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अक्स विहीन आईना

>> Monday, December 3, 2012




आज उतार लायी हूँ 
अपनी भावनाओं की पोटली 
मन की दुछत्ती से 
बहुत दिन हुये 
जिन्हें बेकार समझ 
पोटली बना कर 
डाल दिया था 
किसी कोने में ,
आज थोड़ी फुर्सत थी 
तो खंगाल रही थी ,
कुछ संवेदनाओं का 
कूड़ा - कचरा ,
एक तरफ पड़ा था 
मोह - माया का जाल , 
इन्हीं  सबमें  खुद को , 
हलकान करती हुई 
ज़िंदगी को दुरूह 
बनाती जा रही हूँ । 
आज मैंने झाड दिया है 
इन सबको  
और बटोर कर 
फेंक आई हूँ बाहर , 
मेरे  मन का घर 
चमक रहा है 
आईने की तरह , लेकिन 
अब  इस आईने में 
कोई अक्स नहीं दिखता । 



92 comments:

रश्मि प्रभा... 12/03/2012 3:44 PM  

कुछ ना दिखे ... पर बटोरी हुए कचरों से मुक्ति तो मिली . और अक्स विहीन आईने में मिलेगा अपना स्वत्व, अपनी गरिमा - आंसू तो हर वजूद में साथ देते हैं

virendra sharma 12/03/2012 3:54 PM  

ये स्मृतियों का पिटारा बस कुछ ऐसा ही है .बढ़िया भाव विरेचन कराती हुई रचना .

Rohitas Ghorela 12/03/2012 3:59 PM  

आईना यादें रूपी धुल से उभर आया

अब खुद का अक्स दिखने लगेगा ... फिर धीरे धीरे यही धुल जमती जाएगी ...

बहुत सुन्दर भाव ... :))

मेरी नयी पोस्ट पर आपका स्वागत है
http://rohitasghorela.blogspot.com/2012/11/3.html

shikha varshney 12/03/2012 4:08 PM  

अच्छा किया ..कभी कभी सफाई जरूरी है फिर दिखता है अपना वजूद साफ़ साफ़.
वैसे पोटली कुछ ज्यादा सुन्दर नहीं है??? मुझसे तो न फेंकी जाए कभी :).
बहुत सुन्दर लिखा है दी!!.

सदा 12/03/2012 4:24 PM  

लेकिन
अब इस आईने में
कोई अक्स नहीं दिखता ।
वाह क्‍या बात कही है ... आपने इन पंक्तियों में अनुपम भाव लिये उत्‍कृष्‍ट अभिव्‍यक्ति

संध्या शर्मा 12/03/2012 4:34 PM  

जीवन को आसान बनाना है तो इस कूड़े को साफ करके मन का घर चमकाना बहुत जरुरी हो जाता है... बहुत सुन्दर सार्थक सृजन... आभार

रविकर 12/03/2012 4:39 PM  

मन को कैसे पोट ली, ली पोटली उतार ।

चुप्प चुकाने चल पड़ी, दीदी सभी उधार ।

दीदी सभी उधार, दर्प-दर्पण है कोरा ।

नाती पोते आदि, नहीं क्या उन्हें अगोरा ।

शंख सीप जल रत्न , सजा देते फिर दर्पण ।

सजा मजा का साथ, पिरो कुछ मनके रे मन ।

Suman 12/03/2012 4:59 PM  

यदि आईना साफ हो तो अक्स और भी साफ दिखाई देते है ...ऐसा मेरा मानना है,
लेकिन इसके प्रति अब कोई आसक्ति नहीं रही, आते जाते विचारों के लिए सिर्फ साक्षी है आईना !

vandana gupta 12/03/2012 5:12 PM  

मेरे मन का घर
चमक रहा है
आईने की तरह , लेकिन
अब इस आईने में
कोई अक्स नहीं दिखता ।

अब क्या करना है कोई अक्स देखकर …… इसे ऐसे ही साफ़ सुथरा रखिये और ज़िन्दगी को भरपूर अपने लिये जीइये

विभा रानी श्रीवास्तव 12/03/2012 5:14 PM  

आज मैंने झाड दिया है
इन सबको
और बटोर कर
फेंक आई हूँ बाहर ....
ऐसा आप सही कीं ....
लेकिन कितना कठिन रहा होगा ....

