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हश्र ......

>> Tuesday, May 6, 2014




ज़र्द पत्तों की तरह 
सारी ख्वाहिशें झर गयी हैं 
नव पल्लव के लिए 
दरख़्त बूढ़ा हो गया है 
टहनियां भी अब 
लगी हैं चरमराने 
मंद समीर भी 
तेज़ झोंका हो गया है 
कभी मिलती थी 
छाया इस शज़र से 
आज ये अपने से 
पत्र विहीन हो गया है 
अब कोई पथिक भी 
नहीं चाहता आसरा 
अब ये वृक्ष खुद में 
ग़मगीन  हो गया है 
ये कहानी कोई 
मेरी तेरी नहीं है 
उम्र के इस पड़ाव पर 
हर एक का यही 
हश्र हो गया है ।



41 comments:

रश्मि प्रभा... 5/06/2014 7:27 PM  

जो गुमाँ था अपने होने का
वह खड़खड़ाने लगा है - जब गिरे

रेखा श्रीवास्तव 5/06/2014 7:31 PM  

संगीता जी बाद आपकी पोस्ट नजर आई तो बहुत ख़ुशी हुई।
हर जिंदगी का भी यही हश्र है , तभी तो काल रुकता कहाँ है ? सबको पीछे छोड़ कर आगे बढ़ जाता है।

Amrita Tanmay 5/06/2014 7:41 PM  

जिसको ख़ुशी से स्वीकार करना ही चाहिए.. तब वर्तुल पूरा होगा..

Sadhana Vaid 5/06/2014 9:55 PM  

हर पतझड़ के बाद वसंत आता है और वृक्ष की हर पत्रविहीन शाख और टहनी नव किसलय एवं कोमल अंकुरों से पुष्पित पल्लवित हो जाती है ! यही प्रकृति का नियम है ! इसलिये निराशा का यह आलम भी दीर्घजीवी नहीं होना चाहिये ! इतने खूबसूरत रूपक को रचने के लिये आपको बहुत-बहुत बधाई सगीता जी !

प्रतिभा सक्सेना 5/06/2014 10:09 PM  

यह बात सही है कि समापन-सत्र शुरू हो जाने पर बाद जीवन का क्रम बदल जाता है,लेकिन प्रकृति में बेकार कुछ भी नहीं.
बीच-बीच में आप कहाँ ग़ायब हो जाती है -आप की जरूरत तो अब हमें है .

वाणी गीत 5/06/2014 10:28 PM  

हर एक को गुजरना है इस स्थिति से !
कभी पढ़ा था यह शे'र कहीं ---
गिरती हुई दीवारों तुमको हम थाम लेंगे ,
बेबस हुए कभी तो तुम्हारा ही सहारा लेंगे !

Neeraj Neer 5/06/2014 10:30 PM  

बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति ...

shikha varshney 5/06/2014 10:35 PM  

ज़रा नजरें घुमा कर देखिये तो पता चलेगा कि इस वृक्ष की जरुरत अब कहाँ है. पर आप है कि देखती ही नहीं :).
वैसे कविता का जबाब नहीं और आपका भी.

ओंकारनाथ मिश्र 5/07/2014 6:39 AM  

समय का एक ऐसा सत्य जो सब पर सामनता से लागू होता है. सुन्दर कृति.

ओंकारनाथ मिश्र 5/07/2014 6:39 AM  

समय का एक ऐसा सत्य जो सब पर सामनता से लागू होता है. सुन्दर कृति.

Digvijay Agrawal 5/07/2014 6:42 AM  

शुभ प्रभात
बेहतरीन रचना
सादर..

डॉ. मोनिका शर्मा 5/07/2014 8:22 AM  

बहुत सुन्दर पंक्तियाँ हैं...

Anita 5/07/2014 10:42 AM  

कविता बहुत प्रभावशाली है लेकिन जीवन को देखने का एक और नजरिया भी है..फल जब पक जाता है तो उसकी मिठास बढ़ जाती है..खुशबू आती है..व्यक्ति जब वृद्ध हो जाता है तो परिपक्वता व गरिमा से भर जाता है..और चुपचाप पके फल की तरह बिना किसी दर्द के झर जाता है..एक नया बीज बनकर नये कलेवर में आने के लिए..

vandana gupta 5/07/2014 1:03 PM  

हकीकत बयाँ करती लाजवाब प्रस्तुति हमेशा की तरह धारदार और मारक

रश्मि प्रभा... 5/07/2014 1:16 PM  

http://bulletinofblog.blogspot.in/2014/05/blog-post_7.html

दिगम्बर नासवा 5/07/2014 1:49 PM  

ये माना जीवन की कहीकत है ये ... पर इसी को समय की गति भी कहते हैं ... फिर इस अवस्था में भी तो सार्थक कार्य होते हैं ... होंसला बनाए रखना चाहिए ... प्राकृति को सहज लेना ही जीवन है ...
प्रभावी रचना .. सोचने को मजबूर करती हुयी ...

