कृत्रिमता
>> Saturday, October 10, 2009
ज़िन्दगी है
कृत्रिम सी
और
कृत्रिम से ही
रिश्ते हैं
जानते हैं लोग
एक दूसरे को
पर
पहचानते नहीं हैं ।
इस जानने और
पहचानने के
बीच की दूरी ही
पैदा कर देती है
कृत्रिमता ।
पुराने रिश्तों में
खड़ी हो जाती है
दीवार
जब होता है शुरू
सिलसिला
पहचानने का ।
नए रिश्ते बन नहीं पाते
पुरानों के खँडहर पर
और हम
कृत्रिमता को ओढे हुए
बेमानी सी ज़िन्दगी
ढोते रहते हैं उम्र भर ।
9 comments:
aap ki kavita "kritrimta" bahut hi bhavpoorn hai ye chhoti si kavita bahut bada sandesh deti hai.
इस तरह बनावटी की- असल की शक्ल भी धुंधली हो गई......खुद पर भी कभी-कभी भरोसा नहीं होता...बहुत बढिया
SACH LIKHA HAI AAJ RISHTON MEIN BANAAVTIPAN AATA JA RAHA HAI .... BEMAANI RISHTE HAI JO INSAAN UMR BHAR DHOTA RAHTA HAI ...
नए रिश्ते बन नहीं पाते..पुरानो के खंडहर पर और हम ...
संगीता जी ये पंक्तिया मुझे इस रचना की बहुत अच्छी लगी...दिल चाहता है की आप कभी खंडहर शब्द पर भी कुछ लिखे..क्युकी में जानती हु की आप ऐसे शब्दों पर कलम की धार कुछ तेज़ कर के चला सकती है..इंतजार रहेगा..रचना के लिए बधाई
नए रिश्ते बन नहीं पाते..पुरानो के खंडहर पर और हम ...
संगीता जी ये पंक्तिया मुझे इस रचना की बहुत अच्छी लगी...दिल चाहता है की आप कभी खंडहर शब्द पर भी कुछ लिखे..क्युकी में जानती हु की आप ऐसे शब्दों पर कलम की धार कुछ तेज़ कर के चला सकती है..इंतजार रहेगा..रचना के लिए बधाई
कृत्रिमता को ओढे हुए
बेमानी सी ज़िन्दगी
धोते रहते हैं उम्र भर.
सारांश बहुत ही सटीक है
बधाई .
चन्द्र मोहन गुप्त
जयपुर
www.cmgupta.blogspot.com
jab shuru hota hai silsila pahchaanne ka.......... wah!
bahut achchi kavita.........
badhai.
log jante hai ik doosre ko pahchante nahi....na kar dete hai pahchanne se.....na jane kyun?naye rishte bnanne se sahm jate hai hum...
सच कहा आपने, जिंदगी में आजकल बहुत कृत्रिमता आ गयी है।
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