Anupama Tripathi 12/03/2012 5:18 PM  

मेरे मन का घर
चमक रहा है
आईने की तरह , लेकिन
अब इस आईने में
कोई अक्स नहीं दिखता ।

साफ मन सा साफ आईना ......
सुंदर रचना दी ....

वाणी गीत 12/03/2012 5:28 PM  

संवेदनाओं का कूड़ा करकट फेंक दिया, आईना साफ़ हुआ , कुछ दिन खाली ही सही !
दर्द जो सीने से लगे होते हैं , जाते जाते उदास कर देते हैं !

पी.सी.गोदियाल "परचेत" 12/03/2012 6:01 PM  

मेरे मन का घर
चमक रहा है
आईने की तरह , लेकिन
अब इस आईने में
कोई अक्स नहीं दिखता ।

खुद को झूठी तसल्ली दिलाते ख़ूबसूरत भाव,एक कवि मन उस कचरे को यूं इतनी आसानी से नहीं भुला सकता !

रेखा श्रीवास्तव 12/03/2012 6:02 PM  

मन का स्वच्छ दर्पण ही तो है जिसमें फिर से साफ साफ आकृतियाँ नजर आएँगी . पुरानी कटु और तिक्त स्मृतियाँ और पूर्वाग्रह सब ख़त्म कर फिर से नए सिरे से चल पड़ना ही नए सिरे से और नयी नजर से जीवन को देखना है।

ऋता शेखर 'मधु' 12/03/2012 6:10 PM  

और बटोर कर
फेंक आई हूँ बाहर ,
मेरे मन का घर
चमक रहा है
आईने की तरह , लेकिन
अब इस आईने में
कोई अक्स नहीं दिखता ।

मन चमक रहा है, साथ ही दर्द भी झलक रहा हैः)

Anita Lalit (अनिता ललित ) 12/03/2012 6:49 PM  

बहुत सुंदर रचना दीदी !:-)
बड़ी बहादुरी का काम किया है आपने..! वो कूड़ा-कचरा...जिसमें हम बीते पलों को, मोह भरे लम्हों को इतना ठूँस-ठूँस कर भरे रखते हैं... और वक़्त-बेवक़्त उन्हें टटोल-टटोल कर निकालते हैं...उनमें जीते हैं..., उन्हें मन से बाहर निकालना इतना आसान काम नहीं है दीदी...! आपने भी कितना कष्ट झेला होगा इस सफाई में...:(
मगर हम लोगों का स्वाभाव ही ऐसा होता है... वक़्त नहीं लगता, फिर से वही सब कूड़ा इकट्ठा करने में...! :) अभी कोई अक़्स नहीं दिख रहा, कुछ समय बाद फिर सब दिखेगा...,! तब तक देखने की कोशिश मत करिये, सिर्फ़ अपने आप को 'महसूस' कीजिए...!
~सादर!!!

अशोक सलूजा 12/03/2012 7:09 PM  

बहना ,हमारा तो यह पोटली ही सरमाया है ...जिसे आप बाहर फैंक आई हैं ....
यह यादों की पोटली बड़े काम की है ..बड़ा साथ देती है ...अभी भी उठा कर एक कोने में रख दें :-))
खुश रहे !
शुभकामनायें !

Mamta Bajpai 12/03/2012 7:29 PM  

बहुत सुन्दर पर इतना कठिन काम कैसे कर सकीं आप थोड़ी बहुत जुगत हमें भी बताइए ..

देवेन्द्र पाण्डेय 12/03/2012 8:05 PM  

..अब इस आईने में कोई अक्स नहीं दिखता।

..अलग ही दर्शन समझाया है आपने! मुझे लगता है कि ऐसा सिर्फ प्रतीत होता है कि जब सब बुहार दिया जाय तो कुछ भी न बचेगा, मैं भी नहीं। कोई अक्स न दिखेगा। लेकिन ऐसा होता नहीं होगा..जब कुछ न बचेगा..'मैं' भी नहीं तो ..प्रभु के अक्स उभर आयेंगे आइने में। ..ऐसा मुझे लगता है..पता नहीं सच क्या है!.. नहीं जानता।

ANULATA RAJ NAIR 12/03/2012 8:40 PM  

भावनाओं का कूड़ा फेंक दिया बड़ा अच्छा किया....अब मलाल न करना...
आईने में अक्स दिखेगा ज़रूर...आँखों की धुंध भी ज़रा हटे बस...
बहुत प्यारी कविता..

