बना
मेरे इस शहर में
बसंत नहीं आता ।
अट्टालिकाओं से
निकले कचरे में
फटेहाल बच्चे
बीनते हुये कुछ
शमन करते हैं
अपनी भूख का
और यह दृश्य
निकाल देता है दम
हमारी संवेदनाओं का
बसंत नहीं आता ।
गाँव की गंध छोड़
जो आ बसे शहरों में
दिहाड़ी के चक्र में
घूमती है ज़िंदगी
सपने जो लाया था साथ अपने
निकल जाता है उनका दम
रह जाती है तो
बस एक हताशा
मेरे इस शहर में
बसंत नहीं आता ।
100 comments:
व्यथा व्यक्त करती ....मार्मिक अभिव्यक्ति ....कुछ कह नहीं पा रही हूँ ....बस एक अजीब से मौन ने घेर लिया है ...!!
प्रेरित कर रही है आपकी रचना उन लोगों के लिए कुछ करने की जो वाकई बसंत से दूर हैं ....!!
महानगरीय जीवन की कटुताओं को व्यक्त करती एक सशक्त मार्मिक कविता..वसंत लेकिन फिर भी कहीं न कहीं अपनी उपस्थिति दर्ज करा ही देता है.
फूल खिल भी जाएँ तो क्या है, वह बसंत नहीं होता
वह तो खुली हवा में लहराता है .....
कितने सारे दर्द हैं पतझड़ से
बसंत लौट गया रस्ते से
जिंदगी कि तल्ख़ सच्चाइयों से रु-ब-रु कराती बेहद प्रभावपूर्ण रचना !
शहर कंक्रीट, बसंत अनुपस्थित
जीव-जगत है ये या समय-शापित
आपने जैसे मेरे ही दिल की बात कह दी हो. मैं छोटे हरे-भरे शहरों में पली-बढ़ी हूँ. जबसे दिल्ली आयी हूँ, मौसमों का पता सिर्फ हवाओं के तापमान से चलता है. न चिड़ियों की आवाज़ से, न फूलों से, न पेड़ों से.
और अक्सर ये भी सोचती हूँ कि दिहाड़ी मजदूरों के लिए मौसम का क्या मतलब है? उसे तो रोज़ काम पर निकलना ही होता है. उसे नहीं लगता कि 'मौसम आज कितना अच्छा है, चलो काम से छुट्टी लेकर घूम आयें'
मेरे इस शहर में
बसंत नहीं आता ।
बिल्कुल सच कहा ... आपने
आपकी लेखनम सत्यता झलकती है,महानगरीय जीवन की व्यथा की मार्मिक प्रस्तुति.
सही कहा आपने, इस महानगरीय जिंदगी में कहां से बसंत आयेगा? यहां तो बसंत महसूस करने की नही पढने की चीज हो गई है.
रामराम.
वाकई आपके उस शहर में अब चलने से भी डर लगता है.जाहिर है ऋतुएं भी घबराती ही होंगी.
एकदम सटीक चित्र खींचा है दी! व्यथा ने सार्थक शब्द लिए हैं.
बसंत की यही व्यथा है
कंक्रीट के जंगल फैले
आये बसंत फिर कैसे
आधुनिक जीवन की सच्चाई
बयान करती रचना............
कटु सत्य! बड़े शहरों में प्रकृति व इंसानियत के घुटते हुए दम का मार्मिक दृश्य....
~सादर!!!
उफ़--
मार्मिक
सटीक कथ्य-
झकझोरती रचना -
सच कहा है शहर में कहाँ होता है बसंत का आगमन ?
अब तो सब कुछ शब्दों में सिमट कर रह गया है कई बार बसंत के गीतों पर कविताओं पर टिपण्णी करने में भी शर्म महसूस होती है !आपकी रचनाएँ हमेशा सत्य के आस पास होती है इस नाते यह रचना भी सटीक लगी !
ओह दीदी ... सच में बड़ी शिद्दत से इस पीड़ा को महसूस करता हूँ ...कहाँ से आये बसंत ... पृकृति से कितना दूर हो गए हैं !
बिलकुल सही कहा है आपने शहरों में बसंत कभी नहीं आता, इसका तो सिर्फ पतझर से नाता है...मार्मिक अभिव्यक्ति... आभार
सार्थक और सटीक!
वाकई अब बसंत नहीं आता :(
अट्टालिकाओं से
निकले कचरे में
फटेहाल बच्चे
बीनते हुये कुछ
शमन करते हैं
अपनी भूख का
और यह दृश्य
निकाल देता है दम
हमारी संवेदनाओं का
मेरे इस शहर में
बसंत नहीं आता ।
बिलकुल सच लिखा है आंटी !
