होड़.......
>> Thursday, September 13, 2012
पैसे की चमक ने
चौंधिया दी हैं
सबकी आँखें
और हो गए हैं
लोंग अंधे
अंधे - आँख से नहीं
दिमाग से
पैसे की अथाह चाह ही
राहें खोलती है
भ्रष्टाचार की
काले बाज़ार की
अपराध की
पर क्या
एक पल भी उनका
बीतता है सुकूं से
जो पैसे को
भगवान बनाये बैठे हैं ?
जितना कमाते हैं
उससे ज्यादा पाने की
लालसा में
भूल गए हैं
परिवार के प्रति दायित्व
इसी लिए नहीं रहा
संस्कारों में स्थायित्व
दौड रहे हैं सब
एक ही दिशा में बस
राहें कोई भी हों
कैसी भी हों
मंजिल तक पहुंचना चाहिए
किसी भी रास्ते बस
पैसा आना चाहिए
हो रहें हैं
खत्म सारे रिश्ते
भावनाएं मर चुकी हैं
दिखावे की होड़ में
संवेदनाएं ढह चुकी हैं
भूल चुके हैं हम
नीतिपरक कथ्यों को
जो मन के द्वार खोलता है
आज बस सबके सिर
पैसा चढ कर बोलता है
जानते हैं सब कि
नश्वर है यह जहाँ
जाते हुए सब कुछ
रह जाएगा यहाँ
फिर भी बाँध कर
पट्टी अपनी आँखों पर
भाग रहे हैं
बस भाग रहे हैं
सो रहे हैं मन से
पर कहते हैं कि
हम जाग रह हैं
जब नींद खुलेगी तब
मन बहुत पछतायेगा
व्यर्थ हुआ सारा जीवन
हाथ नहीं कुछ आएगा ...
57 comments:
बेहतरीन अभिव्यक्ति .......शायद हम कहीं कुछ खो रहे हैं
आपकी यह बेहतरीन रचना शनिवार 15/09/2012 को http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जाएगी. कृपया अवलोकन करे एवं आपके सुझावों को अंकित करें, लिंक में आपका स्वागत है . धन्यवाद!
केन्द्र में सदा ही सुख रहे, न कि पैसा।
आदरणीय संगीता स्वरुप जी
नमस्कार !
बेहतरीन अभिव्यक्ति
आपकी चर्चा आज मेरे ब्लॉग पर भी है
@ संजय भास्कर
http://sanjaybhaskar.blogspot.in
बस ये सूत्र सब याद कर ले तो जीवन धन्य हो जाए और परमात्मा भी मुस्काये.
सही बात है पैसे की लालसा में संस्कार कहीं खो से गए हैं...सुन्दर अभिव्यक्ति
पैसे की लालासा को बहुत ही बेहतरीन तरीके से समझाया है आपकी कविता ने। बहुत सुंदर।
बेहद भाव पूर्ण अभिव्यक्ति ..भौतिक सुखों के पीछे की भागदौड आत्मिक एवं वास्तविक सुखों से कितना दूर ले आई है हमे.....सादर अभिनन्दन
जब नींद खुलेगी तब
मन बहुत पछतायेगा
व्यर्थ हुआ सारा जीवन
हाथ नहीं कुछ आएगा ..
सौ टके की एक बात कह दी आपने संगीता जी ! बहुत सुन्दर प्रस्तुति ! सोये हुए को जगाना आसान है लेकिन कोई तो ऐसा उपाय बता दे जो जागे हुए को जगा दे ! बहुत ही सुन्दर !
सूक्ष्म,गहरी,दुखद विवेचना - पैसे की दौड़ में सब खून के प्यासे हो गए,रिश्ते दूर हो गए,अहंकार की भावना आ गई,गलत-सही का फर्क मिट गया
yun hi khud ko behlate hain tamam umr
paise ke peechhe bhagte bhage kho jate hain tamaam umr.
yeh hamare samaaj ki vidambana hai !