सादर
अनु

Ramakant Singh 12/03/2012 9:26 PM  

मेरे मन का घर
चमक रहा है
आईने की तरह , लेकिन
अब इस आईने में
कोई अक्स नहीं दिखता ।

सुंदर रचना

धीरेन्द्र सिंह भदौरिया 12/03/2012 10:14 PM  

लेकिन
अब इस आईने में
कोई अक्स नहीं दिखता ।
वाह क्‍या बात कही है ...

बेहतरीन भाव लिये उत्‍कृष्‍ट अभिव्‍यक्ति,,
संगीता जी बधाई,,,

recent post: बात न करो,

मनोज कुमार 12/03/2012 10:30 PM  

माया मोह के धूल कण झाड़ देने पर बड़ा शुभ्र और स्वच्छ छवि दिखने लगती है।

Sadhana Vaid 12/03/2012 11:56 PM  

कमाल की रचना है संगीता जी ! संवेदनाओं के इस कचरे को मन से बाहर बुहार कर फेंक देने के लिए भी बड़ा जिगर चाहिए ! सबमें उतना साहस कहाँ ! बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति !

अरुण कुमार निगम (mitanigoth2.blogspot.com) 12/04/2012 12:32 AM  

अक्स दिखाता आइना , देता मन को ठेस
भ्रम के मायाजाल में, मिलते कष्ट कलेस
मिलते कष्ट कलेस,दुखों पर सुख के परदे
सुंदरता का मोह , नयन को अंधा कर दे
भटकाता है राह , हमेशा रक्स दिखता
देता मन को ठेस ,आइना अक्स दिखाता ||

अरुण कुमार निगम (mitanigoth2.blogspot.com) 12/04/2012 12:34 AM  

"भटकाता है राह, हमेशा रक्स दिखाता" -पढ़ें.

Vandana Ramasingh 12/04/2012 5:32 AM  

मेरे मन का घर
चमक रहा है
आईने की तरह

बहुत सुखद स्थिति

प्रतिभा सक्सेना 12/04/2012 6:47 AM  

स्वच्छ,चमकता हुआ दर्पण-सा घर!
हाँ,पर एकदम रिक्त?कुछ चीज़ें छांट कर, धुली-पुँछी सार्थक रख दीजिये वहाँ पर, दर्पण भी सज जायेगा.

प्रवीण पाण्डेय 12/04/2012 8:14 AM  

जब मन हो जाये स्पंदित, तो क्यों अवलम्बन दर्पण का।

अनामिका की सदायें ...... 12/04/2012 10:29 AM  

आज आपको पढ़ एक शेर याद आया----

बंद शीशे के परे देख, दरीचों के उधर
सब्ज पेड़ों पे घनी शाखों पे, फूलों पे वहां
कैसे चुपचाप बरसता है मुसलसल पानी
कितनी आवाजें हैं, ये लोग हैं, बाते हैं मगर
जहन के पीछे किसी और ही सतह पे कहीं,
जैसे चुपचाप बरसता है तसव्वुर तेरा।

ओंकारनाथ मिश्र 12/04/2012 10:39 AM  

मन के आईने में वो अक्स कभी न उतरे वो काँटों की मानिंद होते है. काश मन ऐसा गुलची हो जो बस फूल ही फूल दिखाए अपने आईने में.बहुत सुन्दर कविता.

सादर,

निहार

virendra sharma 12/04/2012 11:50 AM  

भले इस आईने में कोई अक्स न भी दिखे ,आईना काटता तो नहीं .रुका हुआ व्यतीत विसर्जन ही चाह रहा था .भाव जगत का स्पर्श करती रचना .

Amrita Tanmay 12/04/2012 4:01 PM  

बिन बहाना जीना बेकार सा लगता है . सुन्दर लिखा है ..

चला बिहारी ब्लॉगर बनने 12/04/2012 10:40 PM  

कितनी गहरी बात कही है दीदी..
शक्लों से रूह फेंक दिया तो आईने में अक्स कैसे दिखेगा!! आज यही तो हो रहा है.. और जिहोने संजो रखा है, वे कचरा बीनने वाले समझे जाते हैं!!

