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उल्लसित धूप

>> Monday, July 16, 2012




तम  के  गहन  बादलों के बीच
आज निकली है 
हल्की सी उल्लसित धूप 
और मैंने  
अपनी सारी ख्वाहिशें 
डाल  दी हैं  
मन की अलगनी पर 
इन सीली सीली सी 
ख़्वाहिशों को 
कुछ हवा लगे 
और कुछ धूप
और  सीलन की महक 
हो सके दूर  
साँझ  होने से पहले ही 
सहेज लूँगी  इनको 
और डाल  दूँगी इनके साथ 
वक़्त के नेपथलीन बॉल्स
जो शिथिलता  और 
विरक्ति के कीड़े  को 
फिर लगने नहीं देंगे  ।



बूंद बूंद रिसती ज़िंदगी

>> Wednesday, July 11, 2012





ज़िंदगी की उलझने 
जब बन जाती हैं सवाल 
तो उत्तर की प्रतीक्षा में
अल्फ़ाज़ों में  ढला करती हैं 
उतर आती हैं अक्सर 
मन के कागज पर 
जो अश्कों  की स्याही से 
रचा करती हैं 
पढ़ने वाले  भी बस 
पढ़ते हैं शब्दों को 
उनको भी पड़ी लकीरें 
नहीं दिखती हैं 
लकीरों की भाषा भी 
समझना आसान नहीं 
वो तो बस 
आड़ी तिरछी ही 
दिखा करती हैं 
मन होता है तिक्त 
अपनेपन से 
हो जाता है  रिक्त 
मित्र भी करते हैं  कटाक्ष 
थक हार कर 
बंद कर लिए जाते हैं  गवाक्ष 
घुट कर रह जाती हैं  जैसे सांसें 
और ---
बूंद बूंद रिसती है ज़िंदगी 



हमारी वाणी

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