गहन भाव लिए उत्कृष्ट अभिव्यक्ति ...आभार
बहुत सही कहा संगीता जी.. भाव पूर्ण अभिव्यक्ति ..
बस भाग रहे हैं
सो रहे हैं मन से
पर कहते हैं कि
हम जाग रह हैं
जब नींद खुलेगी तब
मन बहुत पछतायेगा
व्यर्थ हुआ सारा जीवन
हाथ नहीं कुछ आएगा ...
जीवन का यथार्थ बताती सशक्त अभिव्यक्ति।
हाल तो यही है आजकल दुनिया का ! हैरानी यह भी है कि हकीकत सब जानते हैं , मगर फिर भी दौड़े जा रहे हैं !
गहन अभिव्यक्ति !
सच कहा है ... सब अंधी डोड में हैं ... भोगवादी संस्कृति हावी होती जा रही है ...
पैसा ही रह गया है सब कुछ हो के ...
पैसे की लालसा में,भूल गये दायित्व
बिसरे हम रिश्ते नाते,खत्म हुआ अस्तित्व,,,,
बहुत बेहतरीन रचना,,,
RECENT POST -मेरे सपनो का भारत
पैसों के पीछे भागने वालों का अंत कभी सुखद नहीं होता।
पैसे की लालसा वो दलदल है जिसमें कोई घुसा तो निकल नहीं पाता.जिन खुशियों के लिए वो पैसा चाहता है इसके चक्कर में वही उससे दूर हो जाती हैं.पर कहाँ कोई समझ पाता है यह.
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति.
जो मिलता है पैसे से वह बहुत थोडा है जो खो जाता है वह बहुत अनमोल है, अगर कोई सोचे तो...
यही तो बात है आंटी आज कल पैसे के आगे लोग हर चीज़ को बिकाऊ समझते हैं।
सादर
पैसे को भगवान माने बैठे है . काश हम समझ पाते. बहुत सुन्दर .
--
बहुत उपयोगी बाते कहीं आपने इस कविता के माध्यम से ! मगर क्या आज का इंसान यह सब सुनने और उसपर मनन करने को तैयार है ? आज यक्ष प्रश्न यही है ! बस यही सोचा करता हूँ 'विनाशकाले धनप्रीत बुद्धि ' ! हम लोग इस सत्य को भुला बैठे है कि Money is most thing but not everything !
आते है सब, मुट्ठी है बंद
जाते है सब लेकर द्वन्द
पैसा कही न पड़े दिखाई
क्यों पैसे ने रार मचाई ..
प्रश्न है बस उत्तर किसके पास है .. पता नहीं
आपकी प्रस्तुति अच्छी है बधाई
पैसा काफी कुछ हो सकता है लेकिन सब कुछ नहीं हो सकता. मानवमूल्यों के संस्कारों का विकल्प तो बिल्कुल नहीं. सशक्त कविता.
पैसे की भूख अगर इतनी अधिक न बढ़ गयी होती तो शायद समाज रोज बा रोज होते जा रहे विकृत रूप को हम न देख रहे होते. अकेला घर सुरक्षित नहीं, अकेले बुजुर्ग सुरक्षित नहीं. बेटा माँ बाप को पैसे के लिए नहीं बख्श रहा है , भाई भाई के खून का प्यासा है. राजनीति में तो जिसको जितना जहाँ से मिल जाये अपने कब्जे में कर लेना की प्रवृत्ति बन चुकी है. लेकिन फिर इस पैसे से सुकून भी तो नहीं मिल पाता है.