Arun sathi 12/05/2012 5:46 AM  

आइने की तरह निच्छल मन...
आभार

Meeta Pant 12/05/2012 1:43 PM  

बहुत प्यारी रचना है . उस पोटली से मुक्ति पा लेना तो मोक्ष है !!
सादर .

जयकृष्ण राय तुषार 12/05/2012 2:09 PM  

बहुत ही सुन्दर कविता |
www.sunaharikalamse.blogspot.com
बच्चन जी की मधुशाला और अन्य कविताएँ यहाँ हैं |

मेरा मन पंछी सा 12/05/2012 6:21 PM  

अब मन हल्का हो गया है
अब आईने में अश्क भी ताजगी लिए दिखेगा
बहुत ही बेहतरीन रचना...
:-)

विभूति" 12/05/2012 7:41 PM  

भावो को संजोये रचना......

Anju (Anu) Chaudhary 12/05/2012 9:23 PM  

यादों की पोटली ...कभी हल्की तो कभी भारी

ashish 12/06/2012 8:27 AM  

धीरे से अक्श भी दिखेगा बस एक बार संवेदनाएं स्थूल रूप ले ले .

शिवनाथ कुमार 12/06/2012 6:43 PM  

मेरे मन का घर
चमक रहा है
आईने की तरह , लेकिन
अब इस आईने में
कोई अक्स नहीं दिखता

बहुत सुंदर !
सादर!


गिरिजा कुलश्रेष्ठ 12/06/2012 10:06 PM  

sach kahaa sangeeta ji. jab ahsas chuk jaenge to apna kya rahega bhala . bahut hi achchi kavita

नादिर खान 12/07/2012 3:59 PM  

और बटोर कर
फेंक आई हूँ बाहर ,
मेरे मन का घर
चमक रहा है
आईने की तरह , लेकिन
अब इस आईने में
कोई अक्स नहीं दिखता ।

बहुत सुंदर अभिव्यक्ति ...........लाजवाब

शोभना चौरे 12/07/2012 9:07 PM  

बहुत गहरी बात कही है आपने सच मन की सफाई जरुरी है ।अक्स दिखे या न दिखे ?

दर्शन कौर धनोय 12/08/2012 9:15 AM  

याद न जाये बीते दिनों की .......

दिगम्बर नासवा 12/08/2012 2:21 PM  

गुज़रे हुवे का फैकना ... खुद को तर तार करना होता है ... जिसके बिना जीना आसान नहीं होता ... भावनाओं का समुन्दर है ये रचना ...

Onkar 12/08/2012 5:05 PM  

बहुत खूब

Madhuresh 12/09/2012 3:04 AM  

बहुत गहन! जब पूरा साफ़ ही कर दिया तो कुछ बचा ही क्या! शेष बस निर्विकल्प ही है।
सादर
मधुरेश

Smart Indian 12/09/2012 7:59 AM  

उस माया मे ही मैं था ...

देवेंद्र 12/09/2012 7:18 PM  

बेहतरीन।जब आईने में कोई अक्स ना दिखे तो मानों मुक्त ही हो गये।
सादर-
देवेंद्र

मेरी नयी पोस्ट-
कागज की कुछ नाव बनाकर उनको रोज बहा देता हूँ........

Shalini kaushik 12/10/2012 12:27 AM  

.सार्थक भावपूर्ण अभिव्यक्ति बधाई भारत पाक एकीकरण -नहीं कभी नहीं

Udan Tashtari 12/10/2012 3:21 AM  

बहुत उम्दा...शुभकामनाएँ..

Aruna Kapoor 12/10/2012 3:39 PM  

...अक्स विहीन आईने की कल्पना बहुत बढिया है....लेकिन हकीकत में क्या ऐसा होना संभव है?..बहुत सुन्दर रचना!

Apanatva 12/11/2012 4:35 AM  

shartiya mera bhee patta saaf ho gaya lagta hai........