सादर
गाँव की गंध छोड़
जो आ बसे शहरों में
दिहाड़ी के चक्र में
घूमती है ज़िंदगी
सपने जो लाया था साथ अपने
निकल जाता है उनका दम
रह जाती है तो
बस एक हताशा
मेरे इस शहर में
बसंत नहीं आता ।
आम आदमी की व्यथा कथा को व्यक्त करती मन को आंदोलित करती रचना अद्भुत भावों का सम्प्रेषण
परिवेश को सजीव करती रचना .वास्तव में बसंत क्यों नहीं आता ... वास्तविक लगा बधाई
वाकई शहर में वसंत नहीं आता ...
बहुत खूब !
शहर की आवोहवा ऐसी है कि सच में शहर में कब वसंत आता पता भी न चलता. बहुत सुन्दर रचना, बधाई.
बसंत का बस अंत हो गया........
आज के परिवेश का मार्मिक रेखांकन..... बसंत तो रूठेगा ही....
Satya se sakshatkaar karati atyant prabhawshaaai rachna.
शहर का वसंत घबराया हुआ है.....सोच रहा है कहीं गाँव से भी आबोदाना न उठ जाए...
बहुत बढ़िया भाव ...
सादर
अनु
संगीता जी,दुखती रग पर हाथ रख दिया आपने.और सबसे अजीब बात यह है कि शहरों से तो निष्कासित है ही ,गाँवों का वसंत भी सिमटा-सकुचा रहता है खुल कर हँस नहीं पाता!
प्रकृति से दूर कृत्रिम माहौल में वसंत आये भी तो कैसे....वर्तमान महानगरीय जीवन का बहुत ही सजीव चित्रण किया है आपने....बधाई !
जबरदस्त.....क्या बात है!!
मार्मिक रचना आपकी उम्दा प्रस्तुती
मेरी नई रचना
प्रेमविरह
एक स्वतंत्र स्त्री बनने मैं इतनी देर क्यूँ
बहुत जोरदारअभिव्यक्ति है. सचमुच बहुत दुःख है.
समाज में व्याप्त वैषम्य को बड़ी सशक्त अभिव्यक्ति दी है संगीता जी ! आज जैसे हालात हैं सचमुच वसंत भी खिलने पर शर्मिन्दा ही होगा ! !
ज़िन्दगी की त्रासदियों से नज़र हटे तो वसंत पर पड़े ...वाकई ...ऐसे में वसंत कैसे आ सकता है ....!
इस विकास में क्या कर बैठे,
अपना सुख स्वाहा कर बैठे।
दर्द को लिखा है उनके जीवन का जहाँ बसंत दस्तक नहीं देता ... महानगरीय जीवन की यंत्रणा भोगता सच .... वास्तविक चित्रण है रचना में सजीव ...
बहुत सुंदर सशक्त सजीव करती लाजबाब अभिव्यक्ति
Recent Post दिन हौले-हौले ढलता है,
यह शहर भी शापित,जीवन भी शापित।
कटु यथार्थ को व्यक्त करती सार्थक अभिव्यक्ति।
बहुत उम्दा प्रस्तुति ...
http://dineshpareek19.blogspot.in/2013/02/blog-post_19.html
वहा वहा क्या बात है क्या लिखा है आपने
मेरी नई रचना
प्रेमविरह
एक स्वतंत्र स्त्री बनने मैं इतनी देर क्यूँ
हमारी संवेदनाओं का
मेरे इस शहर में
बसंत नहीं आता ।
यथार्थपरक रचना....
कटु यथार्थ......... शहर की आवोहवा में
बसंत आये भी तो कैसे..........
badi dukhad paristhti hai......sachchayee ko liye hue.....
अव्यक्त व्यथा जो बसंत
ने अभिव्यक्त कर दी है
यथार्थ को बयां करती हुई बसंती रचना ने हमें आइना दिखा दिया क्योंकि हम भी तो उसके शिकार है।
सच शहर में बसंत कहने भर को रह गया है ..... जब मन में ख़ुशी हो उमंग तरंग हो तभी तक बसंत है।।
बहुत बढ़िया सार्थक चिंतन से भरी यथार्थ रचना ...आभार
महानगरीय विकास का सजीव चित्रण है यह कविता.
शहरी जीवन का मार्मिक चित्रण ...आपका लेखन सदैव प्रेरणा देता है ..
कंक्रीट का जंगल हो गया है शहर यह, यहां बसंत क्या खाक आयेगा?
बसंत तो ख़ुशी का पर्याय है
पर आज के दौड़ में इस ख़ुशी को ग्रहण लगा है
बहुत ही अच्छा लगा पढ़कर
सादर !
bikhare motiyo ko chunkar ikattha kiya , bahut sundar.
