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यथार्थ का धरातल

>> Sunday, June 6, 2010

आज  मैं अपनी  बहुत पुरानी रचना  आप सबके साथ बाँटना चाहती हूँ....ये तब लिखी गयी थी जब मैंने कुछ यूँ ही लिखना शुरू किया था...कॉलेज  के अंतिम वर्ष में थी....१९७४  की लिखी ये रचना आज भी शायद कमोवेश वही कह रही है....हालात में कोई खास 
परिवर्तन नहीं आया है....




सोचा   मैंने एक दिन , इस जगत में सैर करूँ 


अपनी कल्पना की  लहरों पर धीरे धीरे  तैर चलूँ 

तभी विचार आया मन में ,कल्पना से उपर उठूँ

खुद चलते चलते   इस  धरती पर पग रखूं  |


जब धरा पग मैंने पृथ्वी पर 

एहसास हुआ ऐसा 

ज़िन्दगी के चार दिन औ  

फिर भी जीवन है कैसा ?


इधर निगाह उठी तो पाया  

कृषक श्रमदान कर रहा था 

ज़रा हाथ रुके नहीं थे 

ऐसी मेहनत कर रहा था 


आँखें धंसी हुईं  थी अन्दर 

भूखा  पेट  पिचक रहा था 

पसीने की  कंचन बूंदों से 

तन उसका चमक रहा था .


देख  उसकी ये हालत 

एक आघात  हुआ यूँ मन पर 

जीवन पाला  जग का  जिसने 

रक्त  दीखता  उसके तन पर .




कुछ पग और चले थे आगे     

एक आलिशान भवन खड़ा  था 

श्रमिकों का शोषण कर कर के 

खुद को गर्वित  समझ रहा था .


कहा गर्व से उसने ऐसे 

ये सब मेरे कर्मो का फल है 

करा  ज़िन्दगी भर श्रम उसने 

लेकिन फिर भी निष्फल  है .


तब पूछा  मैंने उससे 

सुन  तेरे कर्म  कैसे हैं 

हँस  कर बोला मुझसे यूँ 

सब  धन की आड़ में छिपे हैं 


सोचा  मैंने धन कैसा है 

जो सब कुछ छिपा लेता  है 

पाप को पुण्य और 

पुण्य को पाप बना देता है .


सोचते सोचते घर की ओर बढ़ चले कदम 

कि लोगों को धन  का है कैसा भरम 

एक दिन फिर उस ओर कदम बढ़ गए 

जहाँ पर  कृषक और भवन थे मिले 


देखा वहाँ  जा कर  कि 

कृषक  मग्न हो काम कर रहा था 

पसीना पोंछ वो खेत  जोत  रहा था 

दृष्टि गयी भवन पर तो मैंने ये पाया 

कि मात्र एक खंडहर  वहाँ खड़ा था .


उसे देख मुझे उसी की बात का ख्याल आया 

कि  कर्मों के अनुसार आज तूने ये फल पाया 

मेरे मुंह से उस वक़्त ये शब्द निकल गए 

ना फंसना तू इस भ्रम जाल में 

वरना इन्सां तो यहाँ यूँ ही छले  गए ...






40 comments:

दिगम्बर नासवा 6/06/2010 6:57 PM  

Aapke samvedansheel hreday mein jeevan ke yathaarth ko us samay bhi ache se samajhne ki shakti thi ... bahut bhaav poorn likha hai ...

अनामिका की सदायें ...... 6/06/2010 6:59 PM  

लिखने के अंदाज़ से ही पता चलता है कि लेखनी के शुरुआती दौर की स्थिति है. लेकिन लेखक के सम्वेंदन शील मन का भी आभास होता है. बहुत निर्मल मन से लिखी आपकी रचना समाज के हालातो का हवाला देती है और आज भी हम देखते हैं तो हालात हो आज भी वही हैं.
सुंदर विचार, सुंदर रचना. बधाई.

पी.सी.गोदियाल "परचेत" 6/06/2010 7:08 PM  

बहुत सुन्दर संगीता जी , रचना के माध्यम से आपने न सिर्फ इस देशः में पहिली असमानता पर कटाक्ष किया अपितु यह भी बता दिया कि पाप का पैसा ज्यादा नहीं टिकता !