Mithilesh dubey 5/07/2014 2:44 PM  

वाह-वाह क्या बात है। बहुत ही उम्दा रचना।

ताऊ रामपुरिया 5/07/2014 4:54 PM  

बहुत ही सशक्त और प्रभावशाली रचना, शुभकामनाएं.

रामराम.

Maheshwari kaneri 5/07/2014 6:09 PM  

संगीता जी बहुत दिनो बाद आपकी पोस्ट पढ़्ने को मिली बहुत अच्छा लगा..भाव पूर्ण

Dr. sandhya tiwari 5/08/2014 10:45 PM  

किसने कहा अब वो उम्र के अंतिम पड़ाव में किसी काम का नहीं रहा .......उसके पास अनुभव की थाती है और जो समझदार मुसाफिर हैं वे उससे लाभ उठा ही लेते हैं ........

Suman 5/09/2014 10:50 AM  

शरीर की मज़बूरी है देर सवेर हर कोइ बूढ़ा हो ही जाता है !
पेड़ के गिरते जर्द पत्तों को क़भी ध्यान से देखिये हवा के साथ नृत्य करते हुये झर रहे है यह एक़ परिपक्वता की ओर इशारा है !

Anju (Anu) Chaudhary 5/09/2014 10:27 PM  

जीवन का सार्थक संदेश देती कविता

Unknown 5/10/2014 1:35 AM  

आपकी इस उत्कृष्ट अभिव्यक्ति की चर्चा कल रविवार (11-05-2014) को ''ये प्यार सा रिश्ता'' (चर्चा मंच 1609) पर भी होगी
--
आप ज़रूर इस ब्लॉग पे नज़र डालें
सादर

Onkar 5/11/2014 2:04 PM  

सटीक रचना

Asha Joglekar 5/11/2014 7:48 PM  

बहुत ही सुंदर भावपूर्ण रचना। जिंदगी का यह एक कडवा सच है। नये पौधों को भी तो जगह चाहिये।

मेरा मन पंछी सा 5/11/2014 8:58 PM  

कटु सत्य जीवन में एक समय ऐसा भी आता है...
भावपूर्ण रचना....

कालीपद "प्रसाद" 5/11/2014 9:05 PM  

जीवन का कटु सत्य को उभारती सुन्दर अभिव्यक्ति !
बेटी बन गई बहू

Akhil 5/12/2014 1:43 PM  

"नव पल्लव के लिए
दरख़्त बूढ़ा हो गया है "

वाह। आपकी रचनाये सृजन के लिए प्रेरित करती रहीं हैं. बहुत सुन्दर और सार्थक रचना. मैंने भी अपनी एक नयी ग़ज़ल में इसी पीड़ा को गाने का प्रयास किया है आपके स्नेह और आशीर्वाद की अपेक्षा है.

आभार

shephali 5/12/2014 5:17 PM  

और इसी पड़ाव तक पहुँचने के लिये ये सारा सफ़र है

बहुत सुन्दर रचना

कौशल लाल 5/13/2014 7:20 AM  

बहुत ही सुन्दर....

कविता रावत 5/14/2014 5:42 PM  

खामखाह का गुमाँ रहता है इन्सान को सभी को एक ही राह पर चलना होता है आखिरी में

सदा 5/15/2014 4:54 PM  

उम्र के इस पड़ाव पर
हर एक का यही
हश्र हो गया है ।
और आप सबकी फि़क्र में इतनी गहराई में उतर कर नि:शब्‍द कर देती हैं ....

डॉ. जेन्नी शबनम 5/19/2014 6:08 PM  

एक न एक दिन सबका यही हश्र होना है. भावपूर्ण रचना, बधाई.

Satish Saxena 5/20/2014 8:08 AM  

ओह ,
मंगलकामनाएं आपको !!

Vandana Sharma 5/24/2014 11:47 AM  

Autumn's beauty and curse..............

abhi 5/30/2014 10:48 AM  

सच !! एकदम सच बात !
सुन्दर कविता !

Unknown 5/31/2014 10:31 PM  

आपकी इस उत्कृष्ट अभिव्यक्ति की चर्चा कल रविवार (01-06-2014) को ''प्रखर और मुखर अभिव्यक्ति'' (चर्चा मंच 1630) पर भी होगी
--
आप ज़रूर इस ब्लॉग पे नज़र डालें
सादर

Neeraj Neer 6/01/2014 11:31 AM  

यह तो प्रकृति का सत्य है .. यह नियत ही है.. सुन्दर अभिव्यक्ति आपकी ..

Rachana 6/05/2014 9:51 PM  

ये कहानी कोई
मेरी तेरी नहीं है
उम्र के इस पड़ाव पर
हर एक का यही
हश्र हो गया है ।
sahi kaha aapne aesahi hota hai jeevan ke bhavon ko bahut khubi se shabdon me piroya hai
badhai

kuldeep thakur 10/27/2015 7:40 AM  

आप की रचना कविता-मंच
पर प्रकाशित की गयी...

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