साझी भावाभिव्यक्ति पर वसंत आयेगा हमें कोशिश जारी रखना चाहिये । हम यदि कूडा करकट सार्वजनिक स्थलों में,घर से बाहर कहीं भी ना फेकें । तो कूडा बीनने का काम ना रहेगा ।
एकदम सटीक ..
सटीक रचनायें..
संवेदनाओं को तार-तार करता हुआ बसंत..अत्यंत प्रभावी रचना..
मेरे इस शहर में कहर आता है ,स्वप्न देखे कोई .देखता आये कोई .अस्मत लुटाये ,जान से जाए कोई ,....शहर में न आये अब कोई ....मार्मिक प्रसंग छेड़ ती रचना ,शहर कितना निस्संग है संगदिल है फिर भी पलायन ज़ारी है शहर की ओर ....
gehan abhivyakti.
शहरी जीवन के अनिश्चय और बे -दिली ,लेदे के खुद से ज़िंदा रहने की शर्त पूरी करवाता जीवन .बढ़िया चित्रण और बिम्ब हैं रचना में .
shahar ka yathaarth chitran man ko gaanv ki or le jata hai
Umda abhivyakti!
shahar ka yathaarth chitran man ko gaanv ki or le jata hai
Umda abhivyakti!
वाकई शहर में वसंत नहीं आता ...
बहुत खूब !
सामाजिक सरोकार से विषय .....आधुनिक शहरी जीवन की त्रासदी .....दम तोडती संवेदनाएं ....वाह भी कहूँ तो कैसे !
मैं अपने ब्लॉग का पता छोड़ रही हूँ ....समय निकाल कर अवश्य देखें .....मुझे join करेगीं तो बेहद ख़ुशी होगी
मेरी यह रचना शायद आपको पसंद आये ...
क्या होता है सच
bahut marmik rachna ...utni hi sundar prastuti ...mere blog par bhi aapka swagat hai .. aapke aashirvaad se bahut kuch seekhne ko milega
ek najar idhar bhi :-) Os ki boond: खट्टे सवाल मीठे जवाब ....
महानगरीय जीवन के दर्द को दर्शाती बहुत अच्छी कविता...पर बसंत का अंत तो अब न केवल शहर बल्कि गाँव में भी हो चला है..अब सब कुछ बदल गया है दीदी...गाँव में भी शहर प्रवेश कर चुका है...
कितने सारे दर्द हैं पतझड़ से
बसंत लौट गया हर जगह से रस्ते से....
शहर की वास्तविकता का सुन्दर चित्रण
मेरा ब्लॉग अपनाने के लिए बहुत-बहुत शुक्रिया .....
कृपया मेरी अगली रचना पर भी एक नजर डालें
http://shikhagupta83.blogspot.in/2013/03/blog-post.html#comment-form
बहुत भावपूर्ण!!
बहुत सुंदर
महाशिवरात्रि की शुभकामनाएँ.
सुंदर अभिव्यक्ति....
बहुत व्यथा समेट ली है संगीता जी ।
बेहतरीन पोस्ट .....
बहुत सुंदर, मार्मिक प्रस्तुति वाह! देर से पढने के लिए क्षमा होली की अग्रिम बधाईयां
बसंत आता है तो पर इन सब विडम्बनाओं को देखकर दुखी होकर लौट जाता है....
marmik abhiwayakti sangeeta ee ....
बहुत मार्मिक प्रस्तुति
छनती हुई
विषैली हवा
घोट देती है दम
हर शख्स का ।
मेरे इस शहर में
बसंत नहीं आता ..
bahut sundar .....holi pr hardik badhai bhi sweekaren .
What to do? We need to bring CHANGE now. 2014 should be the year of Change.
सपने जो लाया था साथ अपने
निकल जाता है उनका दम
रह जाती है तो
बस एक हताशा
मेरे इस शहर में
बसंत नहीं आता ।
bahut sunder aur marmik prantu sach
rachana
महानगरों का दर्द चित्रित करती बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति..
Awesome post ...thanks for sharing ..kudos !!!!
do visit :
http://swapnilsaundarya.blogspot.in/2013/03/a-cup-of-tea-with-divya.html
हूँ ...........देखना पड़ेगा आपका शहर ....:))
गैर साहित्यिक हूँ...दिल से निकल रहा है कि... विषय के अंतस्थल में उतर कर उसके नि:शेष सत्य को निचोड़ डालने वाला अप्रियतम शब्द-लाघव..हृदयस्पर्शी व्यंजना...