M VERMA 6/06/2010 7:10 PM  

ना फंसना तू इस भ्रम जाल में
वरना इन्सां तो यहाँ यूँ ही छले गए ...
सम्वेदनशील रचना

kshama 6/06/2010 7:11 PM  

Yugon, yugon ka saty hai yah..bas shakl badal jati hai..

संजय भास्‍कर 6/06/2010 7:23 PM  

बहुत अच्छी कविता .. मुझे तो बहुत पसंद आई.

harminder singh 6/06/2010 8:04 PM  

आपके शब्द वाकई पूरी कहानी कह गये.

आचार्य उदय 6/06/2010 8:11 PM  

आईये जानें .... मन क्या है!

आचार्य जी

vandana gupta 6/06/2010 8:12 PM  

आज तो यथार्थ को धरातल पर उतार लायीं हैं आप्…………………आपकी ये रचना हर युग मे सामयिक है………आपकी दृष्टि बहुत ही पैनी थी तब भी और अब भी……………बहुत खूब्।

चला बिहारी ब्लॉगर बनने 6/06/2010 8:18 PM  

आपका गीत में एक साथ जॉन बनयन का ‘he that is down needs fear no fall’ अऊर मुनव्वर राना साहब का ‘बड़ी ऊँची ईमारत हर समय ख़तरे में रहती है’ दोनों का मजा एक साथ आ गय... भले ई 1974 का गीत हो, लेकिन समय के साथ ई गीत में नया भाव आता जाएगा अऊर ई कभी पुराना नहीं होगा...

एक बेहद साधारण पाठक 6/06/2010 8:25 PM  

देख उसकी ये हालत
एक आघात हुआ यूँ मन पर
जीवन पाला जग का जिसने
रक्त दीखता उसके तन पर .


इसके आगे पढने की हिम्मत बड़ी मुश्किल से जुटा पाया...
इतना कड़वा सच शब्दों की नाजुक डोर से बाँध कर आपने जिस तरह प्रस्तुत किया उसके लिए प्रणाम करता हूँ

डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali) 6/06/2010 9:03 PM  

रचना बहुत सुंदर लगी.... संवेदनशील....

मनोज कुमार 6/06/2010 9:15 PM  

रच्ना के विचार और भाव बहुत अच्छे हैं।

Mrityunjay Kumar Rai 6/06/2010 9:41 PM  

NICE

http://www.madhavrai.blogspot.com/

shikha varshney 6/06/2010 9:48 PM  

बेहतरीन भाव लिए है रचना ..ओर यथार्थ को परिलक्षित करती है ..
बहुत अच्छा लिखा है दी !

स्वप्निल तिवारी 6/06/2010 10:38 PM  

kuch rachnayen samay dhara par tairati reahti hain ...unke arth humesha sachhe rahte hain .. :)

Udan Tashtari 6/06/2010 11:36 PM  

आज भी उतनी ही सामयिक..कुछ नहीं बदला.

बहुत उम्दा रचना!

सूफ़ी आशीष/ ਸੂਫ਼ੀ ਆਸ਼ੀਸ਼ 6/07/2010 6:28 AM  

Sangeeta ma,
Ye jo rachna aapne kee thi, Meerut mein padhte hue, aaj dilli mein bhi satya hai! Aur har jagah...
Shashwat! Sateek! Sargarbhit!
Naman!

Apanatva 6/07/2010 6:29 AM  

old is gold charitarth karatee aapkee rachana bahut pasand aaee .

वाणी गीत 6/07/2010 7:25 AM  

कर्म के अनुसार फल मिलता है
इन श्रमिको और कामगारों को देख कर कभी कभी शक होने लगता है ..
संवेदनशील रचना ...आभार

रेखा श्रीवास्तव 6/07/2010 10:52 AM  

ये जो नींव होती हैं बहुत पुरानी होती है और शुरू भी दया , ममता और अन्याय के खिलाफ बगावत से ही होती है.
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति है. इतनी पुरानी और अधिक सोना बन गयी है. लेकिन ये जो समाज का रवैया है वो कभी बदलता कहाँ है. चाहे उससे पहले के समय में चले जाएँ. पैसे ने हमेशा ही मानव का शोषण किया है और वो शोषित होता रहा है. एक कलम का सिपाही तो हमेशा से कलम की तलवार लेकर खड़ा रहा है और वही तो इसमें दिख रहा है.

