बेख्याली के ख्याल
>> Monday, February 24, 2014
ज़िंदगी के दरख्त से सब उड़ गए परिंदे
दहलीज़ तक भी नहीं आते अब कोई बाशिंदे ।
दहलीज़ तक भी नहीं आते अब कोई बाशिंदे ।
पास के शजर से जब आती है चहचहाहट
पड़ जाते हैं न जाने क्यों मोह के फंदे ।
पड़ जाते हैं न जाने क्यों मोह के फंदे ।
सब हैं अपने अपनेआप में इतने व्यस्त
नहीं मिलते अब सहारे के लिए कोइ कन्धे ।
नहीं मिलते अब सहारे के लिए कोइ कन्धे ।
नेह नहीं मिलता कहीं हाट बाज़ार में
ना ही उगाही के रूप में काम आते हैं चंदे ।
ना ही उगाही के रूप में काम आते हैं चंदे ।
किसी के लिए जब न रहो काम के
करते रहो बस केवल अपने काम धंधे ।
करते रहो बस केवल अपने काम धंधे ।