वृद्धाश्रम
>> Monday, December 28, 2009
दर्जनों बूढी आँखें
थक गयी हैं
पथ निहारते हुए
कि शायद
उस बड़े फाटक से
बजरी पर चलता हुआ
कोई अन्दर आए
और हाथ पकड़
चुपचाप खड़ा हो जाये
कान विह्वल हैं
सुनने को किसी
अपने की पदचाप
चाहत है बस इतनी सी
कि आ कर कोई कहे
हमें आपकी ज़रुरत है
और हम हैं आपके साथ
पर अब
उम्मीदें भी पथरा गयी हैं
अंतस कि आह भी
सर्द हो गयी है
निराशा ने कर लिया है
मन में बसेरा
अब नहीं छंटेगा
अमावस का अँधेरा
ये मंज़र है उस जगह का
जहाँ बहुत से बूढ़े लोग
पथरायी सी नज़र से
आस लगाये जीते हैं
जिसे हम जैसे लोग
बड़े सलीके से
वृद्धाश्रम कहते हैं........