Arvind Mishra 6/07/2010 11:10 AM  

एक कवि आपके मन में कब से मचलता रहा है -यह कविता रेखांकित करती है इसे !

rashmi ravija 6/07/2010 12:28 PM  

आपकी लेखनी प्रारम्भ से ही इतनी सक्षम है....बहुत ही सुन्दर रचना..

Anonymous,  6/07/2010 12:46 PM  

"उसे देख मुझे उसी की बात का ख्याल आया
कि कर्मों के अनुसार आज तूने ये फल पाया"
सत्य यही है सब जानते हैं
लेकिन दिल की नहीं दिमाग की मानते हैं
सुंदर रचना

Pt. D.K. Sharma "Vatsa" 6/07/2010 1:57 PM  

भावपूर्ण रचना! बहुत ही बढिया....
आभार्!

ज्योति सिंह 6/07/2010 4:17 PM  

उसे देख मुझे उसी की बात का ख्याल आया

कि कर्मों के अनुसार आज तूने ये फल पाया

मेरे मुंह से उस वक़्त ये शब्द निकल गए

ना फंसना तू इस भ्रम जाल में

वरना इन्सां तो यहाँ यूँ ही छले गए .
jabki bhi ho magar hai saarthak rachna ,mujhe to bha gayi ,achal se chal me jyada sukh hai kyonki isme befikri hai .sundar ,yatharh bas yatharh hi ......

रश्मि प्रभा... 6/08/2010 11:22 AM  

वाह.... बहुत ही बढ़िया

"SHUBHDA" 6/08/2010 3:00 PM  

बहुत ही बढिया
संवेदनशील....

निर्झर'नीर 6/08/2010 3:45 PM  

sahi kaha aapne 36 saal baad bhi sab kuch aisa ka aisa hi hai kuch bhi nahi badla ..............

प्रसन्नवदन चतुर्वेदी 'अनघ' 6/08/2010 7:41 PM  

अच्छी अभिव्यक्ति...हार्दिक बधाई....

Asha Lata Saxena 6/09/2010 7:21 AM  

बहुत सक्षम भाव |एक अच्छी रचना कॉलेज कई याद दिला गई |मेरी बधाई स्वीकार करें |
आशा

Urmi 6/09/2010 9:56 AM  

सुन्दर भाव के साथ आपने इतनी खूबसूरती से लिखा है जो प्रशंग्सनीय है! उम्दा रचना!

Satish Saxena 6/09/2010 10:54 AM  

आपकी संवेदनशीलता अद्भुत है ! शुभकामनायें संगीता जी !

ज्योत्स्ना पाण्डेय 6/09/2010 2:55 PM  

यथार्थ के धरातल पर दौडता सत्य......रचना संवेदना से पूर्ण.....

सादर- ज्योत्स्ना.

शोभना चौरे 6/09/2010 7:17 PM  

कुछ भी नहीं बदला है कृषक आज भी श्रम के मोती बहाता है |
आपकी यह कविता मुझे बहुत बहुत ही अच्छी और सच्ची लगी |

Pawan Kumar 6/09/2010 7:34 PM  

मेरे मुंह से उस वक़्त ये शब्द निकल गए


ना फंसना तू इस भ्रम जाल में


वरना इन्सां तो यहाँ यूँ ही छले गए ...
आदरणीय 1974 की ये रचना तब भी प्रासंगिक थी और शायद आज भी उतनी ही है....... ! किसानो की पीड़ा को बखान करती यथार्थवादी कविता ...!

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' 6/09/2010 9:08 PM  

पुराने चावलों की महक बरकरार है!
सुन्दर रचना!

अरुणेश मिश्र 6/12/2010 1:34 PM  

संगीता जी . जन्मजात कवयित्री हो ।

अरुणेश मिश्र 6/12/2010 1:34 PM  

संगीता जी . जन्मजात कवयित्री हो ।

Abhishek Agrawal 8/14/2010 9:41 PM  

पढ़ कर अच्छा लगा.

कुछ एक ऐसी ही रचना मेरी भी है http://diastrophy.blogspot.com/2010/07/blog-post_23.html पर. आपकी टिप्पणी उत्साह प्रदान करेगी.

धन्यवाद.

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