बढ़िया चित्रण हैं रचना में
शहर में तो बस पतझड़ और मलमास बसा है। बसंत कहां। बहुत सुन्दरता से आपने हकीकत को बेनकाब किया है। आपका बधाई।
आपका मार्गदर्शन चाहूंगा अपनी इस रचना पर
http://voice-brijesh.blogspot.in/2013/04/blog-post.html
स्थिति ऐसी हो गयी है कि अब वास्तव में किसी शहर में वसंत नहीं आता। बेहतरीन अभिव्यक्ति।
सादर
मधुरेश
http://surendra-bansal.blogspot.in/
sheeshe ke khawaablye aate h sheher mein par hakikat ka ek pathhar kabhi in khawabon ko yun hi tod jata hai....
बेहतरीन अभिव्यक्ति।
बहुत ईमानदार अभिव्यक्ति है ,शहरों में कहीं नहीं दिखाई देता वसंत,सर्वत्र एक-सा रूखापन छाया रहता है-न रंग न रूप ,न गंध,न माधुर्य कैसे समझे कि वसंत आ गया!
सचमुच आपके यथार्थ उदगार पढ़ के मन अवसाद में घिर गया,सच कहूं तो सच सभी देखते हैं पता है पर फिर भी आंखें चुराते हैं, बचना चाहते हैं पर जब कोई रचनाकार ऐसे दृश्य प्रस्तुत करता है उस यथार्थ की पीड़ा फिर कराहती जरूर है।
यथार्थ दर्शन करवाता बहुत प्रभावशाली सृजन।
तस्वीरें बिल्कुल कथानक को प्रगाढ़ करती ।
सादर साधुवाद।
क्या कहूँ? हृदय से निकलती आह की बस यही पुकार है कि पूरी धरा पर हर एक के लिए बसंत आये।
वैसे दी गई प्रतिक्रियाओं को पढ़ते हुए फिर से उन सभी सहचरो को आपके बहाने याद करना अच्छा लगा। जिनमें से कुछ रूठ गये और कुछ छूट गये। क्या दिन थे ... ब्लॉगिंग का कैसा जूनुन था सब पर... जीवन्त स्मृतियाँ है।
शहरों में नहीं आता बसंत।
बहुत ही सटीक...
अट्टालिकाओं से
निकले कचरे में
फटेहाल बच्चे
बीनते हुये कुछ
शमन करते हैं
अपनी भूख का
और यह दृश्य
निकाल देता है दम
हमारी संवेदनाओं का
मेरे इस शहर में
बसंत नहीं आता ।
वाह!!!
सटीक तस्वीरों के साथ शहरों का सच बयां करता
लाजवाब सृजन
परिस्थितिजन्य दुरूहताओं को झेलने वालों के शुष्क जीवन में वसंत निर्विकार रूप से आकर चला जाता है यह तो सच है किंतु वसंत का आना भी सत्य है।
अत्यंत भावपूर्ण मार्मिक सृजन दी।
सूरज,चाँद, हवा बादल,बरखा,फूल, खुशबू सामान्य मनुष्य को सब महसूस होता है प्रकृति भावों को महसूसना यथार्थ की पीड़ा पर शीतल मलहम की तरह ही जब भी मनुष्य इसे महसूस कर पाये उसके जीवन का वह क्षण बसंत की तरह ही लगता है।
प्रिय दीदी, आपकी ये रचना भीतर तक हिला गई। एक उदासी-सी व्याप्त हो गई। सच में कथित सम्भ्रांत वर्ग देख सकता है बसंत और जीता है बसन्त। पर जिसके जीवन का पतझड़ अनंत हो वह कैसे बसंत की अनुभूति ले। बसंत है भीतर के उल्लास के नाम का। असुरक्षा और जीवन की विभिन्न परेशानियां ये सब कहां महासूसने
प्रिय दीदी, आपकी ये रचना भीतर तक झझकोर गई। एक उदासी-सी व्याप्त हो गई। सच में कथित सम्भ्रांत वर्ग देख सकता है बसंत और जीता है बसन्त। पर जिसके जीवन का पतझड़ अनंत हो वह कैसे बसंत की अनुभूति ले। बसंत है भीतर के उल्लास के नाम का। असुरक्षा और जीवन की विभिन्न परेशानियां ये सब कहां महसूसने देती है। अत्यंत प्रभावी और संवदेनशील रचना के लिए साधुवाद और बधाई आपको 🙏🙏🌷🌷💐💐 और इतनी सुंदर और भावपूर्ण टिप्पणियों ने मन मोह लिया।
बहुत संजीदा और भावपूर्ण रचना
आदरणीय प्रतिभाजी, कुसुम जी , सुधाजी , प्रिय श्वेता , अमृता जी , प्रिय रेणु और भारती जी
आप सब यहाँ पहुंचे और मेरे मन के भावों को महसूस किया इससे बड़ी उपलब्धि मेरे लिए और कुछ नहीं । हृदयतल से आभार ।
Post a Comment