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दस्तूर

>> Friday, December 4, 2009


आंधियों ने कर दिया है


बर्बाद गुलिस्ताँ को


और धुंध चारो ओर


छा गयी हैं


किसी को भी


हाथों - हाथ


कुछ सूझता है


धूल उड़ कर


आँखों में आ गयी है


बंद हो गयीं हैं


सभी की आँखें


कुछ भी अब


दृष्टि गोचर नहीं है


कौन किसको क्या


दिखाना चाहता है


खुद की आँखें भी तो


खुली नहीं हैं ।


हर चेहरे पर हैं


बहुत से मुखौटे


एक उतारो तो


दूसरा टंग जाता है


किसके और कितने


उतारोगे मुखौटे


हर बार नया चेहरा


सामने आ जाता है॥


रखते हैं सब जेब में


एक - एक आइना


पर खुद को आइने में


कभी कोई देखता नहीं


दुनिया का है


शायद यही दस्तूर


कि खुद को कोई


पहचानता नहीं .

14 comments:

अजय कुमार 12/04/2009 11:04 AM  

सही लिखा आपने , खुद को कोई कभी आइने में नही देखता

निर्मला कपिला 12/04/2009 1:58 PM  

sac hai aaj har aadamee kitane kitane mukhaute lagaaye firta hai bahut sundar geet hai shubhakaamanaaye

रश्मि प्रभा... 12/04/2009 2:21 PM  

मुखौटे लेकर चलते हैं सब....पहचान मुश्किल है

shikha varshney 12/04/2009 3:19 PM  

क्या बात है दी! कमाल की pic लगाई है ,एकदम suit करती है विषय को.और हाँ कविता भी अच्छी है :) बहुत मुश्किल है पहचानना लोगों को.

दिगम्बर नासवा 12/04/2009 3:46 PM  

मुखोटों की भीड़ में कभी कभी इंसान अपना चेहरा भी नही पहचान पाता ..........
आपने बहुत ही प्रभावी तरीके से रक्खी है आपनी बात ...... अच्छी रचना .........

M VERMA 12/04/2009 4:24 PM  

दुनिया के लोग यदि खुद को पहचान ले तो फिर शिकायत किस बात की.
बहुत प्रभावी है आपकी रचना

डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali) 12/04/2009 4:41 PM  

बेहतरीन शब्दों बड़ों के साथ बहुत बेहतरीन कविता........

वाणी गीत 12/05/2009 8:05 AM  

गोया मुखौटे ना हुए ...प्याज के छिलके हों ....
अच्छी कविता ...!!

Nipun Pandey 12/06/2009 6:29 PM  

वाह !!
मुखोटा ही तो है की बस अगर हट जाये दुनिया से तो गुलशन ना बन जाये !!

इन्सां यहाँ क्यों
ख़ुद ही को भूला
वो ख़ुद भी ये जाने
सारे पहने मुखौटा

हैं जानते सब
सबका असल क्या
फ़िर क्यों न जाने
सब लगाते मुखौटा

http://www.nipunpandey.com/2008/10/blog-post_09.html

पूनम श्रीवास्तव 12/08/2009 11:03 AM  

एक कड़वी सच्चाई की ओर इंगित करती रचना।
पूनम

Apanatva 12/08/2009 3:04 PM  

sach ko aaina dikhatee hai ye rachana .shat pratishat aaj ka saty yahee hai .
bahut bahut badhai .

अनामिका की सदायें ...... 12/09/2009 12:18 AM  

samaj me insaasn ko jitne rishte nibhane hote hai utne mukhote bhi lagane pad jate hai..lekin ati to tab hoti hai jab insaan khud ke jameer ko hi dokha deta hua mukhoto ki aadh leta hai...bahut shochniye sthiti hai ye..kash har insaan khud se imandari se paish aaye to bahut si samasyao ka samadhaan ho jaye.
bahut sateek rachna.
badhayi.

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