एक छोटी सी घटना यथार्थ इस समय उल्लेखनीय है. मेरे एक घनिष्ठ इंटर कॉलेज के टीचर थे कि अचानक उन्हें एक हाऊसिंग सोसाइटी का सचिव बनने का मौका मिला. अंधे सौदे , एक प्लाट दो दो लोगों को बेचे और करोड़ों रुपये बना लिए. उनके साथ दो बन्दूकधारी चलते थे. अपने बड़े से मकान में तीन बेटों के साथ रहते थे. उनको MBA , CA , B .Tech करवाया लेकिन बेटों ने नौकरी के बारे न सोचा. बेटों ने सोचा कि करोड़ों बाप के पास है फिर नौकरी का क्या करना? ऐश करने लगे. कमाई अंधी थी ही, पिता के नाम पर सौदे करने लगे और पैसे पिता की तरह से ही बनाने लगे.
अचानक पिता को ब्रेन हैमरेज हुआ और वे अस्पताल में. लड़कों ने पानी की तरह पैसा बहाया क्योंकि कमाई तो उन्हीं की थी और ठीक हो गए तो करोड़ों कमाने की मशीन तो कहीं गयी नहीं. कई पंडितों से महा मृत्युंजय का जप , पूजा और न जाने क्या क्या? वे घर तो आ गए लेकिन चलने फिरने काबिल न हुए. फिर बेटों ने सारे अकाउंट और लॉकर खाली कर दिए. एक दिन अपने परिचितों को बुलाया कि कुछ निर्णय कर दिया जाय. यही बात बोले कि मेरे पास जहर खाने को पैसे नहीं है , इन लोगों ने मेरा सब कुछ हड़प लिया. अब तो ये बाकी है हाथ में कटोरा लेकर सड़क पर बैठ जाऊं.
बाहर वाले या घर वाले जिन्हें कभी कुछ समझा नहीं , जमीन पर पैर नहीं रखे तो सब नीचे उतर कर यही कहते चले गए जैसे कमाया था वैसे ही चला गया . अब क्या रोना? बेटों ने भी वही किया जो होना चाहिए था.
सो रहे हैं मन से
पर कहते हैं कि
हम जाग रह हैं......yahi haal hai,yahi sachchayee hai.
फिर भी बाँध कर
पट्टी अपनी आँखों पर
भाग रहे हैं
बस भाग रहे हैं
सो रहे हैं मन से
पर कहते हैं कि
हम जाग रह हैं
जब नींद खुलेगी तब
मन बहुत पछतायेगा
व्यर्थ हुआ सारा जीवन
हाथ नहीं कुछ आएगा ...
सत्य को उजागर करती पोस्ट बधाई .
आज का यथार्थ प्रस्तुत करती सार्थक कविता |
पैसे की चमक ने
चौंधिया दी हैं
सबकी आँखें
और हो गए हैं
लोंग अंधे
सच कहा है पैसा उपयोगी तो है पर पैसे का लोभ मनुष्य को अंधा कर देता है ..सार्थक रचना ...
sahi kaha aapne. paise ke piche sari duniya pagal hoti ja rahai hai. sunder bhavabhivyakti...
यही हो रहा है आज-बाप बड़ा ना भैया,
बस सब से बड़ा रुपैया !
दीदी,
बहुत पहले मैंने भी एक शेर कहा था कि
.
जाम कर रक्खा है सिक्कों ने दिमाग,
फूटता कविता का अब सोता नहीं!
.
बस ऐसे ही हैं हालात.. हाथ का मैल आज चहरे पे मल चुके हैं लोग!!
अर्थपूर्ण रचना ....सच है धन कामनाए की लालसा में खो गया है समाज और परिवार के प्रति मानवीयता का भाव ......
खन खन के शोर में ...विलुप्त होते रिश्ते ..सही कहा है आपने ....
बहुत बढ़िया रचना दी.....
बस समझ जाएँ हम सभी.....
सादर
अनु
धन कभी बहुत नही होता जितना आता है खर्चे उसी हिसाब से बढते जाते हैं । फिर और और की लालसा बढती जाती है फिर चाहे वह किसी भी मार्ग से आये ।
हम अपने बच्चों को संस्कार देने में चूक रहे हैं क्या ।
आज के परिप्रेक्ष्य को ुजागर करती सशक्त रचना ।
खूबसूरत रचना.