संगीता स्वरुप ( गीत ) 12/11/2012 10:07 AM  

सरिता जी ,

आपको यहाँ पा कर बहुत खुश हूँ :):) मैंने केवल कूड़ा ही निकाला है आपका पत्ता भला कैसे साफ हो सकता है .... आप तो प्रेरणा हैं :)

Saras 12/11/2012 5:57 PM  

बहुत सुन्दर.....सही किया आपने ..अक्सर हम लोग स्मृतियों को सहेज रखते हैं...वह स्मृतियाँ जिनसे जुड़े लोगों के लिए शायद वे बेमाने हैं ....और कबाड़ को ही अपनी धरोहर समझ बैठते हैं......एक बहुत ही प्यारी बात कही है आपने ...साभार

महेन्‍द्र वर्मा 12/12/2012 8:21 AM  

अनुभूतियां जब विवेक के द्वारा छान दी जाती हैं तो हृदय का आइना निर्बिम्ब हो जाता है।
विचारोद्वेलन करती अनूठी रचना।

Satish Saxena 12/12/2012 8:50 AM  

अच्छा किया आपने ...
मंगल कामनाएं !

विनोद कुमार पांडेय 12/13/2012 7:42 AM  

एक खुबसूरत भाव को समेटे हुए सुन्दर रचना।। संगीता जी धन्यवाद

Anonymous,  12/13/2012 12:53 PM  

बेहद गहन अभिव्यक्ति !!!

कुमार राधारमण 12/13/2012 1:48 PM  

बूंद समाना समुंद में,सो कत हेरी जाए....

Aditya Tikku 12/13/2012 5:06 PM  

aap ke blog per sada behtrin he padhne ko milta hai - Dhanywad

Yashwant R. B. Mathur 12/14/2012 7:47 PM  
This comment has been removed by the author.
kavita verma 12/14/2012 10:18 PM  

gahan bhav sanjoye sundar abhivyakti..

Rajput 12/16/2012 12:41 PM  

आज उतार लायी हूँ
अपनी भावनाओं की पोटली
मन की दुछत्ती से
बहुत दिन हुये
जिन्हें बेकार समझ
पोटली बना कर
डाल दिया था

वाह ! मन के भावों की कशमकश को रचना मे बहुत सुंदर ढंग से उकेरा है , लाजवाब

विभूति" 12/16/2012 5:17 PM  

भावो का सुन्दर समायोजन......

वीना श्रीवास्तव 12/16/2012 10:19 PM  

भावनाओं का सुंदर संयोजन....

जयकृष्ण राय तुषार 12/21/2012 10:46 AM  

आपको भी नववर्ष की ढेरों शुभकामनायें स्वस्थ और सपरिवार सानन्द रहें |हम लोगों को आशीष देती रहें |

Anita 12/21/2012 2:06 PM  

वाह ! अक्स विहीन दर्पण कितना सुंदर होगा..उसमें ही तो झलकेगा वह..बहुत सुंदर कविता..

shalini rastogi 12/21/2012 10:57 PM  

अतीत कि यांदों का खंगालने में बहुत कुछ हाथ लगता है ... आशा भी निराशा भी... बहुत अच्छी रचना!

Anonymous,  12/22/2012 8:23 AM  

bahut sundar...bhavpoorn.

Bhola-Krishna 12/24/2012 4:53 AM  


बहुत सुंदर , प्रेरणादायक रचना !
=======================
आइना चुप न रहेंगा ज़रूर बोलेगा
न सहीं आज वो कल राज सभी खोलेगा

छुप के बैठा है जो दिलमें नजर आजाएगा
फल्सफा जीस्त का पल भर में ही खुल जाएगा

"भोला-कृष्णा"

ताऊ रामपुरिया 12/25/2012 10:16 AM  

शायद बुजुर्गों ने इसीलिये कहा है कि पुरानी यादों व संबंधों को ताजा दम बनाये रखने के लिये उन्हें सींचते रहना पडता है, बहुत ही सुंदर अभिव्यक्ति.

रामराम.

Asha Joglekar 12/25/2012 8:24 PM  

जब भला बुरा सब त्याग दिया
तो दर्पण क्या दिखलायेगा ।
मेरै अपना कुछ रहा नही
सब ईश्वर का हो जायेगा

Naveen Mani Tripathi 12/27/2012 8:49 PM  

sangrhneey prastuti .....sadar abhar.

Unknown 12/28/2012 12:17 AM  

बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
http://ehsaasmere.blogspot.in/

उड़ता पंछी 12/28/2012 8:53 PM  

jaise jivan ek yatra hai, usme jitna halka hokar chala jaye to safar asaan ho jata hai

apne apne safar ko assan kar liya hai, jo har ek ke liye assan nhin hai . bhoot khub.

apna ashish dejiyega meri nayi post

Mili nayi raah!!

