सागर मंथन
>> Monday, April 30, 2012
कटूक्तियाँ ,
मन के भँवर में
घूमती रहती हैं
गोल गोल
संवेदनाएं
तोड़ देती हैं दम
अपने अस्तित्व को
उसमें घोल ,
भावनाएं
साहिल पर
पड़ी रेत सी
वक़्त के पैरों तले
कुचल दी जाती हैं
जो अपने
क्षत- विक्षत हाल पर
पछताती हैं ,
तभी ज़िंदगी के
समंदर से
कोई तेज़ लहर
आती है
जो उनको
अपने प्रवाह संग
बहा ले जाती है ,
फिर होती है
कोई नयी शुरुआत
कोई नयी शुरुआत
सुनहरी सी भावनाओं का
चढ़ता है ताप
चाँद भी आसमां में
जैसे मुस्काता है
आँखों का सैलाब भी
ठहर सा जाता है
बस यूं ही
समंदर की लहरें
आती - जाती हैं
ज़िंदगी को जीना है
यही समझाती हैं ,
मैं भी जी रही हूँ
कर के ये चिंतन
रोज़ ही करती हूँ
मैं सागर मंथन ।