हिंदी दिवस की हार्दिक बधाई.
बहुत सुन्दर रचना |हिन्दी दिवस पर शुभ कामनाएं |
आशा
sahi bat hai jb wakt hath se nikal jata hai tabhi samajh men aata hai ...
लेकिन कई बार दोहराने पर भी लोग इस सच को नहीं समझ पाते हैं...पैसे की होड़ में ...सब कुछ रौनधते ..बस सरपट दौड़े जाते हैं ....
saarthak sandesh --
संगीता जी, बहुत ही सही व कड़वी बात कही !
~पैसा पैसा बोलता है, हर एक रिश्ता आज,
दिल के दरवाज़े बंद हुए... आँखों पर पैसे का राज !~
~सादर !
सुन्दर रचना
सही कहा
तो क्या बंगारू लक्ष्मण का कहना गलत था कि पैसा भगवान न सही,पर भगवान से कम भी नहीं!
फिर भी बाँध कर
पट्टी अपनी आँखों पर
भाग रहे हैं
बस भाग रहे हैं
सो रहे हैं मन से
पर कहते हैं कि
हम जाग रह हैं
यही तो दुर्भाग्य है...सटीक आकलन...
इन्हीं भावों पर कभी एक गीत लिखा था...
मंजिल के लघु पथ कटान में
जीवन के सब सार बह गए
हम नदिया की धार बह गए
बहुत सही कहा...
जी धन को छोड़ यहीं जाना है, उसी को जीवन का परम सत्य माना है...
तो जीवन में कष्ट ही कष्ट क्यों न बचे..
सत्य का स्मरण कराती, बहुत ही सार्थक सुन्दर रचना...
आज पैसे की चमक में सभी रिश्ते और संस्कार धूमिल हो गये हैं...बहुत सुन्दर और सटीक प्रस्तुति..
NICE SURENDRA BANSAL kee Kalam se: बेस्वाद बर्फी और इत्ती सी ख़ुशी इत्ती सी हँसी http://surendra-bansal.blogspot.com/2012..
भौतिक सुख के वास्ते,लगी हुई है होड़
नाता धन से जोड़ते , रिश्ते नाते तोड़
रिश्ते नाते तोड़ ,मोड़ते मुख अपनों से
मिला किसे सुखधाम,तिलस्मी इन सपनों से
निर्मल निश्छल नेह, बिना सुख नहीं अलौकिक
लगी हुई है होड़,कमाने को सुख भौतिक ||
सुन्दर प्रस्तु्ति
प्यार स्नेह की समझ न रखने वालों के, पैसा काम नहीं आएगा ! वे अभागे हैं ...
जब नींद खुलेगी तब
मन बहुत पछतायेगा
व्यर्थ हुआ सारा जीवन
हाथ नहीं कुछ आएगा ...
दीदी कवि धर्म के अनुकूल बहुत सुंदर सचेत करती हुई कविता !
सच में पैसे की होड़ के पीछे जीवन तबाह होता जा रहा है. लग तो ऐसा ही रहा है की पाश्चात्य संस्कृति बहुत जल्द ही अपने संस्कृति पर हावी होने वाली है.
कथ्य बिलकुल सच्चे है.सौ फीसदी. मेरा आभार.
निहार रंजन
आपने लिखा...
और हमने पढ़ा...
हम चाहते हैं कि इसे सभी पढ़ें...
इस लिये आप की रचना...
दिनांक 02/02/2016 को...
पांच लिंकों का आनंद पर लिंक की जा रही है...
आप भी आयीेगा...
आज पांच लिंकों का आनंद अपना 200 अंकों का सफर पूरा कर चुका है... इस लिये आज की विशेष प्रस्तुति पर अपनी एक दृष्टि अवश्य डाले।
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