ASHOK BAJAJ 12/28/2012 10:25 PM  

सुन्दर अभिव्यक्ति,बधाई !

Ankur Jain 12/30/2012 7:18 PM  

शानदार प्रस्तुति।।।

पी.सी.गोदियाल "परचेत" 1/01/2013 12:48 PM  

दिन तीन सौ पैसठ साल के,
यों ऐसे निकल गए,
मुट्ठी में बंद कुछ रेत-कण,
ज्यों कहीं फिसल गए।
कुछ आनंद, उमंग,उल्लास तो
कुछ आकुल,विकल गए।
दिन तीन सौ पैसठ साल के,
यों ऐसे निकल गए।।
शुभकामनाये और मंगलमय नववर्ष की दुआ !
इस उम्मीद और आशा के साथ कि

ऐसा होवे नए साल में,
मिले न काला कहीं दाल में,
जंगलराज ख़त्म हो जाए,
गद्हे न घूमें शेर खाल में।

दीप प्रज्वलित हो बुद्धि-ज्ञान का,
प्राबल्य विनाश हो अभिमान का,
बैठा न हो उलूक डाल-ड़ाल में,
ऐसा होवे नए साल में।

Wishing you all a very Happy & Prosperous New Year.

May the year ahead be filled Good Health, Happiness and Peace !!!

रविकर 1/01/2013 3:24 PM  

मंगलमय नव वर्ष हो, फैले धवल उजास ।
आस पूर्ण होवें सभी, बढ़े आत्म-विश्वास ।

बढ़े आत्म-विश्वास, रास सन तेरह आये ।
शुभ शुभ हो हर घड़ी, जिन्दगी नित मुस्काये ।

रविकर की कामना, चतुर्दिक प्रेम हर्ष हो ।
सुख-शान्ति सौहार्द, मंगलमय नव वर्ष हो ।।

ANKUSH CHAUHAN 1/03/2013 9:24 PM  

बहुत सुन्दर रचना ..
गहरी भावनाए ...

Rajendra Swarnkar : राजेन्द्र स्वर्णकार 1/05/2013 1:23 AM  



♥(¯`'•.¸(¯`•*♥♥*•¯)¸.•'´¯)♥
♥♥नव वर्ष मंगलमय हो !♥♥
♥(_¸.•'´(_•*♥♥*•_)`'• .¸_)♥



खंगाल रही थी , कुछ संवेदनाओं का कूड़ा-कचरा ,
एक तरफ पड़ा था मोह-माया का जाल ,
...
...
मैंने झाड दिया है इन सबको
और बटोर कर फेंक आई हूँ बाहर ,
मेरे मन का घर चमक रहा है आईने की तरह ,
लेकिन
अब इस आईने में कोई अक्स नहीं दिखता...

बहुत भावपूर्ण !

आदरणीया संगीता स्वरुप जी
भावनाएं और संवेदनाएं हमारे जीवन का अटूट हिस्सा है ... बल्कि इनके कारण ही हम इंसान हैं !
... अन्यथा पशु या दानव होते ... ... ...


आपकी लेखनी से निसृत श्रेष्ठ , सुंदर , सार्थक सृजन को नमन !

नव वर्ष की शुभकामनाओं सहित…
राजेन्द्र स्वर्णकार
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Unknown 1/09/2013 1:43 PM  

Bahut achha Likhti hai aap ...
Naman apki Lekhni ko .
http://ehsaasmere.blogspot.in/2013/01/blog-post.html

Kailash Sharma 1/10/2013 8:16 PM  

संवेदनाओं और भावनाओं के बिना जीवन कहाँ जी पाते हैं..बहुत सुन्दर भावमयी रचना..

प्रसन्नवदन चतुर्वेदी 'अनघ' 1/14/2013 12:52 PM  

उम्दा प्रस्तुति...बहुत बहुत बधाई...

virendra sharma 1/14/2013 1:51 PM  

.आपकी सद्य टिप्पणियों के लिए

आभार .

मुबारक मकर संक्रांति पर्व .

Aditya Tikku 1/16/2013 10:43 AM  

as always - too good -***

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